नाक-मुँह सिकोड़े टी.वी. पर ‘राखी का स्वयंवर’ देखते हुए बहुतों का जी यह सोचकर हलकान हुआ जाता था कि एक उद्दण्ड लड़की अपने सेलिब्रिटी होने के घमंड मे गंगा किनारे के छोरे को स्वयम्वर से बाहर का रास्ता दिखाती है और “बहू नही नौकरानी चाहिए” जैसी हमारे समाज की मानसिकता की ऐसी खिल्ली उड़ा रही है! प्रेमचन्द की भाषा मे कहें तो वह ऐसी तितली है जिसके प्रति पुरुष मे आकर्षण और वासना तो जाग सकती है श्रद्धा नही पनप सकती। पुरुष के मन मे ऐसी स्त्री के लिए ही प्रेम उमड़ता है जो श्रद्धेय हो,त्याग और सेवा की मूरत हो।इससे कम कुछ नही चलेगा।इस मायने मे यह देखना बहुत रोमांचक है कि ‘गोदान’ के मालती और मेहता जैसे चरित्र जब गढे जा रहे थे उस समय से लेकर अब तक मेहता का यह कथन आज भी बहुत अटपटा नही दिखाई देता कि “..शिक्षित बहने...गृहिणी का आदर्श त्यागकर तितलियों का रंग पकड़ रही हैं ”
यह मेरी घृष्टता ही होगी कि आज के परिप्रेक्ष्य मे प्रेमचन्द के साहित्य मे स्त्री की स्थिति की पड़ताल करूँ।बहुत सम्भव है कि उनकी सर्वाधिक यथार्थ और क्रांतिकारी रचना ‘गोदान’भी पितृसत्तात्मक पूर्वग्रहों के प्रमाण प्रस्तुत करे।जबकि यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हाशिए की अस्मिताओं का पहला सजीव , यथार्थ , मर्मस्पर्स्शी चित्रण हिन्दी कथा-साहित्य के विकास-क्रम मे पहले पहल प्रेमचन्द मे ही मिलता है।स्त्री को समाज का आधा हिस्सा और पुरुष की पूरक मानकर उसकी समस्याओं पर अपने दौर मे सबसे प्रभावी लेखन उन्होने किया।रीतिकाल से निकले और अय्यारी मे जा अटके हिन्दी सहित्य मे यह एक क्रांतिकारी कदम था कि पूरे उपन्यास की केन्द्रीय पात्र स्त्री हो।‘सेवासदन’ और ‘निर्मला’ जैसे उपन्यास उन्ही की कलम से निकले।
देवियों और तितलियों के बीच हाड़-माँस की मानुषी की जो तिलमिलाहट ‘धनिया’ मे है वह प्रेमचन्द मे अन्यत्र कहीं देखने को नही मिलती।लेकिन मालती के चरित्र को मेहता के प्रेम और श्रद्धा का पात्र बनाने के लिए एक टोटल रिफॉर्म से गुज़रना होता है।मेहता को वह स्त्री चाहिए जिसे ‘मार भी डालें तो प्रतिहिंसा का भाव उसमे न जागे’। वही पुरुष को स्त्री मे काम्य है। पतिव्रता गोविन्दी की ओर खन्ना का लौटना और श्रद्धा से भर जाना भी देवी स्वरूप की प्रतिष्ठा के लिए ही है। पीड़क से भला है पीड़ित होना –यह समझने वाली गोविन्दी और अन्याय के प्रति खुल कर बोलती हुई धनिया।क्या इसे एक मानववादी और पुरुषवादी के अंतर्विरोध की तरह देखा जाना चाहिए? सम्भव है कि मर्दवादी व्यवस्था मे अनुकूलित मस्तिष्क इस नज़रिए से सोच भी न पाता हो ।दर असल आदर्श की चाहत और मानवीय सद्प्रवृत्तियों मे विश्वास प्रेमचन्द के हर पात्र व कथा मे दिखाई देता है चाहे वे पुरुष हों या स्त्रियाँ।‘गोदान’का अंत बेशक किसी गान्धीवादी आदर्श को न पेश करता हो लेकिन स्त्री के लिए वहाँ भी आदर्श यही रहता है कि वह सेवा और तप से कामी,अन्यायी पुरुष को भी अपने अनुकूल कर ले।सद प्रवृत्तियों के ऐसे पर्दे मे व्यवस्था की खामियाँ छिप जाती हैं ।प्रसव वेदना मे मरने वाली , जीते जी दो पुरुषों का दोज़ख भरने वाली बुधिया के देवत्व को स्वीकार कर अंत मे सम्वेदना घीसू,माधव पर आकर ही टिकती है।
