स्त्री-मुक्ति का यथार्थ और यूटोपिया:भाग-3
- राजीव रंजन गिरि
स्त्री होने भर से सबकी समस्याएं और हित एक नहीं हो जाते, मुक्तिकामी यूटोपिया की दरकार सबके लिए है:स्त्री-मुक्ति का यथार्थ और यूटोपिया:भाग-2
स्वप्न भी एक यथार्थ है:स्त्री-मुक्ति का यथार्थ और यूटोपिया:भाग-1
आरोप है कि स्त्रीवाद और स्त्री-मुक्ति जैसी धारणाओं की देशी जड़ें नहीं हैं और इसका यहाँ के अतीत, सभ्यता और संस्कृति से लेना-देना नहीं है। यहाँ की आम औरतों का भी इस ‘मुक्ति’ से
कोई सरोकार नहीं है। इसे मान भी लें तो क्या अगर कोई विचारधारा अपने मुल्क में नहीं जन्मी तो उसे नहीं अपनाना चाहिए? लोकतंत्र सरीखी धरणाओं का जन्म जिन मुल्कों में नहीं हुआ, उन्हें इन धरणाओं को त्याग देना चाहिए? ये और ऐसे कई सवाल उठा रहा है राजीव के लेख का तीसरा और आखिरी हिस्सा।
जब भी स्त्री-मुक्ति की चर्चा होती है, पितृसत्तात्मक व्यवस्था के
अलमबरदार इसे खतरे के तौर पर प्रचारित करते हैं। ऐसे लोग यह फैलाते हैं
कि मुक्ति की आवाज उठाने वाली ये औरतें पुरुषों से नफरत करने वाली,
परिवार तोड़ने वाली, ब्रा जलाने वाली, परकटी समुदाय की हैं। इनकी कोई देशी
जमीन नहीं है। अव्वल तो यह है कि स्त्री-मुक्ति का सपना देखने वाली या इस
दिशा में चिंतन-मन्थन करने वाली औरतों की कोई एक धारा नहीं है न ही
स्त्री-मुक्ति सम्बन्धी कोई एक अवधारणा। हर बड़े मकसद की तरह इसमें भी
तरह-तरह की वैचारिक सरणियों में यकीन रखने वाले लोग सक्रिय हैं। किसी भी
अस्मितावादी, मुक्तिकामी समूह का अपने ऊपर अत्याचार करने वाले लोगों के
प्रति नफरत पैदा कर अपनी अस्मिता की तरफ ध्यान खींचने और इस ‘अन्य’ के
बरअक्स ‘अपने’ लोगों को एकजुट करना आसान होता है।
नोट करने की बात है कि अगर यह नफरत की प्रवृत्ति बढ़ती गई तो कोई भी मुक्तिकामी परियोजना सफल होने के बजाय एक-दूसरी वर्चस्वकारी शक्ति में तब्दील हो जाएगी। फिर यह एक लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाने की बजाय, इन मूल्यों के लिए खुद भी चुनौती बन जाएगी। इसलिए किसी भी मुक्तिकारी समूह के यूटोपिया में उसके ‘अन्य’ के
लिए क्या भाव-स्थान है, इसके जरिए उस यूटोपिया की जाँच बिल्कुल जरूरी
होती है। यह अच्छी बात है कि स्त्री-समूहों में अपने ‘अन्य’ (पुरुष) के
लिए नफरत का भाव नहीं है। इनकी स्पष्ट समझ है कि हमारा संघर्ष पितृसत्ता
के विविध आयामों से है, न कि पुरुष-व्यक्ति-सत्ता से। स्त्री-मुक्ति के
यूटोपिया में पुरुषों के लिए भी बराबर अधिकार और जगह होगी। अलबत्ता ये
औरतें नफरत पफैलाने वाली नहीं हैं बल्कि समाज में बराबरी, प्रेम और
सौहार्द को स्थापित करना चाहती हैं। हाँ, अगर परिवार का ढाँचा अपने को
बदलकर लोकतांत्रिक नहीं बनाता, पितृसत्ता से चिपका रहना चाहता है, तो
इसका बना रहना क्यों जरूरी है ?
