बचपन में देखी गई फिल्मों में से मुझे कुछ ही याद हैं. उनमें से एक फिल्म मासूम भी है. मासूम फिल्म बचपन में देखे गये के हिसाब से तो लकड़ी की काठी के लिए याद होनी चाहिए लेकिन जाने क्यों जेहन में शबाना आजमी की वो तस्वीर चस्पा है जब उसे नसीर की जिंदगी की दूसरी औरत के बारे में पता चलता है. वो शबाना की खामोशी...और दु:खी, गुस्से में भरी, तड़पती ढेरों सवाल लिए खड़ी आंखें...उन आंखों में ऐसी मार थी कि उन्हें याद करके अब तक रोएं खड़े हो जाते हैं. खैर, फिल्म सबने देखी होगी और यह भी कि नसीर किस तरह माफी मांगता है शबाना से, किस तरह शर्मिंदा है अपने किए पर और शबाना उसे लगभग माफ कर ही देती है.
इसके बाद कई सारी फिल्मों में पुरुषों की गलतियां और उनके माफी मांगने के किस्से सामने आते रहे. समय के साथ स्त्रियों के उन्हें माफ करने या न करने के या कितना माफ करना है आदि के बारे में राय बदलती रही. वैसे कई फिल्मों में बल्कि ज्यादातर में पुरुष अपनी गलतियों के लिए माफी नहीं भी मांगते हैं बल्कि अपनी गलतियों को कुछ इस तरह जस्टीफाई करते हैं कि उसकी गल्ती के लिए औरत ही जिम्मेदार है, लेकिन आज बात माफी मांगने वाले पुरुषों की ही.
इसी माफी मांगने वाले फिल्मी पुरुषों की कड़ी में पिछले दिनों फिल्म 'पा' का एक पुरुष भी शामिल हो गया. पुरुष यानी फिल्म का नायक अमोल अत्रे. अमोल और विद्या का प्रेम संबंध बिना किसी फॉमर्ल कमिटमेंट के एक बच्चे की परिणिति का कारण बनता है. अमोल बच्चा नहीं चाहता, इन फैक्ट शादी भी नहीं करना चाहता. देश की सेवा करना चाहता है. करता भी है. उसे पता भी नहीं है कि उसका कोई बच्चा है, वह इस इंप्रेशन में है कि उसका बच्चा विद्या ने अबॉर्ट कर दिया है. लेकिन तेरह साल बाद जब ऑरो के रूप में उसे अपनी संतान का पता चलता है तो अमोल (अभिषेक) तुरंत अपनी पिछली से पिछली गलती को समझ जाता है. उसे एक्सेप्ट कर लेता है और पूरे देश के सामने एक रियलिटी शो में विद्या से माफी मांगता है और बच्चे को अपनाता भी है. अमोल एमपी है, उसका शानदार पॉलिटिकल करियर है. फिर भी वह माफी मांगता है इन चीजों की परवाह किये बगैर. विद्या का गुस्सा इस सबसे शांत नहीं होता. वह उसे माफ भी नहीं करती. वह अमोल के गले की हिचकी नहीं बनना चाहती.
कहां गए माफी मांगने वाले पुरुष
मेरे दिमाग में इस दौरान एक बात घूमती रही कि असल जिंदगी में इस तरह से माफी मांगने वाले पुरुष कहां गायब हैं. हां, गलतियां करने वाले पुरुषों की संख्या लगातार बढ़ रही है. लेकिन जैसे-जैसे वे समझदार हो रहे हैं, उनकी तार्किक शक्ति बढ़ रही है. अपनी चीजों को जस्टीफाई करने के तर्क भी. यथार्थ में माफी मांगने वाले पुरुष नदारद हैं. रिश्तों में माफी का बड़ा महत्व होता है. कोई भी माफी मांगने से छोटा नहीं होता. यह गुरुमंत्र जब मांएं अपनी बेटियों को दे रही होती हैं, तब उन्हें नहीं पता होता कि इसकी ध्वनि कुछ इस तरह जा रही है कि गलती कोई भी करे तुम माफी मांग लेना और सब ठीक हो जायेगा. ऐसा होता भी रहा है. इसी मंत्र ने परिवारों की बुनियाद को मजबूत बनाये रखा. दूसरों की गलतियों का इल्जाम अपने सर लेकर, खुद ही माफी मांगने के बावजूद, पिटने के बावजूद रिश्ता बचाने की जद्दोजेहद में औरतों ने अपने वजूद से ही लगभग किनारा कर लिया है. आत्म सम्मान वाली औरतें पुरुषों को लुभाती हैं, लेकिन वे घर की औरतें नहीं होतीं.
