Monday, April 26, 2010

रंगमंच पर स्त्री छवि

महिला रंगकर्मियों की रंगमंच पर एक सार्थक उपस्थिति रही है। खास कर स्वातंत्र्योत्तर आधुनिक रंगमंच पर, वरन अपने आरंभिक युग में पुरुष ही महिलाओं की भूमिका निभाते रहे। फ़िर समाज में हाशिये पे रहने वाली जाति बेडिन की महिलओं ने और बदनाम ईलाके की महिलाओं ने में रंगमंच पर पदार्पण किया, धीरे धीरे भद्र महिलाएं भी इस क्षेत्र में आ गयी।
अभी हाल ही में दिल्ली में महिला केन्द्रित दक्षिण एशिययाइ नाट्य समारोह का आयोजन किया गया। इस नाट्योत्सव की थीम थी स्त्री और नाम था लीला। महि्ला केन्द्रित नाट्यआलेख, महिला निर्देशक और महिला अभिनेत्रियों के काम का प्रदर्शन किया गया। भारत के अलावा, बांग्लादेश, पकिस्तान, मालदीव, अफ़गानिस्तान, नेपाल, श्रीलंका इत्यादि दक्षिण एशियाई देशों ने शिरकत की। उदघाटन अमाल अल्लाना द्वारा निर्देशित नाटकनटी विनोदनी से हुआ। यह प्रस्तुति पिछले कुछ वर्षों मे कफ़ी चर्चा बटोर चुकी है। यह अभिनेत्री बिनोदिनी के आत्मकथा अमरकथा पर आधारित है, यह एक महिला के सार्वजनिक जीवन में उतरने और स्वतंत्रता और पहचान को प्राप्त करने का साहसिक प्रयास है। जन्म से वेश्या बिनोदिनी, कोलकात्ता के रंगमंच पर अभिनय करने वाली पहली महिला थी, जिसने सफ़लता की उंचाइयां भी पायी। मंच पर जीवन के समानांतर उसके जीवन के अनुभव कैसे उसके अभिनय में सहायक बने, समाज के उच्च वर्णों द्वारा कैसे उसका शोषण किया गया, यह नाटक इसी की कहानी कहता है। नाटक में वृद्ध बिनोदिनी को सब कुछ याद करते हुए दिखाया गया है, यह स्मृतियां एकाग्र रूप में ना आकर के टुकडो टुकडों में आती है। बिनोदिनी के विभिन्न अवस्थाओं को अलग अलग पात्रों ने जीया है। इससे उसके अंतर्द्वंद्वं को उभारने में सहायता मिली है। मंच सज्जा में सफ़ेद विंग्स और प्लेटफ़ार्म का इस्तेमाल किया गया है। यह विंग्स चलायमान थे और इन पर प्रोजेक्टर के सहारे, महल, स्टेज, घर और बाग का इच्छित दृश्यबंध बना लिया जाता था। निसार अल्लाना की इस मंच सज्जा के साथ साथ नाट्क की वेश-भुषा भी काफ़ी आकर्षक थी। सभी अभिनेत्रियों ने अपनी भूमिकाएं अच्छी तरह से निभाई थी।
सकुबाई, नादिरा जहीर बब्बर द्वारा निर्देशित एकजुट की प्रस्तुति थी। इस एकल अभिनय में सरिता जोशी ने कमाल कर दिया था। पूरे डेढ घंटे दर्शक उनके अभिनय को मंत्रमुग्ध हो देखते रहे। इस नाटक में मुम्बई की चाल में रहने वाली सकुबाइ फ़्लैट और अपार्टमेंट में रहने वाले समुदाय, जिनके यहां वह काम करती है, के जीवन के अंतर्विरोधों को उजागर करती है। यह विपन्न स्त्री की निगाह है जिसका अपना घर बारिश में भीग रहा है और वह दूसरे का घर ठीक कर रही है। वह अमीर बच्चे के पीछे पीछे दु्ध लेकर भागती है और उसके बच्चे एक ब्रेड के लिये टूट पडते हैं। उसे सबसे आश्चर्य होता है कि आजकल पढे लिखे और अनपढ भी घर घर घुमते है। उसका अपना जीवन कई कडवी स्मृतियों से भरा है पर वह जीवन का रस लेना जान गयी है। एक उच्च मध्यवरगीय घर के अंदरूनी हिस्से की तरह दृश्यबंध को यथार्थवादी रूप दिया गया था। उसी के भीतर गति करते हुए सकुबाई के रूप में सरिता जोशी ने दो स्तरों के बीच की खाई को उजागर किया था। यह प्रस्तुति निस्संदेह सरिता जोशी के लिये याद रह जायेगी।
पाकिस्तान की सीमा किरमानी चरचित निर्देशिका है, अरिस्तोफ़ेनिस के नाट्क लिस्स्ट्राटा का रुपांतरण जंग अब नहीं होगी के नाम से ले कर आयी थी। इस नाटक में दो कबीले खुबैनी और फ़ुलमांछी की औरतें जो जंग से आजीज आ चुकी है, निर्णय लेती है कि वे अपने पति से दूर रहेंगी और कबीले के खजाने पर कब्जा कर लेती है। इस घटना से सभी मर्द नाराज होते हैं पर सभी औरतें एकत्र होकर उनका सामना करती हैं और उन्हे घुटने टेकने पर मजबूर करती हैं। दोनों कबीलों मे समझौता होता है कि अब जंग नहीं होगी। औरते अपने दानिश मंदी से जंग को हमेशा के लिये टाल देती हैं। एक सादे रंगमंच पर देह गतियों और गीत संगीत के जरि्ये यह प्रस्तुति अपना आकार लेती है। प्रकाश और ध्वनि प्रभाव भी इस नाटक के प्रभाव को उभारते है खासकर प्रकाश परिकल्प्ना काफ़ी कल्पनाशील है। प्रस्तुति के दौरान नाटक धीरे धीरे समसामयिक हो जाता है दोनों कबिले भारत और पाकिस्तान का रूप ले लेतें हैं। इनका अतीत एक है, आजादी की लडाई उन्होंने साथ लडी है, पर अब एक दूसरे से लड रहें हैं। औरतों को इस जंग में सबसे अधिक नुकसान उठाना पड रहा है इसलिये औरते कदम बढाती हैं और जंग को रोकने की पहल करती हैं।
सावित्री देवी भारतीय रंगमंच पर समकालीन श्रेष्ठ अभिनेत्रियों में से एक है। कन्हाईलाल की प्रस्तुति द्रोपदी में उनकी अभिनय क्षमता का रूप देखने को मिलता है। सैनिक दमन और अत्याचार के विरोध में सक्रिय द्रोपदी के पति को उसी के एक साथी के कारण सैनिक मार देते हैं। संघर्ष का बीडा उठाये द्रोपदी पकडी जाती है और उसका बलात्कार होता है। मंच पर दर्शकों और सैनिको के समने वे निर्वस्त्र होती है तो प्रतीत होता है कि हम खुद नंगे हो गयें हैं। कन्हाईलाल के प्रदर्शन की खासीयत इसमें मौजुद हैं। सादे रंगमंच और अभिनेता की देह गाति के द्वारा ही दृश्यबंध का निर्माण शैली बद्ध अभिनय और प्रकाश का उपयोग। यह नाटक पूरे पूर्वोत्तर में चल रहे सैनिक दमन के विरोध की प्रेरणा प्रदान करता है। सैनिकों के बधन में फ़ंसी सावित्री की कसमसाहट और चेहरे का तनाव सब कुछ उल्लेखनीय है। सावित्री अभिनय के दौरान अपनी एक एक मांशपेशियों से काम लेती हैं। सारा दमन और प्रतिरोध हम एक साथ उनके चेहरे पर देखते हैं।
अपने द्वारा देखी गयी इन प्रस्तुतियों की कुछ बातें उजागर कर दूं;
इन सारी प्रस्तुतियों में हाशिये की स्त्री और उनकी आंखों से समाज के चरित्र का चित्रण किया गया है।
औरतें अब चूप रहने वाली नहीं हैं वो मर्दों के बिना रहना जान गयी हैं, वक्त आने पर वह ने्तृत्व भी कर सकती है,और मर्दों से मुकाबला भी।
लगातार दमित होने के अभिशाप से उबरने के लिये अब नारियों को ही आगे आना होगा और अपने दमन का सक्रिय प्रतिरोध करना होगा।
और सबसे महत्त्वपूर्ण की जिस सभ्यता को मर्दों ने लहुलुहान कर दिया है उसकों बचाने और सुधारने की जिम्मेदारी महिलाओं को ही उठानी होगी।
यही इस लीला का सार है।

