अपने कुछ ऑब्ज़र्वेशन्स पर आधारित एक लेख लिखा जो जनसत्ता में पब्लिश हुआ 'दुनिया मेरे आगे' कॉलम में। बदलती दुनिया, बदलते समाज की एक झलक हमारे आसपास किस रूप में बिखर रही है...Aapse sajha karne ka man kia
पूजा प्रसाद
अब के समय में जीने के साधन बढ़े हैं, पर जीने की जगह घटी है। रोजगार के अवसरों का जितना बड़ा बाजार सामने सजा है, उसे पाने की चुनौतियां भी उतनी ही बड़ी हुई हैं। ऐसा नहीं कि ये चुनौतियां या ये संघर्ष पहले नहीं थे। पहले भी थे पर अब के तीखेपन के साथ नहीं। पहले गलाकाट स्पर्धा के उदाहरण इक्के-दुक्के मिलते थे, पर अब तो यह अभ्यास की चीज बनती गई है। कहने का मतलब यह कि अच्छे और बुरे दोनों अर्थ में स्थितियां बदली हैं।
निजी क्षेत्र के रोजगार में स्त्रियों के शोषण की बात नई नहीं है। नई बात यह है कि अब के दौर में 'शोषण' को कुछ स्त्रियों ने हथियार बना लिया है। उन्हें पता है कि दफ्तर में अपनी जगह बनाने के लिए किन लटके-झटकों की जरूरत होती है। या फिर पॉवरफुल होने के लिए कैसे अपने 'शोषण' के रास्ते की सीढ़ियां चढ़नी हैं। मैं इस बात की हिमायती कतई नहीं हूं कि 'शोषण' को सीढ़ी बना लिया जाए। या यह भी स्वीकार नहीं सकती कि शोषण के डर से हम घर में दुबके रह जाएं। हमें इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा में शामिल होना होगा बगैर दूसरों का गला काटे और खुद का गला बचाते हुए। हमें सीखना होगा कि किसी हाल में कोई भी हाथ हमारे गले तक न पहुंचे, भले ही वह हाथ पिता का हो, पति का हो, भाई का हो, बहन का, दोस्त का, कूलिग का या फिर बॉस का। लतर वाले पौधे की तरह बढ़ने की बजाय हमें अपनी जड़ें मजबूत करनी होंगी, अपने तने को कठोर बनाना होगा अपनी शाखें फैलानी होंगी। आइए दो पेड़ों की कथा सुनाऊं।
एक परिचित आंटी हैं। उम्र है 58 साल। ठीक-ठाक नौकरी है। इस नौकरी की उम्र हो चुकी है 25 साल। दो बच्चे हैं। लड़की की शादी के झमेले से निबट चुकी हैं। लड़का कभी बीमार रहता है कभी परेशान - जुटी हैं इलाज करवाने में। आंटी के पति नौकरी नहीं करते। शराब और जुआ की चाकरी में वक्त कटता है। जब ये दोनों लत सिर चढ़कर बोलते हैं तो आंटी के चेहरे-शरीर पर निशान छोड़ जाते हैं। यह सिलसिला बरसों से चल रहा है। पिट कर आंटी का डॉक्टर के पास जाना, लंगड़ाते पांवों से या सूजे चेहरे के साथ ऑफिस जाने की बात लंबे अर्से से देखती-सुनती रही हूं। कई बार मामला पुलिस तक पहुंचा। उन्होंने सलाह दी, रिश्तेदारों ने भी समझाया, पर आंटी अपने पति-परमेश्वर को घर से निकालने को तैयार नहीं। कहती हैं - घर में एक मर्द का होना जरूरी है...निकाल दिया तो बाहर के भेड़िए नोंच खाएंगे।