आखिर क्यों है ऐसा? दुनिया बदल रही है. समझदारियां भी बढ़ रही हैं. रिश्तों में स्पेस, डेमोक्रेसी जैसे शब्दों ने भी अपनी जगह बनानी शुरू कर दी है. लेकिन यहीं कुछ गड़बड़ा रहा है. वो माफियां जो पुरुषों की जानिब से आनी थीं, उनका स्पेस खाली पड़ा है. स्त्रियों को उनका स्पेस मिले न मिले लेकिन माफियों का वो स्पेस रिश्तों के दरमियान लगातार बढ़ रहा है. जीवन फिल्म नहीं होता. जीवन में पुरुषों के पास माफी से बड़ा अहंकार होता है. जिसे पालने-पोसने में ही वे पुरुषत्व मानते हैं. जहां समझदारियां थोड़ी ज्यादा व्यापक हैं वहां माफियां आ तो जाती हैं लेकिन कुछ इस रूप में कि वे भी किसी सजा से कम नहीं होतीं. क्या इतना मुश्किल होता है पुरुषों का माफी मांगना. रिश्तों को संभाल लेने की सारी जिम्मेदारी स्त्रियों के मत्थे मढ़कर कब तक परिवारों के सुरक्षित रहने की खैर मनायी जा सकती है.
इसके बाद कई सारी फिल्मों में पुरुषों की गलतियां और उनके माफी मांगने के किस्से सामने आते रहे. समय के साथ स्त्रियों के उन्हें माफ करने या न करने के या कितना माफ करना है आदि के बारे में राय बदलती रही. वैसे कई फिल्मों में बल्कि ज्यादातर में पुरुष अपनी गलतियों के लिए माफी नहीं भी मांगते हैं बल्कि अपनी गलतियों को कुछ इस तरह जस्टीफाई करते हैं कि उसकी गल्ती के लिए औरत ही जिम्मेदार है, लेकिन आज बात माफी मांगने वाले पुरुषों की ही.
इसी माफी मांगने वाले फिल्मी पुरुषों की कड़ी में पिछले दिनों फिल्म 'पा' का एक पुरुष भी शामिल हो गया. पुरुष यानी फिल्म का नायक अमोल अत्रे. अमोल और विद्या का प्रेम संबंध बिना किसी फॉमर्ल कमिटमेंट के एक बच्चे की परिणिति का कारण बनता है. अमोल बच्चा नहीं चाहता, इन फैक्ट शादी भी नहीं करना चाहता. देश की सेवा करना चाहता है. करता भी है. उसे पता भी नहीं है कि उसका कोई बच्चा है, वह इस इंप्रेशन में है कि उसका बच्चा विद्या ने अबॉर्ट कर दिया है. लेकिन तेरह साल बाद जब ऑरो के रूप में उसे अपनी संतान का पता चलता है तो अमोल (अभिषेक) तुरंत अपनी पिछली से पिछली गलती को समझ जाता है. उसे एक्सेप्ट कर लेता है और पूरे देश के सामने एक रियलिटी शो में विद्या से माफी मांगता है और बच्चे को अपनाता भी है. अमोल एमपी है, उसका शानदार पॉलिटिकल करियर है. फिर भी वह माफी मांगता है इन चीजों की परवाह किये बगैर. विद्या का गुस्सा इस सबसे शांत नहीं होता. वह उसे माफ भी नहीं करती. वह अमोल के गले की हिचकी नहीं बनना चाहती.
कहां गए माफी मांगने वाले पुरुष
मेरे दिमाग में इस दौरान एक बात घूमती रही कि असल जिंदगी में इस तरह से माफी मांगने वाले पुरुष कहां गायब हैं. हां, गलतियां करने वाले पुरुषों की संख्या लगातार बढ़ रही है. लेकिन जैसे-जैसे वे समझदार हो रहे हैं, उनकी तार्किक शक्ति बढ़ रही है. अपनी चीजों को जस्टीफाई करने के तर्क भी. यथार्थ में माफी मांगने वाले पुरुष नदारद हैं. रिश्तों में माफी का बड़ा महत्व होता है. कोई भी माफी मांगने से छोटा नहीं होता. यह गुरुमंत्र जब मांएं अपनी बेटियों को दे रही होती हैं, तब उन्हें नहीं पता होता कि इसकी ध्वनि कुछ इस तरह जा रही है कि गलती कोई भी करे तुम माफी मांग लेना और सब ठीक हो जायेगा. ऐसा होता भी रहा है. इसी मंत्र ने परिवारों की बुनियाद को मजबूत बनाये रखा. दूसरों की गलतियों का इल्जाम अपने सर लेकर, खुद ही माफी मांगने के बावजूद, पिटने के बावजूद रिश्ता बचाने की जद्दोजेहद में औरतों ने अपने वजूद से ही लगभग किनारा कर लिया है. आत्म सम्मान वाली औरतें पुरुषों को लुभाती हैं, लेकिन वे घर की औरतें नहीं होतीं.