Saturday, April 24, 2010

ये रचती इतिहास सखी !

                                  
                          गर ये जीवन बन जाए जंग ,
                          तो उठा चलो तलवार सखी,
                          नामर्दों की सेना से भिड़ कर
                           बस कर दो नर संहार सखी.
                           दिखला दो अपनी ताकत को
                           अब नहीं किसी पर भार सखी.
                           काँधे पर डालो तरकश तुम
                           लक्ष्य से  कर दो पार सखी. 


                ये पंक्तियाँ एक ऐसी नारी के लिए निकली हैं, जिसने इस समाज में लीक से हट कर इतिहास रचा है. आज तक कुशल महिलाओं ने जो इतिहास रचा और वे अखबारों में छा गयीं. ये बहुत ख़ुशी का विषय रहा किन्तु अकुशल श्रम जो सिर्फ दूसरों के घर में घरेलु काम करके आजीविका कमा रही हैं. इस काम से इतर और वह भी ऐसा काम जो स्त्री जाति के द्वारा न किया गया हो, एक महिला पुरुषों की बराबरी से चल पड़ी हो तो उसके साहस और आत्मविश्वास को हजार बार स्वीकार करना पड़ेगा. 
                                              
                                         प्रस्तुत चित्र और आलेख दैनिक जागरण के साभार है और इस इतिहास को रचने वाली है बुंदेलखंड के हमीरपुर जिले के बदनपुर गाँव कि रहने वाली फूलमती. शायद लक्ष्मीबाई से प्रेरित ये महिला निकल पड़ी है अपनी जंग अकेले लड़ने के लिए. गाँव की  नारी पढ़ी लिखी तो नहीं है कि कहीं नौकरी कर ले और गाँव के वातावरण में उसे वहाँ कोई और नौकरी मिलने से रही. अकर्मण्य और नशेबाज या व्यसनी पति का होना ऐसी कई महिलायों का प्रारब्ध बन चुका है और फिर परिवार का पालन कौन करे? तब ही वह सिर से पल्ला हटा कर कमर में कसती है और चल पड़ती है अपनी लड़ाई खुद लड़ने के लिए. अपनी ताकत का अहसास होता है उसे, और उस के अनुरूप ही वह परिवार के लिए समर्पित होती है. 
ये महिला भी हमीरपुर से बदरपुर के बीच रिक्शा चला कर सवारियां ढोती  है और अपने परिवार का पालन करती है. 
ऐसी नारी शक्ति को प्रेरणा बनाना होगा कि गर हम ठान  लें तो कुछ भी कर सकती हैं.
इस जगह सुभद्रा कुमारी चौहान की पंक्तियाँ का उल्लेख भी प्रासंगिक होगा:
वीर पुरुष यदि भीरु हो तो दे ऐसा वरदान सखी
अबलायें उठ पड़ें देश में करे युद्ध घमासान सखी,
पंद्रह  कोटि असहयोगिनियाँ दहला दें ब्रह्मांड सखी,
भारत लक्ष्मी लौटने को रच दें लंका काण्ड सखी.