आज लगभग सत्तर साल बाद परिदृश्य बदला है। स्त्री की उपस्थिति बदल गयी है, स्थिति चाहे वहीं हो जहाँ तब थी।आज स्त्री कामकाजी है,शिक्षित हो रही है,उच्च पदों पर आसीन हो रही है,सामाजिक उत्तरदायित्व के साथ साथ पारिवारिक व अन्य मोर्चों पर भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।साहित्य,राजनीति,व्यवसाय,तकनीक सभी मे उसका दखल है और वह अपना स्पेस गढ भी रही है, प्राप्त भी कर रही है।वह न केवल पूर्वग्रहो को चुनौती दे रही है वरन अपने ‘बनने’ की प्रक्रिया को भी समझ रही है।सुबह से रात तक घर-बाहर के कई टंटो से निबटती हुई,रिपोर्टिंग करती हुई,पढती-पढाती-लिखती हुई,सड़को ,संसदों मे सक्रिय, बोलती हुई यह स्त्री तितली नही है।देवी भी नही है।यह तितलियों और देवियों की परिभाषाओं से परे अपना अस्तित्व खोजती,स्वतंत्र अस्मिता के लिए बेचैन मानवी भर है।वह ‘सूरजमुखी अन्धेरे के’ की रत्ती, ‘मुझे चाँद चाहिये’ कि सिलबिल ‘छिन्नमस्ता’ की प्रिया है।फिर भी एक औसत मध्यवर्गीय पुरुष के भीतर कहीं यह कसक है कि स्त्रियाँ आज तितलियाँ हो गयीं है।बेज़बानी और कुर्बानी को जिस अनिवार्य मूल्य की तरह स्त्री के साथ नत्थी कर दिया गया उसकी अपेक्षा अभी मिटी नही है।तो क्या इसलिए हमारा समय उन्हे क्षमा करता है ? शायद !
इंटरनेट क्रांति और ग्लोबल होने के युग मे जब अभिव्यक्ति के आड़े आने वाली अड़चने लगभग न्यून हैं ,ब्लॉग जैसे आभासी स्पेस मे भी यह पढने को मिल जाता है कि ‘पत्नी को पाब्लो नेरुदा पढते देख डर लगता है;किसी दिन दफ्तर से लौटें और पत्नी के हाथ मे चाय के कप की बजाए किताब मिले तो यह लगेगा कि इससे तो दफ्तर ही लौट जाएँ, वहाँ कम से कम चपरासी चाय के साथ समोसे भी खिला देगा।‘ लेकिन हाँ , यह अवश्य है कि आज ऐसा कहकर आप विरोध का सामना किए बिना नही रहेंगे! प्रेमचन्द भी नही रह पाते !
9 comments:
आखिर कब बदलेगी यह मर्दवादी सोच ? स्त्री के साथ नत्थी इन मूल्यों से निजात कब मिलेगी ? धनिया का किरदार कितने प्रतिशत पुरुषों को भाता है यह भी देखना होगा .
(पिछले वर्ष यह लेख एक अखबार के लिए लिखा था जो आज यहाँ छापना सार्थक लगा - सुजाता )
Yeh padhna aur bhi achchha lagaa. Yeh bhi ek mukti ki shuruaat hai.
पुरुषों के दिमाग में जो कूड़ा-कचरा सदियों से भरा हुआ है, वह इतनी जल्दी थोड़े ही साफ़ हो जाएगा....
हाँ...स्वीकार्यता बड़ी है....और बढ़ेगी....