पितृसत्ता पर आधरित मौजूदा ‘परिवार’ में लोकतांत्रिक बनने की प्रक्रिया के दौरान दरार आएगी और एक बेहतर परिवार की
रचना होगी। इस नए बने ‘परिवार’ (या इसका कुछ नया नाम पड़ जाए) में
स्त्री-पुरुष समानता होगी। दोनों को बराबर हक होगा। क्या यह कहने की
जरूरत है कि ऐसा होना सिर्फ स्त्री के लिए नहीं बल्कि पुरुषों के हित के
लिए भी आवश्यक है। जिस ‘ब्रा- बर्निंग’ की चर्चा बार-बार होती हैं, उसे
भी समझने की जरूरत है। असल में, मुक्तिकामी स्त्रियों ने ब्रा को
‘जेण्डर’ के साथ जोड़कर देखा था। अमेरिका में सम्पन्न एक विश्व सुंदरी
प्रतियोगिता के दौरान स्त्रीवादियों ने एक कूड़ेदान में अपना-अपना ब्रा
उतारकर फेंक दिया। इन लोगों ने स्त्रियों से यह अपील भी की ब्रा गुलामी
का प्रतीक है अतः इसे फेंक दें। इन स्त्रियों का मानना था कि स्तन बच्चे
के दूध पीने के लिए है, न कि पुरुष के उपभोग की खातिर। पुरुष-सत्ता ने
इसे भोग की वस्तु बनाकर खास ‘आकार’ में रखने के मकसद से ब्रा का ईजाद
किया है। आशय यह कि स्त्री ‘सेक्स’ के इस अंग को ‘ब्रा’ ने ‘जेण्डर’ में
तब्दील कर दिया है। लिहाजा, गुलामी के इस निशानी को फेंककर जला देना
आवश्यक है।
आज का स्त्रीवाद इस समझ से काफी आगे बढ़ चुका है। दूसरा, ‘ब्रा-बर्निंग’ के मुद्दे पर इतनी हाय-तौबा की दरकार भी नहीं है। यह भी ऐसी ही घटना है जैसा कि गर्भपात के अधिकार के लिए हो रहे आंदोलन के दौरान सीमोन सहित फ्रांस की अनेक स्त्रीवादी महिलाओं ने अपना दस्तख्त कर सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि उन्होंने
अपने जीवन में गर्भपात कराया है। गर्भपात कराना उनका हक है और यह अधिकार
कानूनी तौर पर उन्हें मिलना चाहिए। कानूनी हक मिलने के साथ समाज में
गर्भपात को लेकर मौजूद ‘टैबू’ भी इससे दूर हुआ। अतः इतिहास की इन घटनाओं
को उसके संदर्भ में ही देखने से, इन्हें ठीक से समझा जा सकता है। बहरहाल
ऐसी अपेक्षा तो स्त्री-पुरुष समता में भरोसा रखने वालों से की जा सकती
है, पितृसत्ता के अलमबरदारों से नहीं।
स्त्रीवाद और स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया के समर्थकों पर आरोप लगाया जाता है कि इनकी देशी जड़ें नहीं हैं। ऐसा कहकर इस विचार को फैलाने की पुरजोर कोशिश होती है कि ये विदेशी धरणाएँ हैं और इसका यहाँ के अतीत, सभ्यता और
संस्कृति से लेना-देना नहीं है। यहाँ की आम औरतों का भी इस ‘मुक्ति’ से
कोई सरोकार नहीं है। अव्वल तो यह कि कोई भी विचारधारा, वैचारिक सरणी अपने
मुल्क में नहीं जन्मी तो क्या इसे नहीं अपनाना चाहिए ? क्या लोकतंत्र,
आधुनिकता सरीखी धरणाओं का जन्म जिन मुल्कों में नहीं हुआ, उन्हें इन
धरणाओं को त्याग देना चाहिए ? ऐसी कूपमंडूकता के खरतनाक मंसूबों को हमेशा
याद रखना होगा।
दूसरी बात यह कि स्त्री-मुक्ति की देशी जड़ें यहाँ मौजूद रही हैं। स्त्रीवादी बुद्धिधर्मियों ने इसकी गहरी पड़ताल कर हमारी इस
महत्त्वपूर्ण विरासत का विवेचन-विश्लेषण किया है। जबसे पितृसत्ता का अंकुश कायम हुआ है, इसके प्रतिरोध में स्त्री-आवाजें भी आई हैं। क्या इन आवाजों में मुक्ति-कामना नहीं झलकती ? अपनी पीड़ा का अहसास कराती इन
आवाजों में मुक्ति की गहरी लालसा का म(मिराग भी लबरेज़ है। गार्गी, थेरी
गाथा की स्त्रियाँ, आंडाल, अक्का महादेवी, मीराबाई, सहजोबाई से लेकर
रमाबाई, ताराबाई शिंदे, महादेवी वर्मा सरीखी अनेक स्त्रियों की आवाज़ में
अपनी पीड़ा और पितृसत्ता की मुखालफत शामिल है। पितृसत्ता ने कई स्तरों पर
काम किया है। इनकी आवाज को दबाने से लेकर इनके विचारों को नष्ट करने तक
पितृसत्ता की प्रत्यक्ष हिंसा तो दिखती है, पर चुप कराने वाली परोक्ष
हिंसा जल्द दिख नहीं पाती। आलम यह रहा है कि निकट अतीत में सीमंतनी उपदेश
की महान रचनाकार ‘एक अज्ञात हिंदू औरत’ ही बनी रही। आज तक उस साहसी
स्त्री का नाम पता नहीं चल पाया है। क्या यह उस परोक्ष हिंसा का एक बुरा
नतीजा नहीं है?