Tuesday, April 20, 2010

वर्ना रोज़ कोई न कोई श्रीधरम अफसोस करेगा......

"माँ कहती है कि भगवान की लीला देखो । अपने गाँव के दुखी मियाँ की चौदह साल की बेटी सबीना की दो-ढाई वर्ष पहले शादी हुई थी ।वह गर्भवती हुई और प्रसव के दौरान ही चल बसी ।दो महीने के भीतर ही दुखी मियाँ ने अपने दामाद का गम दूर करने के लिए अपनी दूसरी बेटी रुबिना का निकाह उससे कर दिया ।जैसे प्रसव के दौरान सबीना मरी थी वैसे ही रुबिना भी अपने नवजात बच्चे सहित अल्लाह को प्यारी हो गयी।मैने माँ से पूछा कि दुखी ने डॉक्टर को क्यों नही दिखाया । माँ बोली - "कितने डॉक़्टर हैं तुम्हारे गाँव-जवार में?अगर डॉक़्टर होते तो मै ज़िन्दगी भर अस्पताल-अस्पताल भटकती ही रहती ।" कई ऑपरेशन झेल चुकी माँ अब शायद ओपरेशन नही कराना चाहती थी तभी डॉक्टर चिल्लाई - 'पता नही है तुमको कि कैंसर है ? सर्जरी नही करवाओगी तो कैसे झेलोगी इस बीमारी को ।।अभी तो खून रिस रहा है धीरे धीरे कीड़े पड़ जाएंगे ।बदबू फैलेगी।"
......
यह लेख लिखते हुए(अंतिम अरण्य में , जनसत्ता, 19 अप्रैल 2010) श्रीधरम बताते हैं कि एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में प्रति सात मिनट में एक औरत गर्भाशय के मुँह के कैंसर से मरती है। अब इस बीमारी का टीका उपलब्ध है। काश मेरी माँ और नानी यह टीका लगवा चुकी होतीं क्योकि नानी भी इसी बीमारी से मरी थी।

यह सच है कि सर्विकल कैसर (cervical cancer) अक्सर चुपचाप आता है और स्त्रियों के लिए मौत का कारण बनता है।कम उम्र के विवाह , कम उम्र मे गर्भधारण,बार-बार गर्भधारण (अक्सर बेटे की चाह में) के साथ साथ् और भी कई अन्य वजहों से।HPV वायरस जो बहुत आम है इस रोग का कारण बनता है और कभी भी किसी स्त्री को हो सकता है। लेकिन जो स्थिति चिंता मे डालती है वह यह कि स्त्री-स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही गाँवों मे अत्यधिक है। उस पर से स्वास्थ्य सुविधाएँ न के बराबर । अन्यथा श्रीधरम की माँ को यह कहने की आवश्यकता न पड़ती कि अगर डॉक़्टर होते तो मै ज़िन्दगी भर अस्पताल-अस्पताल भटकती ही रहती ।ग्रामीण समाज -परिवारों की शक्ति -संरचना मे स्त्री का स्थान सम्मानित मनुष्य का नही है ।जबकि वह न केवल परिवार के सभी काम करती है , बच्चे जनती और पालती है वरन खेतों मे भी अपनी सामर्थ्य -भर परिश्रम करती है।अपनी छोटी छोटी बीमारियों को छिपाती है , सहती चुप रहती और करती चली जाती है क्यों ? इसी लेख के अनुसार - "कोई माँ कैसे अपने बच्चों का पेट काटकर अपना इलाज करवा सकती है?"
शहरों में जागरूकता है । लेकिन क्या यहाँ भी पूरी तरह से स्त्रियाँ खुद के स्वास्थ्य और उनके परिवार वाले अपने 'कुलदीपकों' की माँओं के स्वास्थ्य के प्रति सचेत हैं ? नही ! क्या वे जानते हैं कि सर्विकल कैसर कितना आम है और क्या वे यह भी जानते हैं कि इस बीमारी को रोका जा सकता है और इस बीमारी का टीका अब बाज़ार मे उपलब्ध है ? जहाँ गरीबी , अशिक्षा , जहालत नही है क्या वहाँ भी पति , पिता , भाई अपनी बहनों , माताओं , पत्नियों के स्वास्थ्य के लिए सचेत हैं ? और पढी-लिखी , समझदार स्त्रियाँ भी खुद क्या इसकी जानकारी हासिल कर लाभ लेना चाहती हैं ? यदि नही , तो रोज़ कोई न कोई श्रीधरम अफसोस करेगा कि काश ! वह टीका मेरी माँ , नानी या पत्नी भी लगवा पाती !

Saturday, April 17, 2010

स्त्री का कोई धर्म नही होता !