आखिर क्यों है ऐसा? दुनिया बदल रही है. समझदारियां भी बढ़ रही हैं. रिश्तों में स्पेस, डेमोक्रेसी जैसे शब्दों ने भी अपनी जगह बनानी शुरू कर दी है. लेकिन यहीं कुछ गड़बड़ा रहा है. वो माफियां जो पुरुषों की जानिब से आनी थीं, उनका स्पेस खाली पड़ा है. स्त्रियों को उनका स्पेस मिले न मिले लेकिन माफियों का वो स्पेस रिश्तों के दरमियान लगातार बढ़ रहा है. जीवन फिल्म नहीं होता. जीवन में पुरुषों के पास माफी से बड़ा अहंकार होता है. जिसे पालने-पोसने में ही वे पुरुषत्व मानते हैं. जहां समझदारियां थोड़ी ज्यादा व्यापक हैं वहां माफियां आ तो जाती हैं लेकिन कुछ इस रूप में कि वे भी किसी सजा से कम नहीं होतीं. क्या इतना मुश्किल होता है पुरुषों का माफी मांगना. रिश्तों को संभाल लेने की सारी जिम्मेदारी स्त्रियों के मत्थे मढ़कर कब तक परिवारों के सुरक्षित रहने की खैर मनायी जा सकती है.
14 comments:
मुझे इस सिलसिले में अर्थ फिल्म पसंद आई थी.
ख़ासकर उसका अंत.
ग़लती जिसकी भी हो माफ़ी मांग लेना उसे बडा हि बनाता है।
कभी ऐसे सोचकर देखिये उन औरतों के पास माफ़ कर देने के अलावा कोई और चारा था क्या? अगर किसी और की औलाद औरत की कोख से आये तो पुरुष माफ़ करेगा क्या?
अच्छा आलेख। बहुत-बहुत धन्यवाद
आपको नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।
ये सच है कि महिलाएं ही ज़्यादातर माफ़ करती हैं। फ़िल्मों के जो आपने उदाहरण दिए उसमें एक मैं कभी अलविदा ना कहना का जोड़ना चाहूंगी। इस फ़िल्म में स्त्री और पुरुष बराबरी से ग़लती करते हैं और दूसरे स्त्री और पुरुष उन्हें माफ़ करते हैं। यहाँ आप उस संतुलन को देख सकती हैं।
अगर पुरुष अपना अहंकार ही छोड़ दे तो बहुत सी समस्याएं सुलझ जायें और बहुत से रिश्ते सँवर जायें...अच्छा लेख है...
जीवन फिल्म नहीं होता. जीवन में पुरुषों के पास माफी से बड़ा अहंकार होता है. जिसे पालने-पोसने में ही वे पुरुषत्व मानते हैं।
रिश्तों को संभाल लेने की सारी जिम्मेदारी स्त्रियों के मत्थे मढ़कर कब तक परिवारों के सुरक्षित रहने की खैर मनायी जा सकती है.
सही आकलन।
''क्या इतना मुश्किल होता है पुरुषों का माफी मांगना. रिश्तों को संभाल लेने की सारी जिम्मेदारी स्त्रियों के मत्थे मढ़कर कब तक परिवारों के सुरक्षित रहने की खैर मनायी जा सकती है.''
बेहतरीन…!