घर के भेड़िए से तंग एक और लड़की को मैं जानती हूं। तकरीबन १० साल पहले हुई थी उसकी शादी। दो बच्चे झोली में आ चुके हैं। अभी उसकी उम्र ३२ के आसपास होगी। प्रफेशनल क्वालिफिकेशन से लैस है। पर कभी नौकरी नहीं की। पति बिजनसमैन हैं। घर की कमाई ठीक-ठाक है, पर दोनों के रिलेशन नहीं। शादी के दो साल तो ठीक गुजरे। बाद के बरसों में तनाव की लकीर मोटी होती गई। हालांकि, अपनी सोसायटी में दोनों ने परफेक्ट कपल का स्टेटस बरकरार रखा। पर अब उनका रिश्ता चरमराने लगा है। रिश्तेदार और घर के बड़े-बूढ़े समझाते हैं - किसी तरह चलाओ...बच्चों का भी सवाल है। पर लड़की डिटरमाइन है। कहती है, अब और नहीं। कुछ भी कर लूंगी, कैसे भी जी लूंगी, पर साथ रहना मुश्किल है। एक दफे मैंने आंटी का रटा-रटाया संवाद उसके सामने रखा - बाहर के भेड़िए नोंच खाएंगे। उसके जवाब ने मुझे सन्न कर दिया। उसने बड़े सपाट लहजे में कहा - दोनों तरफ भेड़िए हैं। दोनों को शरीर चाहिए। घर में शरीर सौंप कर भी सुख नहीं। सम्मान नहीं। बाहर के भेड़िए कभी-काल ही हमला करेंगे, मेरी मजबूरी का बेजा लाभ उठाएंगे... पर आत्मसम्मान के साथ जी तो सकूंगी। पैसे की तंगी तो रह सकती है क्योंकि मेरे साथ मेरे दो बच्चे भी होंगे, पर पैसे के लिए दूसरे का मुंह तो नहीं ताकूंगी। प्रफेशनल क्वॉलिफिकेशन है। पढ़ी-लिखी हूं। काम करने का साहस है। तो क्या बाहर के भेड़िए के हमले का जोखिम क्यों न उठाऊं? क्यों जरूरी है कि भेड़िया कामयाब ही हो जाए। जरूरत पड़ी तो अपने भीतर मैं भेड़िया उगाऊंगी...।
मैंने खूब गौर से देखा उसे। आंटी के चेहरे का संतोष यहां भी दिखा। पर दोनों के संतोष में फर्क था। आंटी का संतोष घर में मर्द के होने से दिखता है। उनके संतोष से मुझे चिढ़ है। जबकि इस लड़की का संतोष आत्मसम्मान के साथ जीने के लिए किए गए फैसले से बन रहा है। हर जोखिम से भिड़ने का साहस इस लड़की के संतोष एक नया रंग दे रहा है। इस नए रंग को मैं चूम लेना चाहती हूं, उसे सलाम करना चाहती हूं।
Friday, January 15, 2010
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8 comments:
दूसरे केस में महिला कानूनी सहायता क्यों नहीं लेती? आंटी की भावनात्मक मज़बूरी तो समझ में आती है. पर दूसरी महिला घरेलू हिंसा, तलाक और बच्चों के भरण पोषण के लिए पति पर मुकदमा क्यों नहीं दायर करती? फैमिली कोर्ट की स्थापना की ही ऐसे मामलों को सुलझाने लिए गई है.
बहुत सही चित्र उकेरा है. लेकिन उपायों में पूरा संघर्ष हो .कम से कम जो कानून मिला है. यहीं पर टिप्पणी में भी कहा गया है .
बहुत बढिया आलेख है. अगर अत्याचार है तो कानूनी मदद लेना भी सही विकल्प है लेकिन मेरा मानना है कि उस मदद पर अति निर्भरता से निर्णय करने से वेहतर है पहले वैकल्पिक जीवन आधार जैसे नौकरी या कोई काम उस पर टःओस कार्यवाही हो और फिर कानूनी मदद का मुह देखा जाये क्योकि सिर्फ़ कानूनी मदद से जीवन वेह्तर नही बनाया जा सकता.
इसी संदर्भ में , इसी तरह के सनाल उठाती कविता अर्चना की है--क्याकरेगी औरत। इसका लिंकयह रहा-- http://blog.chokherbali.in/2009/12/blog-post_15.html
lazawab... completely agreed !
Hats off for the second lady!
तुमने बहुत सही मुद्दा उठाया है पूजा. विवाह में भावनात्मक और शारीरिक हिंसा दोनों का ही विरोध होना चाहिए. दूसरी महिला को कानूनी से ज्यादा भावनात्मक और आर्थिक सहायता ही जरूरत पड़गी. क्या ऐसे लोग उसे उपलब्ध
हैं?
नीला
इस नए रंग में वसंत के सारे रंग हैं .....
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