प्रिय फिरदौस ,

आपके साहसी लेखन की मै मुरीद हो चली हूँ । पिछले दिनों ब्लॉग पर हो रहे धर्म-शादी -लव जिहाद के बवाल पर नज़र पड़ी । सच यह है कि "स्त्री का कोई धर्म नही होता ,हर धर्म ने उसके लिए सिर्फ और सिर्फ बेड़ियाँ ही बनाई हैं " । धर्म , ताकत और सत्ता यह एक ही पलड़े में साथ साथ झूलते हैं , पींगे बढाते हैं ।धर्म उसी को ताकत बख्शता है जिसके पास सामर्थ्य है। यह कहना कतई गलत नही होगा कि कोई भी धर्म स्त्री को समर्थ ,सबल, समान मनुष्य नही मानता ।इसलिएमेरे तईं यह बात सिरे से बेकार है कि कौन सा धर्म स्त्री के पक्ष मे है !! क्योंकि दर अस्ल कोई धर्म ऐसा है ही नही ।
मै इस बात को नकारती हूँ कि धर्म किसी ईश्वर या उसके प्रतिनिधि ने बनाया है । मै नकारती हूँ कि ईश्वर भी कोई है! पुरानी दलील ही सही पर सच है कि ईश्वर पुल्लिंग है , धर्म ग्रंथों के रचयिता भी पुरुष ही थे , उपदेश देने वाले पैगम्बर या महापुरुष ही थे। मुझे यह कहने मे कतई संकोच नही कि धर्म ऐसी संरचना है जिसे पुरुषों ने अपने हितों की रक्षा और सुविधाओं के लिए बनाया । इसलिए किसी धर्म मे स्त्री के प्रति समानता -सम्वेदनशीलता कहीं दिखाई नही देती।
यदि आस्था का ही सवाल हो तो मुझे निस्संकोच अपने जीवन मे सही पथ पर चलने के लिए धर्म से ज़्यादा लोकतांत्रिक मूल्यों मे आस्था है । धर्म आधारित किसी नैतिकता से अधिक मानवता और मानवाधिकारों में आस्था है ! कोई धर्म मानवीय नही है यदि वह समाज को बराबरी न देकर एक पद सोपानगत संरचना मे बदलता है और किसी खास वर्ग के लिए विशेषाधिकार सुनिश्चित करता है।
त्योहार , रीतियाँ -रिवाज़ , परम्पराएँ , व्रत -उपवास ,हिजाब या सिन्दूर ,मंगलसूत्र या चार शादियाँ .....अनेक उदाहरण हैं जो साबित करते हैं पुरुष के ईश्वर ने स्त्री को पुरुष की सुविधा और मन बहलाव के लिए बनाया और स्त्री का ईश्वर खुद पुरुष बन बैठा !
स्त्री न ज़मीन के लिए लड़ती है , न धर्म के नाम पर ! यह धर्म और सत्ता की लड़ाई पुरुष की है , जीत भी उसकी ही है । स्त्री या अन्य दमितों के लिए सिर्फ उपेक्षा है !
इसलिए मै "राज्य" और कानून की तरफ आस से देखती हूँ । हालांकि वे भी मर्दवादी सोच से बाहर नही निकल पाए हैं , लेकिन उम्मीद की ही बात हो तो शायद धर्म के मुकाबले उन पर अधिक विश्वास किया जा सकता है ।
धर्म से टकराए बिना स्त्री का भला होने वाला नही है , यह सबसे कड़ी लड़ाई है स्त्री के लिए । इसलिए प्रिय फिरदौस ,आत्मालोचन की इस प्रक्रिया में मेरी ओर से तुम्हें बहुत शुभकामनाएँ !

Saturday, April 10, 2010

सानिया और शोएब की शादी में कमजोर कड़ी कौन?

सानिया मिर्जा के शोएब से शादी के मामले में ताजा खुलासा यह है कि शोएब ने मान लिया है कि उसकी शादी पहले आएशा से हुई थी, जो हैदराबाद की निवासी है। दूसरे दिन ऐसी भी चर्चा थी कि आएशा को चुप कराने के लिए शोएब ने 15 करोड़ का की डील की। खैर!

आएशा को, खुद को शोएब की बेगम साबित करने के लिए सुहागरात का जोड़ा सबूत के तौर पर पेश करना पड़ा जिसमें शोएब का वीर्य लगा था। यह शर्मनाक है कि एक जिम्मेदार पाकिस्तानी नागरिक, सम्मानित खिलाड़ी और जल्द ही सानिया जैसी हिंदुस्तान की सफल, चोटी की टेनिस खिलाड़ी का दूल्हा बनने जा रहे शोएब में इतनी हिम्मत या साफगोई नहीं कि वह कह सके कि हां, उसकी शादी हो चुकी है। उसे ऐसा करने में कोई दिक्कत भी नहीं थी, क्योंकि तलाक लेना उसके लिए चुटकी बजाने जैसा ही था- और आखिरकार यही उसने किया भी- फिर भी उसने सानिया से शादी के लिए सच्चाई छुपा कर खुद को गैर-शादीशुदा बताया।

शुरू-शुरू में ज्यादातर मीडिया ने यही कहा कि किसी सेलीब्रिटी की शादी की खबर आते ही उसके कई चाहने वाले खुद को उसका वैवाहिक जोड़ीदार बताने लगते हैं। यहां तक कि कुछ लोग पागलपन की हद तक ऐसा करते हैं। आएशा सिद्दीकी के दावे को भी ऐसा ही झूठा और भावनाओं में बह कर किया गया दावा बताया गया। पर अब यह साबित हो गया है कि शोएब ने सारी दुनिया को धोखा दिया। वह फरेबी, अविश्वसनीय, स्वार्थी, झूठा साबित हुआ।

