अब क्या करेगी औरत?
साठ वर्ष की उम्र में
आदेश मिला है उसे
निकल जाने का घर से।
नहीं, वो यह नहीं कह सकती
कि, क्यों निकले वो?
घर तो उसका भी है!
वह जानती है
इस वाक्य के खोखले पन को।
घबरा कर
उसकी दहाड़ती आवाज से
निकल गई है
दरवाजे से बाहर।
खड़ी है अंधेरे को घूरती।
कहाँ जाय ?
उम्र ख़त्म हो चुकी नौकरी की,
थक चुके हैं
हाथ - पांव,
मजदूरी भी नहीं कर सकेगी।
शिथिल पड़ चुकी है देह,
अब इस योग्य भी नहीं रह गई
कि कर सके वेश्यावृति भी।
एक बार फाटो माँ धरती,
समाने को खड़ी है
एक और सीता
तुम्हारे अन्दर!
लेकिन उसे पता है
नहीं होना है ऐसा।
उसे लौटना होगा
इन्हीं चार दीवारों
और छत के अन्दर ,
जिसे समाज कहता है
उसका घर।
प्रतीक्षा में बैठी है
शायद खोल कर किवाड़
वही कह दे
अन्दर आने के लिए।
रह जाए उसका
थोड़ा सम्मान।
हांलाकि वह जानती है
यह सिर्फ़ एक दुराशा है।
उसे तो बतानी है उसे
उसकी ओउकात।
तो क्या वह ख़ुद ही
खटखटा ले
बंद दरवाजे को?
हिम्मत नहीं जुटा पा रही है।
क्या होगा
अगर उसने नहीं खोला तब?
फैलने लगा है
सुबह का उजाला।
थोड़ी ही देर में
खुलने लगेंगे
पड़ोसियों के दरवाजे।
बचा ले उनकी निगाह में
अपनी इज्जत!
पलट गई वह।
उढ़का हुआ है दरवाजा
बंद नहीं किया गया था।
उसे भी पता था
लौट आयेगी वह।
वह भी जानती है
उसे भी कहाँ मिलेगी
तन के कपडे और
पेट के खाने पर
दिन-रात खटने वाली
ऐसी विश्वस्त परिचारिका?
घसीटती हुई पैरों को
बचाती हुई हर आहट
चली आई है रसोई में।
चुक गई सारी ताकत,
बिखर गई फर्श पर।
बह चले आखों से
अपमान और हताशा!
ठूंस कर मुंह में आँचल,
बेध रही है अपना ही कलेजा
अपनी चीखों से।
हे भगवान,
कितनी जरुरत है
ख़ुद के कमाए हुए
पैसों की!
Tuesday, December 15, 2009
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10 comments:
रचना अच्छी लगी ।
ek poori tour par sachchhi kavita ke liye . badhayi
very touching..its not only money, but one needs family's ;love and care also..what to do for that.
मुझे उम्मीद है कि अगली पीढ़ी जब इस उम्र में पहुंचेगी तो शायद यह-सब कम देखने को मिलेगा। क्या हम इसके लिए अनुकूल परिस्थितियां बनाने की कोशिश कर पा रहे हैं? अगर नहीं तो देर करना दुखदाई होगा। क्यों न इसी मुद्दे पर जुटा जाए, थोड़ा-कुछ, अपनी क्षमता भर का जरूर किया जाए?
lambi kavita hai par dil ko chooti hai.
भाव ने तो भाषा को बहुत पीछे कर दिया !
...................... आभार ,,,
nice
ऐसी स्थिति न आए उसके लिए औरत को पहले से ही कुछ करना चाहिए और वह कर सकती है इतनी शक्ति है उसके पास। उसकी स्थिति को उसे स्वयं कोशिश करके बदलना होगा। एक कविता कभी लिखी थी..प्रस्तुत है..
हमें परजीवी लता नहीं बनना है
जड़-जमीन हीन,अस्तित्व विहीन,
दीन हीनता को तजना है,
हमें परजीवी लता नहीं बनना है।
न रहो कभी किसी की आश्रिता
खुद बनकर स्वावलंबी बनो हर्षिता
हमें खुद अपना संबल बनना है
हमें परजीवी...
न करे हमारा कोई शोषण-कुपोषण
सावधान रहना है हमको हरदम
हमें अपनी रक्षा खुद करना है
हमें परजीवी...
पराश्रिता का न होता कोइ सम्मान
जो भी चाहे करते हैं उसका अपमान
ऐसे जीवन को हमें बदलना है
हमें परजीवी..
हर खुशी हमारी थाती है
हम हरपल मुस्काती-गाती हैं
हर मधुमास हमारा अपना है
हमें परजीवी..
यह राह बड़ी है पथरीली
हर पल पलकें होतीं गीली
हर कदम पर हमें संभलना है
हमें परजीवी....
so pathetic...somewhat real...
हे भगवान,
कितनी जरुरत है
ख़ुद के कमाए हुए
पैसों की!
so damn true... !
Agreed wid Rama ma'am.
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