:)
पुरुष का या स्त्री का माफी मांग लेना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। आप रोज़ गलतियाँ करों और रोज़ माफी मांगो, से गलतियाँ माफी लायक नहीं होती। परिवार में एकनिष्ठा का मूल्य हमेशा रहा नहीं है। बल्कि परिवार के इतिहास के लिहाज़ से भी एक बड़ा बच्चा किस्म का मूल्य है। हिन्दू मैरिज एक्ट में भी ये सन पचास के बाद शामिल हुया, सो इसकी मर्यादा की शुरुआत पुरुष के लिए करीब ५०-६० साल पुरानी है। शायद सामाजिक मूल्य ये बने इसमे अभी बहुत देर है।
पुरुष के माफी न माँगने के बहुत से कारणों में परिवार के इस इतिहास की भी शिनाख्त ज़रूरी है। उसी तरह स्त्री के माफी मांगने में और किसी तरह परिवार को बचा ले जाने में, स्त्री की समाज में जो जगह है, और उसके एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में खड़े रहने में जो बड़ी अडचने और असुरक्षा है, वों बड़े कारण है कि स्त्री माफी मांगने पर बाध्य है, बिना गलती किये हुए। स्त्री का बेचारापन और असहायता इसके लिए ज्यादा ज़िम्मेदार है।
माफी माँगने के सवाल से भी अलग कई तरह के सवाल परिवारके स्वरूप पर भी रहे है। मासूम फिल्म Man, Woman and Child जिसे एरिक सेगल ने लिखा था, उसी नोवेल पर आधारित है, और अगर इसे पढ़े तो, मामला सिर्फ बेवफाई का नहीं रहता, मुक्त प्रेम के दर्शन पर इस किताब में काफी कुछ है, जो कि Europe में एक samaantar dhara है, स्त्री और पुरुष dono के लिए।
फिल्में तो दोनों ही देख पाने से वंचित रहा हूँ, अस्तु माफी और तत्कालीन परिस्थितियों का सही आकलन कर पाने में स्वयं को असमर्थ महसूस करता हूँ..
लेकिन एक बात बहुत गहरे छू गई.. वो माफियां जो पुरुषों की जानिब से आनी थीं, उनका स्पेस खाली पड़ा है. स्त्रियों को उनका स्पेस मिले न मिले लेकिन माफियों का वो स्पेस रिश्तों के दरमियान लगातार बढ़ रहा है।
किसी भी रिश्ते की शुरुआत आपसी समझबूझ से ज्यादा क्षणिक उद्वेग का परिणाम होती है.. सब कुछ इतना रूमानी-रुमानी सा लगता है कि या तुम माँग लो या मैं.. कोई फर्क़ नहीं पड़ता। तुम्हारी ग़लती के लिये मैं भी मुआफ़ी माँग सकता हूँ..just for the sake of relation..
लेकिन वक़्त गुजरने के साथ-साथ रिश्ते के मायने बदलने लगते हैं.. क्या खोया क्या पाया की तर्ज़ पर बनियागिरी चलने लगती है.. तब अपनी नाजायज ग़लती पर भी माफ़ी माँग पाना अहं के विपरीत लगता है.. यहीं हम पुरुष मात खा जाते हैं..! न जाने क्यों, उसी शख्स के सामने झुकना अब अहं को ठेस पहुँचाने लगता है, जिसके साथ कुछ पल बिताने के लिये, या मर्दवादी भाषा में कहें, तो जिसे हासिल करने के लिये साष्टांग झुकना कबूल था कभी..!
मन न जाने कैसा हो आया है..कुछ स्मृतियां
कोई माफ़ी मांगे तो माफ़ करना जरूरी भी तो नहीं है. सिर्फ एक बार माफ़ी मांगने से सारे गिले शिकवे दूर हो जायेंगे? कुछ हो भी सकते हैं, पर कुछ के लिए सिर्फ माफ़ी काफी नहीं होती. More important that saying sorry is to show that you are sorry.
सुन्दर सार्थक प्रस्तुति.
स्वप्नदर्शी जी की बातों से सहमत ... सार्थक मुद्दा है ... स्त्री तो माफ कर ही देती है ॥उसके कुछ अपने कारण हैं ... बस परिवार बचा रहता है विश्वास नहीं ...
बस यही फर्क है असल ज़िंदगी और फिल्मों में मगर यह पुरुष प्रधान समाज यदि अपना अहंकार छोड़ दे ऐसा कभी हो सकता है भला, बस कोशिश ही की जा सकती है,कि जब कोई भी माँ अपनी बेटी को यह शिक्षा देती है कि "गलती कोई भी करे तुम बस माफी मांग लेना" तब उस ही माँ को यही शिक्षा अपने बेटों को भी देनी चाहिए। तभी शायद कुछ थोड़ा बहुत सुधार आसके। बहुत ही सार्थक एवं सार गर्भित आलेख...
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