शोएब के कन्फेशन के बाद मीडिया के लिए किस्सा खत्म हो चला है। पर मेरे सवालों की शुरुआत यहां से होती है। इस पूरे किस्से में सानिया सबसे कमजोर चरित्र बनकर उभरी है। क्या उसे शोएब के पहले विवाह का पता था, क्या शोएब ने उसे सब बता दिया था और उसके बावजूद वह लगातार उसके साथ खड़ी रही? और अगर पहले नहीं पता था तो फिर आएशा के दावे के बाद उसके कान खड़े नहीं हुए? क्या उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका पति पहले से शादीशुदा है- क्या इसलिए कि वह मुसलमान है और हिंदुस्तान में मुसलमान मर्द को एक से ज्यादा शादियां करने की छूट है और उसने भी अपने को इस परिस्थिति में देखने के लिए तैयार कर लिया है? फिर शोएब के कन्फेशन, झूठा साबित होने से भी उसे फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वह शोएब से प्यार करती है?

अगर सानिया शोएब को ऐसे ही टूट कर चाहती थी तो पिछले साल जुलाई में अपने बचपन के मित्र, पांच साल से दोस्त उद्योगपति सोहराब मिर्जा से धूमधाम से सगाई क्यों की और फिर उसे जनवरी आते-आते तोड़ भी दिया? हां, खबरें बताती हैं कि सानिया और शोएब का इश्क पिछले छह महीने से चल रहा है। इसके पहले महेश भूपति, फिल्म स्टार शाहिद के साथ भी सानिया का नाम जोड़ा गया।

लगता है सानिया को सिर्फ लाइम-लाइट में रहने का शौक या चस्का है, जिसके वशीभूत वह यह सब सनसनीखेज करती चली जा रही है। अल्लाह उसे सही-गलत का फैसला करने की बुद्धि दे। आमीन!

Wednesday, April 7, 2010

निगाहें मिलाने को जी नहीं चाहता

पिछले दिनों उत्तराखंड के एक सुदूर गांव में बने पर्यटन स्थल पर एक जर्मन छात्रा से मुलाकात हुई। वह हिंदुस्तान के बारे में पढ़ाई कर रही है और इंटर्नशिप के लिए हर साल तीन-चार महीने के लिए यहां आती है। यहां आना उसके पाठ्यक्रम का जरूरी हिस्सा है।

उससे बातचीत के दौरान गोवा में किशोरी स्कारलेट के साथ बलात्कार और उसकी हत्या की घटना पर भी चर्चा हुई। बातचीत खूब देर तक चली। उस दौरान यहां और जर्मनी में स्त्री-पुरुष समानता से लेकर उनके आपसी व्यवहार और उसकी सांस्कृतिक व्याख्या तक के विषयों पर बात हुई। बातचीत के दौरान उसने बताया कि वह इस देश में कोशिश करती है कि सूरज ढलने के बाद बाहर न रहे। रात आठ या ज्यादा से ज्यादा नौ बजे तक बाहर रहती है, उसके बाद नहीं। जबकि जर्मनी में दिन-रात कभी भी घर से निकले, कोई दिक्कत नहीं होती।

उसने यह भी बताया कि उसने दुपट्टा ओढ़ना सीख लिया है।

एक और चीज सीखी है उसने- लोगों से, खास तौर पर पुरुषों से नजरें बिना मिलाए बात करना। हालांकि उसके देश में नजरें मिलाकर बात करना ही सहज है और नजरें चुराना किसी कमी की ओर इशारा करता है। पर उसने हिंदुस्तान में जाना है कि ‘नजरें मिलाकर बात करने का और ही मतलब होता है।’

उसके इस अवलोकन और ज्ञान से मैं दंग रह गई।

Tuesday, April 6, 2010

मानववाद का ही एक अंग है नारीवाद

राजकिशोर

मानववाद का ठीक-ठीक अर्थ क्या है, मैं नहीं जानता। इसे लेकर मानववाद की धाराओं के बीच भी मतभेद है। इसलिए मानववाद को इस रूप में परिभाषित करना उपयोगी और निरापद, दोनों जान पड़ता है कि मनुष्यता ने जो कुछ भी श्रेष्ठ अर्जित किया है, वही मानववाद है। इससे बहुत तरह के झंझट खत्म हो जाएंगे। कोई पूछ सकता है कि क्या इस्लाम भी मानववाद है और मार्क्सवाद भी ? मैं कहूंगा, हां। इस्लाम या ईसाइयत या बुद्ध मार्ग तब का मानववाद था और मार्क्सवाद आज का मानववाद है। यह नहीं कि दोनों में फर्क नहीं है। फर्क है और बहुत बुनियादी फर्क है। लेकिन यह फर्क देश और काल का है। बुद्ध मार्ग ने तब तक के मानववाद में संशोधन किया और अपना बहुत कुछ जोड़ कर उसे एक नया रूप दिया। लेकिन कालांतर में यह मत भी असंतोषजनक हो गया, क्योंकि बुद्ध के बाद उनके मार्ग पर चलनेवालों ने अपने समय के अनुसार तथा ज्ञान के नए रूप आ जाने के बाद भी अपने मत में संशोधन नहीं किया। मानवता आगे बढ़ती रही और पुराने मतावलंबी पीछे छूटते गए। जिद मूल्यों को ले कर होनी चाहिए, मत और विचार को ले कर नहीं। जो अपने विचार को स्थगित कर देता है, वह स्वयं स्थगित हो जाता है। ऐसे स्थगित व्यक्ति, समूह और समुदाय दुनिया के किसी भी कोने में देखे जा सकते हैं। इन्हें एक तरह का आदिवासी कहा जाए, तो कैसा रहे?

