पिता ने चाहा कि वह संसार के हर बंधन से ऊपर उठ सके। वह अपनी अंतरात्मा में अवस्थित हो। हवाएं उसका रूप गढ़ें और प्रकृति उसका मन। उस कविता में बेटी के लिए प्रेम, गरिमा, उदात्तता और स्वतंत्रता की सम्मोहक पुकार थी।
तू निर्बंध सारी धरती पर घूम सके
अपने दीवाने को तू चूम सके।
इसी सदी के पूर्वार्द्व में पहाड़ों की गोद में बैठा एक पिता कह रहा था अपनी बेटी से कि अपने दीवाने को तू चूम सके।
बेटी तब महज दो साल की थी।
मां ने सुनी कविता। आखिरी पंक्ति पर अटक गई। ये क्या दीवानों सी बातें करते हो तुम। मैं कभी अपनी बेटी को यह कविता पढ़ने नहीं दूंगी, मां ने बनावटी गुस्से में कहा।
उस रात जब सोई थी मां और दो साल की बच्ची उसके सीने से लिपटी, मां सोच रही थी। उस रात मां को पहली बार थोड़ा रश्क हुआ अपनी बेटी से। कैसा पिता मिला है इसे? मां ने अपने पिता से तुलना की अपनी बेटी के पिता की। भीतर कुछ टूटा। फिर मां ने धीरे से झुककर बेटी को चूम लिया और बोली,
तू निर्बंध सारी धरती पर घूम सके
अपने दीवाने को तू चूम सके।
(मेरे एक दोस्त ने अपनी बेटी के लिए एक लंबी कविता लिखी थी और उसी कविता की एक पंक्ति थी यह – अपने दीवाने को तू चूम सके।)
मनीषा पांडे
6 comments:
bahoot khoob sujata jee achhi kavita hai
भावुक कर देने वाली रचना।
सच!!! काश सारे पिता ऐसे ही हो जाते.
kash aisa ho pata kintu aisa ho kahaan pata hai.....betiyan apne apne sapne ab bhi apni aankhon men liye apne sasuraal chali jati hai.. unhe sasuraal bejh kar maa-baap shaayad jyada khush ho jaate hain... aur apni jimmevaari se bari bhi....!!
हर पुत्री को ऐसा पिता मिले ...कौन माँ रश्क नहीं करेगी
ho sake to puri kawita bhejne ki kripa kare.aapke dost ke kavita ki ye pankti bahoot hi krantikari hai.
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