अचानक से एक बच्चा
रखता है तीन पत्थर
और कहता है–
यह मेरा घर है।”
मैं नहीं चाहता मेरे
बच्चे भी कभी रखे
–तीन पत्थर
त्रैमासिक द्विभाषी पत्रिका प्रतिलिपि के दिसंबर 2009 अंक पर अचानक नजर पड़ी और सबसे ऊपर लिखी इन पंक्तियों को नजरअंदाज न कर सकी।
आप सब भी देखें, सराहें।
Friday, January 29, 2010
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15 comments:
good one !
कोई भी नहीं चाहेगा "उसके बच्चे भी रखें - तीन पत्थर , छोटी लेकिन बहुत गहरी बात - अति सुंदर - "देखत में छोटे लगें घाव करें गंभीर"
ऐसे भी पिता होते हैं जो चाहते हैं कि उनके बच्चे सर्जक न हों, सृजन न करें !!!
कविता शब्द ही खींच लाता है मुझे
sundar.....
प्रीतीश बारहठ की बात का मतलब नहीं समझ पाई लेकिन कविता ठीक समझ में आ गई। 'मेरा घर' बनाने में सृजन से ज्यादा अधिकार बोध की अभिव्यक्ति होती है, और यही आगे जाकर अपने अधिकार में और-और चीजें समेटने (जिसमें पत्नी आदि महिलाएं भी धीरे से शामिल कर ली जाती हैं) की प्रवृति दिखाता है। इससे तो अच्छा है कि बच्चा मेरा घर के भाव को कभी न सीखे
are weall not doing the same. spending all our energy in learning three of languages leaving little scope for original thinking in mathmatics and science.
Khubsurat Bhav !!
@अनुराधा जी !
यह आपका बडप्पन है जो ऐसा कह रही हैं वरना मेरी बात में कोई रहस्य नहीं है। आपने कविता अर्थ भी सुंदर लिया है। लेकिन क्षमा करें कविता की पंक्तियों से यह अर्थ नहीं निकल रहा है। बच्चे के घर में जो मेरा है वह ममत्व वाला है अधिकार वाला कतई नहीं, बच्चे जो घर बनाते हैं वे अधिकार जमाने के लिये नहीं बनाते। कवि की व्यंजना मेरा शब्द में नहीं पत्थर शब्द में हैं लेकिन उसके लिये जो बिम्ब बना रहा है वह उसके उद्देश्य से मेल नहीं खाता है। जैसा अर्थ देना चाहते हैं वैसा बिम्ब-विधान भी होना चाहिये बिल्कुल उलट नहींं।
कवि जो कहना चाहता है वह इस तरह होना चाहिये...
अचानक से एक बच्चा
जमा करता है कुछ पत्थर
और कहता है–
अबकी बार आने दो
मैं उसे मारूंगा
मैं नहीं चाहता मेरे
बच्चे भी जमा करें
– पत्थर
और आप जो अर्थ लेना चाहते हैं उसका शब्द विधान इस तरह होना चाहिये
अचानक से एक बच्चा
रखता है तीन पत्थर
और कहता है–
यह मेरा घर है
मैं किसी को इसमें घुसने नहीं दूंगा।”
मैं नहीं चाहता मेरे
बच्चे भी कभी रखे
–तीन पत्थर
और कहें यह घर मेरा है
सिर्फ़ मेरा
धन्यवाद प्रीतीश जी, कविता का एक और अर्थ सामने लाने के लिए। मैं शायद कविता ज्यादा नहीं समझती हूं, फिर भी, किन्हीं भावों को जब तक ठीक उन्हीं शब्दों में न कहा जाए (जैसा कि गद्य में होता है), उसके कई अर्थ निकाले जाना स्वाभाविक है। यही तो कविता की खूबी है। आपने दो तरह से इस कविता को फिर रचा है, और इनसे अलग तरह से मैंने इसको देखा है।
शुक्रिया अनुराधा जी !