मानववाद को इस तरह परिभाषित करने से यह समझ भी बनती है कि जैसे मनुष्य किसी एक जगह ठहरा हुआ नहीं रह सकता, उसी तरह मानववाद का कोई एक रूप या संस्करण भी ठहरा हुआ नहीं सकता। सभी युगों के बुद्धिमान स्त्री-पुरुष उसमें अपना अंशदान करते हैं। अर्थात मानववाद की लंबी परंपरा है। इसलिए मानववाद की कोई शाखा गर्व नहीं कर सकती कि उसकी अपनी समझ ही वास्तविक समझ है। बेशक किसी मुद्दे पर मानवादियों में गंभीर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन यह तो वैज्ञानिकों में भी होता है। मानववाद पर चर्चा के सिलसिले में विज्ञान को बीच में लाना बहुत ही मुनासिब है, क्योंकि सोचने और जीने का भी एक वैज्ञानिक आधार होता है। दोनों ही मामलों में तर्क और विवेक की भूमिका सर्वोपरि है। भावनाओं का भी अपना महत्व है, बल्कि यों कहिए कि विशेष महत्व है, क्योंकि कोई भी आदमी इतना पूर्ण नहीं है कि वह हमेशा तर्क से परिचालित होता रहे; अधिकतर तो वह भावनाओं का दास होता है। जो तर्क और विवेक को मुसीबत मान कर उससे पीछा छुड़ा लेता है और अपनी किसी विशेष भावना के साथ चिपका रहता है, उसे भी अपने ढंग से जीने का अधिकार है, बशर्ते कि इससे किसी और का नुकसान न होता हो। जो अपनी प्राणप्यारी के मर जाने के बाद बाकी जीवन वैधव्य में ही बिता देता है, वह भी ठीक है और वह भी जो दूसरी स्त्री को अपने जीवन में ले आता है। इसके बावजूद इस पर जोर देने की जरूरत है कि विचारों की तरह भावनाओं को भी मानवीय आधार पर अनुशासित करने की जरूरत है, अन्यथा दुनिया में अराजकता फैल जाएगी और बहुत-से जरूरी कार्य-व्यापार रुक जाएंगे।

इस संदर्भ में नारीवाद पर विचार किया जाए, तो वह मानववाद का ही एक अंग ठहरता है। नारीवाद को विचार की एक अलग शाखा के रूप में स्थापित करने की जरूरत इसलिए पड़ी कि मानववादियों ने उस समझ का विकास करने में दिलचस्पी नहीं ली, जो नारीवाद की धारा में विकसित होती रही है। लेकिन नारीवाद मानववाद का क्षेपक नहीं है। यह उसका अनिवार्य विकास है। यही कारण है कि नारीवादी विचार का विकास करने में पुरुष चिंतकों का भी निर्णायक योगदान रहा है। महात्मा फुले जितने मानववादी थे, उससे कम नारीवादी नहीं थे। इस सिलसिले में जॉन स्टुअर्ट मिल का नाम विशेष आदर के साथ लिया जाना चाहिए। उन्होंने अपने पिछड़े हुए समय में न केवल स्त्रियों की पराधीनता पर एक लंबा निबंध लिखा, जो आज भी कम उपयोगी नहीं है, बल्कि अपनी प्रेम पात्र हैरिएट टेलर से विवाह करने के पूर्व एक ऐसे दस्तावेज पर दस्तखत किया, जो आज भी उतना ही क्रांतिकारी है जितना तब था।

इस दस्तावेज को उद्धृत करने का मोह त्यागने के लिए मैं इसलिए तैयार नहीं हूं, क्योंकि आज के युवक इस तरह के दस्तावेज पर दस्तखत करके ही विवाह दफ्तर में जाएं तो बहुत अच्छा हो। इस प्रतिज्ञा पत्र में मिल लिखते हैं, 'जिस एकमात्र स्त्री को मैंने जाना है और जिसके साथ मैंने वैवाहिक संबंध बनाया होता, उससे मेरा विवाह होनेवाला है। इस विवाह के लिए उसकी अनुमति मिल जाने पर मैं अत्यंत प्रसन्न होऊंगा। लेकिन कानून में वैवाहिक संबंध की जो स्थिति है, वह ऐसी है जिसे हम दोनों ही अमान्य करते हैं, क्योंकि अन्य चीजों के अलावा वह वैवाहिक अनुबंध के दोनों पक्षों में से एक को दूसरे के शरीर, संपत्ति और स्वतंत्रता पर हावी होने का कानूनी अधिकार तथा नियंत्रण देती है - इसमें दूसरे पक्ष की इच्छा या सहमति न हो, तब भी। चूंकि मेरे पास कोई ऐसा कानूनी जरिया नहीं है जिससे मैं अपने को इन कुत्सित अधिकारों से वंचित कर सकूं (मैं ऐसा जरूर करता यदि ऐसी व्यवस्था हो सकती जो कानूनी रूप से मुझ पर लागू होती हो), अत: विवाह का जो मौजूदा कानून एक पक्ष को ऐसे अधिकार प्रदान करता है, उसके प्रति अपना लिखित प्रतिवाद दर्ज कराना मैं अपना कर्तव्य समझता हूं तथा विधिवत यह प्रतिज्ञा करना भी कि मैं किसी भी स्थिति में तथा किसी भी प्रकार से इन (कुत्सित) अधिकारों का इस्तेमाल नहीं करूंगा। यदि श्रीमति टेलर और मेरा विवाह संपन्न हो जाता है, तो उस स्थिति में मैं अपनी यह इच्छा और इरादा तथा इस संबंध की यह शर्त घोषित करता हूं कि उसे उसकी इच्छानुसार कार्य करने तथा अपने आपको तथा उस सबको जो उसके पास है अथवा भविष्य में आएगा, अपने ढंग से व्यवस्थित करने का इस तरह पूर्ण अधिकार होगा जैसे हमारे बीच यह विवाह हुआ ही न हो तथा इस विवाह के द्वारा मुझे जो भी अधिकार मिलते प्रतीत होते हैं, उनका मैं पूरी तरह से परित्याग करता हूं तथा उनका खंडन करता हूं।' आज की नारीवादी हो सकता है इससे भी ज्यादा की मांग करे, लेकिन इतना भी मिल जाए, तो क्या वह कम होगा ?