ऐसा नहीं है कि पितृसत्ता की मुखालफत करने वाली ये स्त्रियाँ सिर्फ भारत या यूरोप में हुई हैं। जिस तरह हर मुल्क में
पितृसत्ता थी, उसी तरह इसकी विरोधी भी थीं। मसलन, काफी पहले न जाकर निकट अतीत, उन्नीसवीं सदी में गौर करें तो चीन में जिउ जिन, श्रीलंका में सुगला तथा गजमन नोना, इण्डोनेशिया में कार्तिनी, ईरान में कुर्रत उल ऐन
सहित अनेक महिलाएँ हर मुल्क में मिल जाएंगी। यह अलग बात है कि पितृसत्ता
का विरोध करने के साथ-साथ, मौजूदा दौर के हिसाब से देखने पर, इनकी सीमाएं
भी सामने आती हैं। अपनी इस विरासत को न तो नकार कर और न ही बढ़-चढ़कर तारीफ
करके इसे समझा जा सकता है। विरासत के सर्जनात्मक विकास के लिए
खूबियों-सीमाओं को ध्यान में रखते हुए इसके साथ जिरह जरूरी होता है और
कारगर भी।
अपने देश में स्वाधीनता आंदोलन ने स्त्रियों को घर की दहलीज से बाहर
निकाला। इसी दौरान बड़ी तादाद में स्त्रियों ने सामाजिक-राजनीतिक कार्य
में हिस्सा लिया। राजनीतिक प्रश्न के तौर पर स्त्रियों का सवाल इसी दौर
में उभरा। स्त्रियों का घर की चारदीवारी से बाहर आकर सामाजिक-राजनीतिक
कामों में हिस्सा लेना, सभा-संगोष्ठी में जाना अपने आप में स्त्री-मुक्ति
की दिशा में बढ़ी हुई घटना थी। इसके लिए स्वाधीनता-आंदोलन की अगुवाई करने
वाले नेताओं को इसका श्रेय देना चाहिए। पर यह भी याद रखना चाहिए कि दलित
मजदूरों और किसानों के सवाल की तरह स्त्रियों का प्रश्न भी उनके लिए
स्वाधीनता-आंदोलन का ही मसला था, अलग से स्त्री-मुक्ति का सवाल नहीं।
उस दौर के राष्ट्रवादी नेताओं ने स्त्रियों के मसले को अपने नजरिये
से स्वाधीनता आंदोलन की जरूरत के नजरिये से उठाया। स्त्रियों को घर से
बाहर लाकर आंदोलन से जोड़ना उनकी ऐतिहासिक जरूरत थी। यही वजह है कि १९१७
में सरोजनी नायडू की अगुवाई में स्त्रियों के एक प्रतिनिधिमंडल को
मांटेस्क्यू से मिलकर कांग्रेस, मुस्लिम लीग और काउंसिल के उन्नीस
गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा उठाए गए स्वराज्य की मांग को अपना समर्थन देते
हुए स्त्रियों के सवाल को अलग से उठाना पड़ा। स्वाधीनता आंदोलन के अगुआ
खुद ‘जेण्डर’ की धरणा से ग्रसित थे। उन्हें लगता था कि स्वाधीनता आंदोलन
में जो काम पुरुष कर सकते हैं, स्त्रियां नहीं कर सकतीं। इसे समझने के
लिए महात्मा गांधी द्वारा आहूत नमक सत्याग्रह को याद किया जा सकता है।
गांधी जी स्वाधीननता आंदोलन में स्त्रियों को भाग लेने के लिए प्रेरित
करते थे परंतु नमक सत्याग्रह के लिए हुए दांडी मार्च में हिस्सा लेने से
रोक रहे थे। इन्हें लगता था कि इतना दूर चलने से स्त्रियां थक जाएंगी।
गांधी जी की इस मनाही का सरोजनी नायडू सहित कुछ स्त्रियों ने विरोध किया
और दांडी-मार्च में शामिल होने हेतु जिद की। इनकी जिद के सामने झुककर