आपने स्वयं ही कहा "उसके कई अर्थ निकाले जाना स्वाभाविक है। " फिर भी उस अर्थ के लिये हमें कविता से ही सहायता मिलनी चाहिये। इसलिये मुझे उसका वहीं अर्थ समझ आया जो मैंने पहले लिखा। कविता में बिम्ब का अर्थ परम्परागत भी होता है और बच्चों के बनाये घर सृजन के ही प्रतीक हैं। कविता को गद्य की तरह तो नहीं होना चाहिये मैं सहमत हूँ लेकिन उसमें वे न्यूनतम शब्द तो होने ही चाहिये जिनसे भावार्थ लिया जा सके।
आपका पुनः शुक्रिया
प्रीतीश जी ने वाकई नई सर्जना कर दी है , यह भी अत्यंत सुन्दर है। निस्सन्देह प्रशंसनीय!
लेकिन "घर" नाम की संस्था जिसे आप ममत्व से जोड़ रहे हैं दर अस्ल उतनी सुहानी संकल्पना है नही। वह जितनी कोमल दिखती है उतनी ही शोषक भी है,अत्याचारी है।आप इस बात से असहमत हो सकते हैं।मुझे कोई सन्देह नही कि "घर" भी "विवाह" या "धर्म" या "स्कूल" की तरह पवित्र दिखने वाली लेकिन क्रूर संरचनाएँ हैं।
@सुजाता जी!
मैं पुनः इतना ही निवेदन करूँगा कि बच्चों के घर एक कोमल भाव हैं न वे क्रूर हैं न अमानवीय। बच्चों के घर क्रूर घरों की नींव भी नहीं हैं। मेरी बात कविता में लिये गये बिम्ब से भाव की असंगतता को लेकर है न कि नकार।
अगर यह एक कोमल, ममत्व से भरा भाव है तो कवि यह क्यों कहते हैं कि -
मैं नहीं चाहता मेरे
बच्चे भी कभी रखे
–तीन पत्थर
मैं सुजाता की व्याख्या से सहमत हूं। वैसे भी प्रीतीश जी ने जो दो व्याख्याएं दी हैं उन दोनों में कुछ पंक्तियां जोड़ दी हैं। उनके बिना जो कविता है, उसमें इतने वैरिएशन की गुंजाइश नहीं दीखती, और न ही ऐसा करना कविता के साथ न्याय होगा।
@ अनुराधा जी !
खैर मेरी कोई हठधर्मिता नहीं यदि आपको काव्य बिम्म से सही भावार्थ प्राप्त हो रहा है तो, मैं तो साहित्यानुरागी तरह ही कविता को समझने का प्रयास करता हूँ उससे अपेक्षा भी वैसी ही करता हूँ।
अपनी यही रुचि और अनुराग मुझे कविता पर बात करने को उकसाते हैं।
यह तो कवि ही बतायेगा कि उसने किसी असंगत बिम्म के साथ अपनी कविता में विरुद्ध शब्दों का प्रयोग क्यूँ किया है। इधर बहुत से कवि हैं जिन्हें न तो अपनी साहित्य परंपराओं का कोई ज्ञान है न कविता में बरते जाने वाले शब्दों के चुनाव की सावधानी का। कविता छोछा भावावेश नहीं उसमें हृदय के साथ विवेक का संयोग भी आवश्यक है। आपको यदि बच्चों के घर क्रूर संरचनायें लगते हैं तो खुदा खैर करे !!! मैंने इस कविता से जो अर्थ ग्रहण किया उसमें नहीं समझ आने वाली क्या बात थी और में गलती कहाँ थी यह भी बतायें तो मुझे लाभ होगा। यदि बच्चे द्वारा मेरा घर कहने से ही साम्राज्यवादी विचार झलकता है तो वह फिर मेरा पैन, मेरी किताब, मेरी माँ, मेरा नाम से भी झलकता होगा?
very good.
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