नारीवादियों की यह शिकायत बहुत सही है कि जो अपने को मानववादी बताते हैं, उनमें भी मर्दवाद के तत्व दिखाई पड़ते हैं। इसका कारण यह है कि बहुत-से मानववादी भले ही कुछ मामलों में या बहुत-से मामलों में न्यायप्रिय तथा प्रगतिशील हो गए हों, किन्तु स्त्री तथा परिवार के प्रति अपने नजरिए में वे रूढ़ संस्कारों से परिचालित होते हैं। इस तरह की संस्कारबबद्धता प्रायः सभी में दिखाई पड़ती है। इससे विचलित होने की जरूरत नहीं है। अगर किसी में कोई कमी है, तो उसकी आलोचना की जानी चाहिए, लेकिन इस तरह नहीं कि उसके पुण्य भी धुल जाएं। नारीवाद अपने को जितना अधिक उदार और लोकतांत्रिक बनाएगा, वह समाज में उतना ही स्वीकार्य होगा। यह कहना कि हमें समाज की परवाह नहीं है, बेकार का दुःसाहस है, क्योंकि नारीवाद का मुख्य उद्देश्य तो समाज की व्यवस्था और मानसिकता में परिवर्तन लाना ही है। समाज से बहस करना, उसे अपने मत में दीक्षित करने का प्रयास करना और अपनी पवित्र जिदों पर अडिग रहना एक बात है और समाज को गधा या कुत्ता समझना बिलकुल दूसरी बात। सच तो यह है कि समाज में बदलाव लाने की ख्वाहिश रखनेवालों को समाज की सबसे ज्यादा परवाह होनी चाहिए। जिससे आप प्रेम नहीं करते, उसे उपदेश देने का आपको क्या अधिकार है ? और, वह आपकी बात पर गौर भी क्यों करेगा ?

अगर नारीवाद में कड़वाहट और गुस्सा दिखाई पड़ता है, तो यह नितांत स्वाभाविक है। अफ्रीका और अमेरिका के नीग्रो साहित्य और भारत के दलित साहित्य में भी इससे कम कड़वाहट और गुस्सा दिखाई नहीं पड़ता। यह गुस्सा मार्क्स और एंगिल्स के लेखन में भी दिखाई देता है। वस्तुतः जो भी समुदाय जाग उठता है और अपने साथ होनेवाले अन्यायों और अत्याचारों को पहचानना शुरू करता है, उसमें गुस्सा न दिखाई पड़े तो यह नाआदमीयत है। लेकिन परिपक्वता आने पर गुस्से की गरमी कम हो जाती है और उसकी रोशनी बढ़ने लगती है। इसे जर्मेन गियर की प्रारंभिक (द फीमेल युनक) और बाद की कृतियों (द होल वीमेन) के मिजाज की तुलना करके समझा जा सकता है। भारत का नारीवाद अभी विस्फोटक गुस्से के स्टेज में है। हम इसे समझते हैं और इसका स्वागत करते हैं। साथ ही, भविष्य में इससे बेहतर की उम्मीद करते हैं। क्योंकि, गुस्से से दुनिया को बदलने का जज्बा पैदा होता है, पर दुनिया को बदलने का शऊर हासिल करने के लिए और भी चीजों की दरकार है।

इस सिलसिले में इस्लामी नारीवाद, ईसाई नारीवाद और यहूदी नारीवाद (शुक्र है कि हिन्दू नारीवाद नाम की कोई चीज नहीं है) जैसे शब्दों से भड़कने या बहुत खुश होने की जरूरत नहीं है। चिनगारी जहां भी दिखाई दे, वह स्तुत्य है। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि मानववाद आज जा कर वैज्ञानिक हुआ है, इसके पहले तो वह धर्म की छतरी तले ही विकसित हुआ था। जैसे आज मुस्लिम स्त्रियां कह रही हैं कि हम मुल्लों और मौलानाओं के फतवों को अमान्य करते हैं और वही करेंगे जिसे हम कुरआन का आदेश समझेंगे, उसी तरह कभी ईसाई मर्दों और औरतों ने भी घोषणा की थी कि हमारा असली शिक्षक ईसा मसीह है, पोप या कोई और धर्माधिकारी नहीं। गांधी जी ने कहा कि कोई यह साबित कर दे कि छुआछूत शास्त्रों द्वारा समर्थित है, तो मैं इन शास्त्रों का परित्याग कर दूंगा। उम्मीद करनी चाहिए कि आज ईश्वर की वाणी के वाहक माने जानेवाली बाइबल या कुरआन के हवाले से जिस सत्य पर जोर दिया जा रहा है, कल वही मानव बुद्धि और विवेक के आधार पर स्थापित किया जा सकेगा। ईश्वर की उपयोगिता तभी तक है जब तक आदमी अपने जीवन का चार्ज अपने हाथों में नहीं लेता।

