लड़ाकू विमान में प्रेजिडेंट की उड़ान का मतलब- आर. अनुराधा
अपने सिर को हमेशा साड़ी के पल्लू से ढक कर रखने वाली 74 वर्षीया राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने पिछले दिनों पूरे कॉम्बैट सूट में सुखोई फाइटर जेट में उड़ान भरी। इसके महीना भर बाद ही वे भारत के इकलौते विमानवाहक पोत आईएनएस विराट पर भी सवार हुईं। हमारी राष्ट्रपति की ये पहलकदमियां स्त्री शक्ति में बढ़ोतरी और उसमें देश के भरोसे की प्रतीक हैं।
राष्ट्रपति ने अपने इन कामों से इस भरोसे को और मजबूत किया है कि महिलाएं न सिर्फ फाइटर प्लेन उड़ा सकती हैं, बल्कि इस तरह के जटिल से जटिल मोर्चे पर सफलतापूर्वक काम कर सकती हैं। हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान ने अपनी वायु सेना में महिला लड़ाकू विमानचालकों की भर्ती की इजाजत दी हुई है, पर भारत में इस पर रोक है। हमारे यहां ऐसा क्यों है?

पिछले साल 13 दिसंबर को केंद्र सरकार ने एक मामले में दिल्ली हाई कोर्ट से कहा कि भारतीय थलसेना और वायुसेना में महिला अधिकारियों को स्थायी कमिशन देने की कोई संभावना नहीं है क्योंकि उनकी भर्ती के लिए जगह खाली नहीं है। उसके मुताबिक सेना में पहले से ही जरूरत से ज्यादा अधिकारी भर्ती हैं। ऐसे में अगर शॉर्ट सर्विस कमिशन (एसएससी) की महिला अधिकारियों को स्थायी कमिशन दिया जाएगा, तो उन्हें कहां काम दिया जाएगा?
हमारे देश में महिला सेना अधिकारियों को स्थायी कमिशन का विकल्प नहीं दिया जाता। एसएससी के जरिए भर्ती के बाद ज्यादा से ज्यादा 14 साल की नौकरी के बाद उन्हें सेना छोड़नी पड़ती है और फिर उन्हें कोई सिविल नौकरी ढूंढनी होती है, क्योंकि पुरुष अधिकारियों की तरह उन्हें सेवानिवृत्ति पर पेंशन वगैरह की सुविधाएं देने का भी कोई प्रावधान भारतीय सेना में नहीं है।
थल और वायुसेना की 20 महिला अधिकारियों ने यह मामला कोर्ट में दायर किया है कि उन्हें पुरुषों की तरह ही स्थायी कमिशन क्यों नहीं दिया जाता, जबकि वे भी पुरुषों की ही तरह हर परीक्षा और ट्रेनिंग से गुजरती हैं। इसके जवाब में सेना ने ए. वी. सिंह समिति की रिपोर्ट के हवाले से दलील दी कि फिलहाल युवा अधिकारियों की ग्राउंड ड्यूटी के लिए ज्यादा जरूरत है इसलिए महिलाओं को सेना में नहीं लिया जा सकता। सेना की ओर से कुछ दूसरे तर्क भी पेश किए गए, जैसे महिला अधिकारी हमेशा अपनी पसंद की पोस्टिंग चाहती हैं, जबकि पुरुष उतना हो-हल्ला नहीं करते। यह भी कहा गया कि अगर महिलाओं को सीमा पर तैनाती किया जाएगा, तो वहां उनके लिए ज्यादा खतरे हो सकते हैं। हालांकि डिविजन बेंच ने इन सभी तर्कों को नकारते हुए कहा कि कोई राय भावनाओं के आधार पर नहीं बनाई जाए। साथ ही सवाल किया कि क्या यह जरूरी है कि महिला अधिकारियों को फॉरवर्ड इलाकों में ही भेजा जाए। कई दूसरी ऐसी महत्वपूर्ण जगहें हैं जहां महिलाओं की तैनाती में कोई समस्या नहीं है।
महिलाओं की सेना में भर्ती के मसले पर वायुसेना के एयर मार्शल पी. के. बारबोरा ने भी हाल में एक टिप्पणी करके सनसनी फैला दी। उनके मत में महिलाओं को फाइटर पायलट बनाना आर्थिक रूप से फायदेमंद नहीं है। फाइटर पायलट की ट्रेनिंग पर बहुत खर्च आता है। भर्ती के कुछ साल बाद शादी करके वे मां बनना चाहें तो इससे वे कम से कम 10 महीने के लिए काम से दूर हो जाती हैं। इस कारण उन पर हुए खर्च के मुकाबले उनकी सेवाओं का पूरा फायदा नहीं लिया जा पाता है। सिर्फ दिखावे के लिए उनकी भर्ती नहीं की जानी चाहिए।

झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, रजिया सुल्तान, बेगम हजरत महल, जीनत महल, रानी चेन्नम्मा जैसे अनगिनत नाम हैं जो युद्धों में दुश्मनों के दांत खट्टे करने में इंच भर भी पुरुषों से पीछे नहीं रहीं। सुभाष चंद्र बोस की सेना में भी महिला ब्रिगेड ने कठिन जिम्मेदारियों को बखूबी पूरा किया था। विश्वयुद्ध रहे हों या हाल के इराक, अफगानिस्तान, फॉकलैंड युद्ध, मित्र देशों की जमीनी और हवाई सेनाओं की लड़ाकू टुकड़ियों में महिलाएं बहुतायत में रही हैं। हिटलर की बदनाम एसएस सेना ने महिला दुश्मनों के साथ जरा भी ढील नहीं बरती और उन्होंने भी पुरुषों के बराबर ही मार खाई।
महिलाएं मानसिक काम ज्यादा स्थिरचित्त होकर कर पाती हैं, इसलिए आज के तकनीक प्रधान युद्ध में उनकी भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकती है। फिर भी हमारे देश की सीमाओं की दुर्गम स्थितियों के मुताबिक सख्त शारीरिक तैयारी की जरूरत को हल्के में नहीं लिया जा सकता। महिला सैनिकों को भर्ती के समय और बाद में एक कैडेट के तौर पर पुरुषों के समान ही शारीरिक और मानसिक क्षमता से जुड़ी कठिन ट्रेनिंग और परीक्षाओं से होकर गुजरना पड़ता है। नौकरी के दौरान भी ऐसे अभ्यास लगातार चलते रहते हैं। ऐसे में वे युद्धक जिम्मेदारियों के लिए पुरुषों के मुकाबले मिसफिट कैसे मानी जा सकती हैं?
मेजर जनरल मृणाल सुमन( सेवानिवृत्त) ने अपने एक पर्चे में साफ किया है कि दरअसल ज्यादा बड़ी समस्या पुरुषों की तरफ से इस माहौल के लिए आनाकानी है। शारीरिक दमखम वाले किसी काम में एक महिला के अधीनस्थ होना भी उन्हें पसंद नहीं आता। ऊंचे पदों पर पहुंचने के बाद भी महिला अधिकारियों को पुरुष सैनिकों की इसी मानसिकता का शिकार होना पड़ता है।
हालांकि मेजर जनरल मृणाल का कहना है कि भारत में महिला सैनिकों को अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है और उनके साथ जिम्मेदारी के बंटवारे में अब तक भेदभाव किया जा रहा है, इसलिए इस बारे में किसी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगा। पर मुद्दे की बात यही है कि बिना पूरी तरह परीक्षा किए सिर्फ भावनाओं के आधार पर महिलाओं से यह मौका छीनना अनुचित है।
8 comments:
बहुत अच्छा आलेख है। सही बात है ऐसे मुद्दों पर केवल भावनाओं से नहीं बल्कि सोच समझ कर फैसला लेना चाहिये। इस बात का भी ध्यान रहना चाहिये कि जो इन की ट्रेनिन्ग पर खरच आता है वो आखिर गरीब लोगों की जेब कट कर ही होता है घर की तरह उसे भी फिज़ूल नहीं जाना चाहिये। केवल भावना पर कि हम औरतें हैं इसे इस दृश्टी से नहीं दे3खा जाना चाहिये घर मे भी तो हम किफायत से चलते हैं तो घर चलता है। बस बाकी तो औरतें किसी काम मे मर्द से कम नहीं हैं । धन्यवाद इस आलेख के लिये।
अच्छा लेख । पढवाने के लिए आभार !
"भर्ती के कुछ साल बाद शादी करके वे मां बनना चाहें तो इससे वे कम से कम 10 महीने के लिए काम से दूर हो जाती हैं।"
इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती -और हाँ यह भी सही नहीं है की महिलाए समर्थ नहीं हैं -जब वे अन्तरिक्ष में छलांग लगा चुकी हैं तो ये राकेट जेट क्या हैं ?