गांधी जी ने बाद में अपनी हामी भरी। दांडी-मार्च और इसकी परिणति नमक
सत्याग्रह में शामिल स्त्रियों ने गांधी जी की पूर्व मान्यता को गलत
साबित करते हुए पुरुषों की तुलना में ज्यादा काम किया।
इस तरह की कई घटनाएँ बताती हैं कि स्वाधीनता-आंदोलन के नेताओं की मानसिक बनावट में
‘जेण्डर’ की पितृसत्तात्मक मान्यताओं का कितना असर था। इसी के साथ कुछ
ऐसी बातें भी हैं जिनमें भारत की स्त्रियों को, अपने हक के लिए यूरोप की
महिलाओं की तुलना में काफी कम संघर्ष करना पड़ा। यूरोपीय महिलाओं को अपने
राजनीतिक हक, ‘वोट देने का अधिकार’ पाने के लिए लंबी जद्दोजहद करनी पड़ी
थी।
१९२८ ई में हुए मुंबई (तब बम्बई) कांग्रेस में सरोजिनी नायडू ने
काउंसिलों के चुनाव में स्त्रियों के मताध्किार का प्रस्ताव रखा। इस
प्रस्ताव का मदन मोहन मालवीय ने मुखर विरोध किया था। हालांकि मालवीय के
विरोध के बावजूद यह प्रस्ताव पास हो गया। आशय यह है कि स्त्रियों के पक्ष
में, भले ही कुछ कदम आगे बढ़कर साथ देने के लिए, स्वाधीनता-आंदोलन में
शामिल शिक्षित मध्य वर्ग सामने आता था।
भारत में स्त्रीवाद और स्त्री-मुक्ति के हिमायतियों ने सिर्फ स्त्रियों
का सवाल उठाकर, उसके लिए जोखिम भरा संघर्ष नहीं किया है। बोधगया मुक्ति
आंदोलन, चिपको आंदोलन और आंध्र प्रदेश में शराब के खिलाफ हुए आंदोलन
जिसकी वजह से सरकार गिर गई थी, स्त्रियों द्वारा किए गए आंदोलन हैं
जिसमें अपनी-अपनी तरह की स्त्रीवादी महिलाएं शामिल रही हैं। इन सारे
संघर्षों में स्त्रियों को काफी सफलता भी मिली है। इस लिहाज से गौर
फरमाएं तो भारत के स्त्री-मुक्ति आंदोलन की यह निजी खासियत है और इसके
विस्तार तथा व्याप्ति का सूचक भी।
स्त्री-मुक्ति का एक यूटोपिया एक सदी पहले रुकैया सखावत हुसैन ने अपनी
कहानी सुल्ताना का सपना में रचा था। इसके हिसाब से पुरुष घरों में सारा
काम कर रहे हैं और औरतें बाहर के सारे काम को कर रही हैं। इस यूटोपिया को
लागू करने की प्रक्रिया नफरत पर आधरित तो नहीं थी, परंतु इसमें सारा क्रम
सिर्फ उल्ट दिया गया था। मौजूदा स्त्री-मुक्ति-विमर्श इस समझ से काफी आगे
बढ़ चुका है। अब क्रम को सिर्फ उल्टा नहीं जाता बल्कि सहभागिता,
स्वतंत्रता और समता को सुनिश्चित किया जाता है।
नोट करने लायक बात यह है कि यथार्थ और यूटोपिया एक-दूसरे से बिल्कुल
अलहदा नहीं होते। दोनों के बीच द्वन्द्वात्मक रिश्ता होता है। यथार्थ के
घात-संघात और समझ से यूटोपिया आकार ग्रहण करता है तो यूटोपिया हमें
यथार्थ को जाँचने-समझने की समझ भी देता है, जिससे उस यथार्थ की जटिल
संरचना में निहित वर्चस्वकारी रूप को जानकर उसे दूर करने की दिशा में
बढ़ते हैं। स्त्री-मुक्ति का यूटोपिया यथार्थ के विभिन्न आयामों को समझे
बगैर नहीं रचा जा सकता। व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं के साथ पितृसत्ता ने