नारीवादियों को अपना कबीला अलग से बसाने की जरूरत नहीं है। स्त्री अधिकार मानव अधिकारों के बृहत्तर दायरे में ही आते हैं। नाराज लोग शुरू में अपनी अलग टोली बना लेते हैं। फिर जब उनकी शिकायतें दूर हो जाती हैं, वे अपने समुदाय में वापस शामिल हो जाते हैं। नारीवाद की नियति भी यही है। दूसरी तरफ, यह मानववाद का फर्ज है कि वह अपने शास्त्र में नारीवाद को उचित जगह दे। नारीवाद की मांग आखिर यही है कि स्त्रियों को पूर्ण मनुष्य का दरजा दिया जाए। मानववादी महसूस करते हैं कि पूर्ण मानव का दरजा अभी तक पुरुषों को भी नहीं मिल पाया है। प्रगतिशील पुरुष ही प्रगतिशील स्त्री का सच्चा साथी हो सकता है। इसलिए साझा संघर्ष की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता। यह कब होगा पता नहीं। व्यक्तिगत रूप से मैं यही कह सकता हूं, चंद रोज और मेरी जान, फकत चंद ही रोज।

Monday, April 5, 2010

क्या, कहीं कोई जवाब है?

मैं राइट टू एजूकेशन वाली खबर पढ़कर खुश थी पिछले दिनों, इसी बीच मेरी एक मेरी एक दोस्त का फोन आया। मेरी दोस्त गायनोकोलॉजिस्ट है. उसके फोन ने बेचैन कर दिया. उसके पति के एक दोस्त (जो कि यूपी के एक महत्वपूर्ण जिले में डीएम हैं) उसके नर्सिंग होम में अपनी पत्नी समेत आए. कारण पत्नी के पेट में पल रहे गर्भ की लिंग जांच. दोस्ती का तकाजा और अपने ऊंचे ओहदे की हनक. उन्हें पूरा यकीन था कि काम हो ही जायेगा.
मेरी दोस्त बड़ी सख्त है इन मामलों में। उसके सिद्धान्त के खिलाफ था यह। पहले भी कई मौकों पर उसने लोगों की बुराई मोल ली लेकिन जांच नहीं की, तो नहीं की। लेकिन इस बार मामला थोड़ा दबाव बना रहा था। पति के उन मित्र ने पति की काफी मदद की थी. कॉलेज में उसकी बीमारी में ब्लड भी डोनेट किया था. मेरी दोस्त के पति जो खुद भी डॉक्टर है अपने इस डीएम दोस्त को काफी मानते हैं. मेरी दोस्त ने अपने पति को फोन लगाया और मामला बयान किया. जाहिर है वो लिंग जांच नहीं करना चाहती थी. दोनों पति-पत्नी ने आपस में मशविरा किया और इसके बाद उन्हें स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया गया कि यह हमारे सिद्धांतों के खिलाफ है. उन्हें समझाया भी गया कि यार, इस जमाने में, पढ़े लिखे होकर तुम यह क्यों कर रहे हो? बेटा हो या बेटी क्या फर्क पड़ता है.
डीएम महोदय को ना सुनने की आदत तो थी नहीं, सो वे तिलमिला उठे। उन्होंने जाते-जाते मेरी दोस्त को जो झाड़ दी उसका लब्बोलुआब यह था कि वो जिंदगी में कभी तरक्की नहीं कर पायेगी। क्योंकि उसे समय के साथ चलना नहीं आता। मेरी दोस्त की खुद दो बेटियां हैं यह उसकी असफलता की गारंटी है ऐसा वो कहकर गये।
मैं जब भी उससे मिलती हूं वो ऐसे तमाम किस्से बताती है, जिसमें उस पर लिंग जांच का दबाव बनाया जाता है। कभी दोस्त, कभी पड़ोसी, कभी रिश्तेदार। पेशेंट्स तो खैर हैं ही। हर बार वो इन चीजों को लेकर नाराज होती है, इस बार दु:खी थी। दुखी इसलिए नहीं कि उसे भला-बुरा कहा गया बल्कि इसलिए कि क्या फायदा इस पढ़ाई-लिखाई का जब कि एक अनपढ़ मजदूर और एक डीएम, इंजीनियर, डॉक्टर, मैनेजर एक ही जैसा सोच रहे हैं। उसकी आवाज पिघल सी रही थी।
मेरी बेटियां मेरी सफलता हैं प्रतिभा, उन्हें मेरी असफलता क्यों कहते हैं लोग?

क्या कहीं कोई जवाब है?

Saturday, April 3, 2010

पानी के झगडे में गई इस गर्मी की पहली जान

कल ही एक अख़बार की खबर , इंदौर में पानी के झगडे में एक युवती को अपनी जान गंवानी पड़ी , ने सोचने पर विवश कर दिया कि कब तक हम पानी को लेकर जागरूक नहीं होंगे और जहाँ पानी अधिक है वंहा जल की बर्बादी को रोकने के लिए जनजागरण अभियान की आवश्यकता है .......अन्यथा ये खबरे ....परेशां करने वाली हैं .....

अनुप्रिया के रेखांकन

स्त्री को सिर्फ बाहर ही नहीं अपने भीतर भी लड़ना पड़ता है- अनुप्रिया के रेखांकन

स्त्री-विमर्श के तमाम सवालों को समेटने की कोशिश में लगे अनुप्रिया के रेखांकन इन दिनों सबसे विशिष्ट हैं। अपने कहन और असर में वे कई तरह से ...