मगर पूरे सेवा काल में उनका प्रसव काल ,बाल्य देखभाल काल भी सम्मिलित है -
मैंने अभी कई विद्यालयों का निरीक्षण किया -कई शिक्षिकाएं गैर हाजिर थीं बताया गया की उन्हें अब एक वर्ष बाल्य देखभाल अवकाश भी मिलता है जो बच्चों के १८ वर्ष होने तक वे कई कालावधियों में या एक साथ ले सकती हैं लिहाजा वे प्रायः छुट्टी पर रहती हैं -यह अवकाश मातृत्व अवकाश के अलावा है .
सभी महिला विद्यालयों की महिला प्रधानाचार्यों ने कहा की उनके समय यह नियम नहीं था और अब इसका केवल दुरूपयोग हो रहा है .
अच्छा आलेख। वैसे तो सेना ही एक आवशक बुराई है जो मनुष्यजाति के पूरी तरह सभ्य होने पर प्रश्नचिन्ह लगाती है। लेकिन अगर यह बुराई आवश्यक है तो जैसे पुरुष सेना में हो सकते है वैसे ही महिलायें भी। बाकी खर्च और नौकरी छोड़ देने जैसी बातें सिर्फ कुतर्क हैं। वरना आई आई टी और आई आई एम में भी लोगों की पदाई पर सरकारी खजाने का लाखों रुपया खर्च होता है पढ़ने वाले जा बैठते है अमेरिका यूरोप में। रही बात छुट्टियों की तो जब बिना काम के पांच साल तक की स्टडी लीव (मुझे नहीं पता कि इससे कभी नियोक्ता का कुछ भला हुआ है) मिल सकती है तो मातृत्व अवकाश की क्या बात है। शारीरिक तैयारियों में बिना कोई ढील दीये आप उनके लिए भर्ती का द्वार खोलें बाकी राह वे स्वयं बना लेंगी। महिलाओं का सेनामें भर्ती का विरोध सैन्य अधिकारी और अन्य मात्र महिलाओं को कमतर आंकने की मानसिकता के चलते कर रहे हैं।
स्त्रियाँ सेना में ज़रूर आएं पर कड़े स्टेनडर्डस और मानकों को कहीं भी ढीला न किया जाए. कमांडो, फाइटर पायलट, इंजिनियर सभी में उन्हें मौका मिलना चाहिए, पर चयन, योग्यता, प्रशिक्षण, कौशल, मेडिकल और फिटनेस के मानदंडों पर किसी भी प्रकार का समझौता या उन्हें नीचे लाना भारी भूल होगी. बिना भेदभाव और आरक्षण के भर्ती के द्वार सभी के लिए खोल दिए जाने चाहिए, और कड़ाई से मेरिटोक्रेसी लागू की जानी चाहिए. यह नहीं की हम आरक्षण में पिस रहे देश और युवाओं पर एक और आरक्षण थोप दें. जो भी व्यक्ति (स्त्री, पुरुष, समलैंगिक या किन्नर -- बिना भेदभाव सभी) कड़े मानकों पर खरा उतर कर और दूसरों से ज्यादा अच्छा प्रदर्शन करके दिखा दे उसका और सिर्फ उसी का स्वागत है, 'If you Aspire,You've Got to Earn It ' का पाठ हम सभी को पढना होगा. केवल योग्यता, और कुछ भी नहीं.
एक बार महिला पायलटों के अन्य स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारियों के साथ प्रजनन चक्र सम्बन्धी रिकॉर्ड रखे जाने पर विवाद हुआ था. तर्क था की महिलाओं से उनके प्रजनन चक्र की जानकारी लेना उनका अपमान है. ऐसा विवाद गलत है, डॉक्टरों के स्वस्थ्य और फिटनेस की जानकारी मांगने पर अपमान शर्म-हया पर रोना उचित नहीं है. हर सैन्य कर्मी मेडिकल रिकॉर्ड ज़रूर रखा जाना चाहिए, पर प्राइवेसी के लिए सेना को सुनिश्चित करना होगा की महिला सैन्य कर्मियों का रिकॉर्ड महिला डॉक्टरों के पास ही रहे. ऐसा होने पर किसी को आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए.
sundr lekh....
badhai...
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