2 फरवरी के नवभारत टाइम्स के संपादकीय पेज पर यह लेख है, यूसुफ किरमानी का जो मुसलमान महिलाओं के लिए वोटर पहचानपत्र में बिना बुर्के का, चेहरा दिखाने वाला फोटो लगाने के न्यालय के निर्देश को सही ठहराता है। साथ ही उभर कर ये बात सामने आती है कि मौलवियों द्वारा बनाए गए कट्टर नियमों पर आम मुसलमान की सहमति हो यह जरूरी नहीं है। इस मसले पर इतनी सहजता से लेकिन ठोस और सीधी बात शायद इससे बेहतर ढंग से नहीं कही जा सकती थी। लेख पूरा का पूरा यहां दे रही हूं।- यूसुफ किरमानी मुस्लिम महिलाओं का फोटो मतदाता सूची में हो या न हो, इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने स्थिति बिल्कुल स्पष्ट कर दी है। उसने कहा कि बुर्का पहनने वाली उन महिलाओं को मतदाता पहचान पत्र जारी नहीं किया जा सकता जिनका चेहरा फोटो में दिखाई नहीं देता हो। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से तमाम भारतीय मुस्लिम संगठनों, मौलवियों, विद्वानों ने सहमति जताई है, लेकिन इसके बावजूद कुछ लोगों ने शरीयत और कुरान को लेकर इस पर नए सिरे से बहस छेड़ दी है।
तकरीबन हर साल ही कोई न कोई ऐसा मुद्दा आता है जब शरीयत को लेकर बहस छिड़ जाती है और मुसलमानों का बड़ा तबका इससे खुद को असुविधाजनक स्थिति में पाता है। अभी मदुरै के जिन सज्जन की याचिका पर परदानशीं महिलाओं की फोटो को लेकर सुप्रीम कोर्ट को कड़ी टिप्पणी करनी पड़ी, उसकी नौबत जानबूझकर पैदा की गई। हालांकि इस तरह के मसलों पर तो कायदे से याचिका स्वीकार ही नहीं की जानी चाहिए थी।
आम मुसलमान की राय जानेंइन मुद्दों पर कभी यह जानने की कोशिश नहीं की जाती है कि इस बारे में आम मुस्लिम जनमानस क्या सोचता है। जुमे की नमाज में एकत्र नमाजियों की तादाद से गदगद मुस्लिम उलेमा या राजनीतिक दल जनमानस का मन नहीं पढ़ पाते। अगर अभी कोई सर्वे कराया जाए तो पता चल जाएगा कि मुसलमानों का एक बहुत बड़ा तबका सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सहमत है। असल में मुसलमानों के कुछ तबके और मुल्ला-मौलवी एक बहुत आसान सी बात नहीं समझ पा रहे हैं। वह यह है कि जिस तरह अन्य धर्मों और समुदायों में नई पीढ़ी अपने विचारों के साथ सामने आ खड़ी हुई है, ठीक वही प्रक्रिया भारतीय मुसलमानों में भी जारी है। मुसलमानों का यह वह तबका है जिसमें पढ़ाई-लिखाई का अनुपात बहुत ज्यादा है। इनमें थोड़े बहुत वे युवक भी शामिल हैं जिन्होंने भले ही दिल्ली-मुंबई की चकाचौंध नहीं देखी है और वे छपरा या फैजाबाद के गांवों में महज 12वीं क्लास तक पढ़े हुए हैं, पर उनमें भी आगे बढ़ने की ललक है। लेकिन हर बार शरीयत का मामला खड़ा किए जाने पर वे खुद को असुविधाजनक स्थिति में पाते हैं। चाहे वह दारुल उलूम देवबंद के मंच से राष्ट्रीय गीत का विरोध हो या फिर मुस्लिम महिलाओं की फोटो वाली मतदाता सूची का मामला हो, वे नहीं चाहते कि उनके कौम की रहनुमाई के नाम पर मुट्ठी भर लोग उनके प्रवक्ता भी बन जाएं।