बेज़बानी और कुर्बानी को जिस अनिवार्य मूल्य की तरह स्त्री के साथ नत्थी कर दिया गया उसकी अपेक्षा अभी मिटी नही है।
बिलकुल सही विश्लेषण है...पता नहीं कितनी धीमी रफ़्तार से पुरुषों की यह मानसिकता बदलेगी...अभी एक सदी और लगेगी..शायद..
आज भी अगर सुबह का अखबार पत्नी पहले उठा ले तो पति की भवें जरूर संकुचित हो जाती है.एक बार मुझे ट्रेन में विक्रम सेठ की "गोल्डेन गेट"पढ़ते देख. एक मल्टीनेशनल में काम करने वाले युवक ने कहा था, ;आजतक किसी हाउसवाइफ को ऐसी किताब पढ़ते नहीं देखा' कहने को मैंने कह दिया..'आप शायद ज्यादा हाउसवाइफ से मिले नहीं'. पर सोचने लगी ये एक और पुरुषों की संकुचित मानसिकता का उदाहरण. वह भी नयी पीढ़ी से.
सुजाता जी,
प्रेमचंद जी के काल और आज के सन्दर्भ में जो भी बदला है वह सिर्फ और सिर्फ अपने प्रयासों से ही बदला है. ऐसा नहीं है, प्रेमचंद वाली मानसिकता आज भी जीवित है और रहेगी. ये नारी की शक्ति और उसका समन्वय ही है कि वह घर , ऑफिस और सामाजिक दायरों के मध्य संतुलन बनाये हुए है , सिर्फ संतुलन ही नहीं बल्कि उनको कुशलतापुर्वक निर्वाह भी कर रही है. जैसे की रश्मि ने कहा की हाउस वाइफ को ऐसे पढ़ते हुए नहीं देखा. वैसे ही मेरे पास एक एम. टेक. का छात्र आता था कुछ अपने काम में हेल्प के लिए. एक दिन वह बोला - 'मैडम आपकी उम्र की किसी भी महिला को कंप्यूटर में इतनी तेजी से हाथ चलाते हुए मैंने नहीं देखा है."
मैं उससे क्या कहती की ये हाथ सिर्फ कंप्यूटर पर ही नहीं बल्कि संयुक्त परिवार की छोटी बहू के हाथ घर में किचेन में भी इतनी ही तेजी से चलते हैं , नहीं तो ऑफिस समय से नहीं आ सकती. अपने आप को सिद्ध करने के लिए बहुत सी अग्नि परीक्षा देकर नारी यहाँ तक पहुंची है और उसको ये समाज स्वीकार कर रहा है. ये उसके हिम्मत और कर्त्तव्यपरायणता की मिशाल है.
स्त्री-पुरुष संबंधों के समीकरण बदल रहे है। दोनों की रूढ़ छवियाँ भंग हो रही हैं। नई बन रही हैं। कुछ चीजें तो सकारात्मक हो ही रही हैं। जिस तरह कुछ ऐसी चीजें इंटरनेट पर भी दिख जाती हैं जो हजार साल पुरानी सोच की याद दिलाती हैं। तो कुछ ऐसी भी चीजें दिख जाती हैं जिनकी हजार क्या पचास साल पहले किसी ने कल्पना भी न की होगी।
सुजाता जी आपका लेख पढ़कर मन फूल सा हल्का हों गया .आज स्त्री तितली जैसी दिखाई देती है उतनी ही सुदर और मदमस्त ,लेकिन वह तितली नहीं है वह देवी भी नहीं है वह एक सामान्य मनुष्य है और उतना ही त्याग कर सकती है जितना कि एक सामान्य पुरुष .उस खांचे से खुद को बाहर निकालने क़ी उसकी जद्दोजहद उसको चौराहे पर भी खड़ा करती है लेकिन अब वह यह समझाने में सफल है कि अब इस तितली के पंखों से खेलना बंद करो .बहुत सुंदर .बधाई .
बेज़बानी और कुर्बानी को जिस अनिवार्य मूल्य की तरह स्त्री के साथ नत्थी कर दिया गया उसकी अपेक्षा अभी मिटी नही है।
Awesome... !
:)
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