शिकागो की जैन मैकराइट ने ईरानी धर्म गुरु का विरोध शुरू करके फेसबुक पर अपनी तरह का आंदोलन ही चला दिया है। इस धर्माधिकारी ने कहा था कि औरतों के उघड़े बदन को देखकर ईश्वर नाराज हो जाता है और इससे जलजले आते हैं। इसका विरोध छुटपुट रूप में कई जगह दिखा। विद्रोही किस्म की औरतों ने इसके विरोध में ब्लॉग भी लिखे पर जैन की मानसिक रूप से झकझोरने वाली राय को हफ्ते भर में दो लाख सपोर्टर मिले। यह देखकर सीएनएन, बीबीसी, फॉक्स सब हैरान हैं। "बूब क्वेक' के नाम से चलाये जा रहे इस विरोध पर दुनिया भर में गर्मागर्म कमेंट्स औरतों के उग्र तेवर से परंपरावादियों की बोलती बन्द करवाते जा रहे हैं। रियल बूब क्वेक (8 पोस्ट), गो टॉपलेस (24), द बूबक्वेक (71), डिबंकिंग इरानियन क्लरिक नॉनसेंस (71), द टØथ अबाउट ईरान (36), च्वाइस ऑफ सेंसरशिप (56), इस्लाम विल लूज(246), व्हाट एग्जेक्टली बूब क्वेक (50 पोस्ट) बताने के लिए काफी हैं कि पुरातन पंथ पर झाड़ू फेरने वाली फौज को रोकना आसान नहीं है। सामाजिक क्रांति का इससे बहतर कोई उदाहरण नहीं हो सकता। दुनिया भर की औरतें "बहनापे' को लेकर केवल संवेदनशील ही नहीं हो रही हैं, वे यह भी दिखा दे रही हैं कि औरतों के नाम पर होने वाले सम्मेलनों की बजाय मानसिक रूप से एक होने का असर ज्यादा होता है। "बूब क्वेक' को पसंद बताने वालों की संख्या एक लाख से ऊपर नजर आना कोई हंसी-खेल नहीं है। यह शुद्ध रूप से दकियानूस विचारधारा का विरोध है, जिसे कोई राजनैतिक रंग नहीं दिया जा सकता।
वह समय आ चुका है, जो खुलकर कह रहा है कि औरतों के कटावों और उभारों पर वारी जाने वाली दुनिया में पर्दे के लिए कोई जगह नहीं है। उत्तरी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका की तमाम पारंपरिक संस्कृतियों में आज भी टॉपलेस को बुरा नहीं माना जाता। दुनिया भर की तमाम संस्कृतियों में पूजी जाने वाली देवियों को टॉपलेस ही माना गया है, उनको देखकर किसी ईश्वर प्रेमी के दिमाग की नसें नहीं फटीं। ना ही ऐसा कोई जलजला आया, जिसने दुनिया तबाह कर डाली हो। उन्नीसवीं सदी में यूरोप में संभ्रांत घरों की औरतें अपने सौंदर्य का प्रदर्शन करने के लिए घुटनों से नीचे और सीने को खुला ही रखती थी, क्योंकि तब यह स्टेटस सिंबल हुआ करता था। स्विम सूट और बिकनी पहनने वाली लड़कियों को तो जाने ही दीजिए पर अपने यहां पारंपरिक लिबासों, मसलन साड़ी, कुर्ता-सलवार और कमीज पहनने वाली अधेड़ और बूढ़ी औरतों को खुली छाती में देखा जाता है। जिसे झीनी ओढ़नी या पल्लू से ढांपा गया होता है। थुलथुल टाइप की कोई भी बूढ़ी अपने विशाल वक्ष को छिपाने के प्रयास करती नजर नहीं आती, इनके बड़े और ढीले गलों से लगभग आधे वक्ष बाहर ही दिखते हैं, जिनको देखकर घृणित मानसिकता वाला ही कोई घिनौनी बात सोच सकता है।
सीधे कहूं तो सेक्स अपील और नग्नता देखने वाले की नजरों से ज्यादा मानसिकता में होती है। खुले समाज में तो विरोध प्रदर्शन करने वाली औरतें टॉपलेस होकर अपनी बात कहने का अद्भुत तरीका अपनाती हैं। जिसमें "टॉप फ्रीडम' टाइप के सोशल मूवमेंट भी शामिल हैं। बीच, स्विमिंग पूल, पार्कों जैसी सार्वजनिक जगहों पर ये बराबरी का अधिकार मांगने के लिए ऊपर के कपड़े खोलकर विरोध जताती हैं। सितंबर 2007 में स्वीडन में "बारा ब्रास्ट' (बेयर ब्रोस्ट) के नाम पर आंदोलन किया था। इनको उन जगहों पर खुली छाती के साथ घूमने की इजाजत चाहिए थी, जहां मर्द ऐसे ही घूम सकते हैं। मध्य पूर्व में अकेले इज्राइल ही ऐसी जगह है, जहां औरतें चाहें तो उघड़ी छाती के साथ घूम सकती हैं। हालांकि तेल अवीव जैसे कुछ बीचों पर भी औरतें उन्मुक्त भ्रमण करना पसन्द करती हैं। कुछ विदुषियां इसको "टॉप फ्री' कहने पर अड़ी हुई हैं। जिस वक्त इस्लाम की सलामती मानने वाले धर्म गुरू औरतों के खुले कपड़ों को कोस रहे थे, ठीक उसी समय फ्रांस के राष्ट्रपति ने बुर्के पर रोक लगाकर क्रांतिकारी कदम उठा दिया। औरतों को परदों में लपेटे रहने वाली मानसिकता पर चोट करने का मुफीद समय है, जिस पर दुनिया की तमाम औरतें एकजुट हो चुकी हैं। (देखें ब्लॉग चर्चित स्टार सुचित्रा कृष्णमूर्ति का) यह सच है कि परदे को एकदम से खोलकर बाहर आने का साहस करना केवल सामाजिक ही नहीं मानसिक आंदोलन भी है। खुद को बेपरदा करने को तैयार होना भी मामूली काम नहीं है।
खासकर उन औरतों के लिए जिनकी कई पीढ़ियां पूरा मुंह ढक कर ही बाहर निकली हैं। क्रांति की घुट्टी जबरन नहीं पिलाई जा सकती, लेकिन यह सच है कि अब और कुचला नहीं जा सकता। औरतों को खुलेपन में मजा आ रहा है। वे दिमागी रूप से बराबरी करने को आमादा हैं। भीतर से उठने वाली अपनी आवाज को वे दबाने को तैयार नहीं हैं। उनके साहस को दबाने का प्रयास करने वाले परिवार अब जान भी नहीं सकते कि उनकी बिटिया का ब्लॉग क्या कह रहा है, या किस सोशल साइट पर उसका कितना समर्थन है। सड़कों पर आंदोलन या बहस-मुबाहिसों के नाम पर बाहर निकलने की पाबंदी से भले ही दकियानूस उसे रोक ले रहा था पर मानसिक गुलामी से तो उसने खुद को मुक्त ही कर लिया है।
साभार - राष्ट्रीय सहारा , आधी दुनिया ,26 मई 2010
सुचित्रा कृष्णमूर्ति की उल्लिखित पोस्ट 'बूब्स एण्ड बम्स 'का हिन्दी अनुवाद यहाँ पढें ।