हम लोगों में से तमाम लोग उत्तर भारत या फिर दक्षिण भारत की संस्कृति में पले-बढ़े हिंदू-मुसलमान हैं। दिनचर्या पर नजर डालने से पता चल सकता है कि इबादत के फर्क के अलावा उत्तर और दक्षिण के मुसलमान एक दूसरे से अलग जिंदगी नहीं जी रहे हैं। मिसाल के तौर पर यह देखें कि देश के मुसलमानों की कुल आबादी में एक फीसदी मुसलमान भी ऐसे नहीं हैं जिनके घर में फोटो वाली अलबम नहीं होगी या परिवार के किसी व्यक्ति का फोटो मौजूद न हो। इसी तरह आज किसी मुसलमान के घर में शादी हो, तो यह नहीं हो सकता कि वहां फोटोग्राफर मौजूद न हो या शादी की विडियोग्राफी नहीं हो रही हो। कौम के तथाकथित प्रवक्ता मुल्ला-मौलवियों के घरों की नई पीढ़ी भी इन सब चीजों से अलग नहीं है। मुझे मुसलमानों के किसी भी मतावलंबी (स्कूल ऑफ थॉट्स) में अभी तक ऐसा कोई मौलवी नहीं मिला, जिसके मत की अपनी वेबसाइट न हो और उस पर फोटो न हों।
प्रियंका आगे, शबनम पीछे क्यों बेंगलूर या फिर दिल्ली में ओखला के किसी भी बस स्टॉप पर सुबह-सुबह खड़े हो जाइए तो दिखेगा कि तमाम मुस्लिम लड़कियां बुर्के या चादर से अपना शरीर तो ढके रहती हैं पर उनके चेहरे पर किसी भी तरह का परदा नहीं होता। उनके कंधे पर लैपटॉप लटक रहा होता है। ये लड़कियां बुर्के या चादर के साथ कभी-कभी जींस में भी नजर आती हैं। पहनावे में आए इस बदलाव को आम मुस्लिम समाज स्वीकार कर चुका है। पर मौलवियों-मौलानाओं को शायद यह जवान पीढ़ी नहीं दिखती है, जो परदे का आदर कर शरीयत का सम्मान कर रही है पर अपने वजूद का भी अहसास करा रही है। मौलवियों की चले तो वे परदे के नाम पर मुस्लिम लड़कियों को न पढ़ने दें और न नौकरी करने दें। यह साजिश नहीं तो और क्या है कि शबनम और प्रियंका पढ़ें तो साथ-साथ, लेकिन परदे की वजह से शबनम 12वीं क्लास से आगे न बढ़ पाए और प्रियंका आगे निकल जाए? मक्का-मदीना की मस्जिदों के इमाम की बेटियां तो अमेरिका में पढ़ें, लेकिन आम भारतीय मुसलमान की बेटी को दिल्ली यूनिवर्सिटी या लखनऊ यूनिवसिर्टी की पढ़ाई भी नसीब न हो पाए?
परदा कितना, महिला खुद तय करे मुझे उत्तर प्रदेश से लेकर पंजाब, हरियाणा, यूपी, दिल्ली, आंध्र प्रदेश में ऐसी तमाम मतदाता सूचियां देखने को मिलीं, जिनमें मुस्लिम महिलाओं के बाकायदा फोटो लगे हुए थे। फोटो इस ढंग से खिंचवाए गए हैं कि उनमें सिर्फ चेहरा ही दिखाई दे रहा है। इस तरह के फोटो खींचे जाने पर न तो उन मुस्लिम महिलाओं ने हाय-तौबा मचाई और न ही उनके शौहरों ने कोई बवाल किया। हज पर जाने वाले मौलाना साहब जब अपनी बेगम साहिबा को ले जाना चाहते हैं तो वह यह जिद कतई नहीं करते कि पासपोर्ट पर उनकी बेगम साहिबा का फोटो न लगाया जाए।
कुरान में कहा गया है कि महिलाओं को अपने पूरे शरीर को इस तरह से ढकना चाहिए कि उनके शरीर का कोई अंग उनके परिवार के अलावा किसी और को न दिखे। बस उनका चेहरा दिखाई दे। महिलाओं को कुरान की यह सिर्फ एक सलाह है। यह उस महिला पर है कि वह खुद को किस तरह ढकना चाहती है।