कुछ समय (साल कहें) पहले ‘आजकल’ पत्रिका में एक कविता पढ़ी थी, जिसका सार यह था कि छात्रावास की लड़कियों के लिए ऊंची मजबूत दीवारें उठा दो वरना किसी असभ्य राहगीर के मन में चलते-चलते मूत्र-त्याग त्याग की इच्छा जागेगी। अजीब लगता है यह विचार लेकिन था। उसके जवाब में मुझे जो सूझा, लगभग पंक्ति-दर-पंक्ति, वह बहुत दिनों तक कॉपी के एक पन्ने के साथ नत्थी होकर यहां-वहां भटकता रहा था, कभी मिलता, कभी लापता होता। अब मिला है तो सोचा इधर लगा दूं। यह ब्लॉग कोई साहित्य का संग्राहक होने का दावा तो नहीं करता इसलिए उससे कुछ कमतर माल भी खप ही जाएगा। वैसे भी यहां शिल्प से ज्यादा विचार महत्वपूर्ण है। फिर भी अगर पसंद न आए तो लताड़/आलोचना सुनने के लिए प्रस्तुत हूं ही।– अनुराधा
ढहा दो वो दीवारें जो
रोकती हैं बाहर की हवा को
पकी ईंटों की वो कठोर दीवारें
जिन्हें भेदकर अंदर नहीं जा सकती
ठंडी और गुदगुदी हवा
जब लड़कियां आती हैं, सहेलियों से साथ ढहा देने पुरानी दीवारों को
न रोके उन्हें कोई
दीवारों को तोड़ने दो तब तक
जब तक सड़क इतनी आम न हो जाए
टूटी दीवारों का सिलसिला इतना आम न हो जाए
कि हर असभ्य राहगीर अघा जाए
उनसे, और चलते-चलते मूत्र-त्याग की उसकी
इच्छा ही मर जाए
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9 comments:
दीवारें जो छिपाती हैं
वे तोड़ती भी हैं
भीतर दर भीतर
दीवारें टूटें और
जारी रहे टूटन
विसंगतियों की
कुरीतियों की
कुप्रवृत्तियों की
कुसंस्कारों की
और खड़ी हों
दीवारें ऐसी
इनके चारों ओर
कि इन्हें कैद से
न मिले मुक्ति
ऐसी ही युक्ति
कारगर होगी।
बहुत सुन्दर भाव हैं, वाकई आज इसी बात की जरूरत है पर...........!!!!!!
यही पर हमेश पर कतरने को आगे आता है कभी परिवार के रूप में कभी मर्यादाओं के रूप में.
चलिए कदम आगे बढे हैं तो दीवारें भी ढह रहीं हैं आगे भी ढहेगी
मैं भी छात्रावास में सात-आठ सालों तक रही हूँ. कुछ ऐसे ही विचार मेरे मन में भी आते थे जब होली में तीन दिनों तक हमें ताले में बन्द कर दिया जाता था और लड़के बाहर छुट्टे घूमते थे.
सटीक जवाब
रुढियों, बेडियों को तोडना ही होगा
प्रणाम स्वीकार करें
बहुत ही सुन्दर कविता है।
अद्भुत ! आपने तो नए विम्ब और प्रतीकों के माध्यम से ऐसी क्रांतिकारी कविता का सृजन किया है जिसका सन्देश बरछी के नोक की तरह सीधा दिल में चुभ रहा है ! जय हो.... कविता का प्रभाव ऐसा ही होना चाहिए !!!
बिल्कुल सही बात और उचित तेवर। दीवारों का ढहना जारी रहे।
टूटी दीवारों का सिलसिला इतना आम न हो जाए
कि हर असभ्य राहगीर अघा जाए
उनसे, और चलते-चलते मूत्र-त्याग की उसकी
इच्छा ही मर जाए ....
हम जिस दौर में जी रहे हैं, हमें सुंदर भावों की ही दरकार है। सुंदर तमन्नाओं की दरकार है। आजादी की चाह...मुक्ति की कोशिश से बेहतर और कौन सा भाव हो सकता है। कविता अच्छी लगी क्योंकि बात अच्छी है। जारी रहें ऐसी इच्छाएं।
सुन्दर। शानदार जज्बा!
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