अन्योन्याश्रित सम्बन्ध बना रखा है। इसलिए इन सारे पहलुओं को ध्यान में
रखकर ही स्त्री-मुक्ति के यूटोपिया का खाका निर्मित हो सकता है।
पितृसत्ता के इस मकड़जाल को देखते हुए ऐसा लगता है कि बगैर पूरी व्यवस्था
बदले पूर्णतः स्त्री-मुक्ति संभव नहीं। एक न एक दिन स्त्री-मुक्ति का
यूटोपिया यथार्थ जरूर बनेगा। मुक्ति का स्वप्न इसे हकीकत तक जरूर
पहुँचायेगा। कवि वेणु गोपाल की कविता का सहारा लेकर कहें तो …
न हो कुछ भी
सिर्फ सपना हो
तो भी हो सकती है शुरुआत
और यह एक शुरुआत ही तो है
कि वहाँ एक सपना है।
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ऐसे ही काका हाथरसी ने भी जो क्रान्ति की कल्पना अपनी हास्य कविता मे की थी उसकी वानगी कुछ ऐसी थी -
श्रीमतीजी काम करेगी नई दिल्ली के दफ़्तर मे
बैठे बैठे उनके दूल्हा चूल्हा फ़ूकेन्गे घर मे
कोट पेन्ट पहनेगी बीबी बाबू बान्धेन्गे साडी
बैल खीचते तेह अब तक अब बैलो को खीचे गाडी
हजारों साल से जमी हुई व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए जो आन्दोलन होंगें उनमें 'रेडिकलिज्म' और अतिरेक होना स्वाभाविक है। हमें स्पिरिट देखनी चाहिए न कि नकारने योग्य बातें।
समय तेजी से करवट बदल रहा है। अब नारी को विधेयात्मक समता के प्लेटफॉर्म पर आने से कोई रोक नहीं सकता।
बहुत ही अर्थपूर्ण विवेचन रहा इस सीरीज में .गिरिजेश राव जी से सहमत और व्यक्तिगत तौर पर उस सामाजिक क्रांति का अभिलाषी भी , जिसकी दस्तकें सुनी जा सकती हैं .
गिरिजेश जी ने नटशेल में बख़ूबी कह दिया है।
इस संदर्भ में आज जनसत्ता में प्रकाशित अंजलि का पत्र भी पढ़ा जाना चाहिये।
पर प्लीज सेटिंग सही कर दीजिये। एलाईनमेंट बहुत गड़बड़ हो गया है इस बार।
स्त्री को मनुष्य न मानकर ... जैसे एक अलग ही प्रजाति का दर्जा दिया जाता है ..यह गलत है . बहुत ही विचारोत्तेजक सुंदर आलेख
बहुत बहुत बधाई राजीव जी ...........स्त्री की लड़ाई के आप अनूठे सहचर हैं और आपकी सशक्त कलम इस पर अभी और भी समाज की आँख खोलने का काम करेगी इसका मुझे पूरा विश्वास है .
समय तेजी से करवट बदल रहा है। अब नारी को विधेयात्मक समता के प्लेटफॉर्म पर आने से कोई रोक नहीं सकता।
its really astonishing how people can change there views from blog post to blog post
same person is writing just the opposite of this here
http://mishraarvind.blogspot.com/2009/12/blog-post_30.html
its this hypocracy that harms the society the most when we dont stand with the truth but with our friends
good i read this post though late
बहुत कुछ पढ़ना है, सोचना है, करना है। वैसे अब इस नदी के वेग को बाँधना असंभव है।
घुघूती बासूती
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