ये जानते हुये भी कि जीवन रचने की अनूठी शक्ती सिर्फ औरत के हिस्से आयी है, और पालन पोषण की जिम्मेदारी भी. फिर भी औरत की कोख पर उसका अधिकार नहीं है, स्त्री का माँ रूप सिर्फ एक ख़ास सन्दर्भ में ही स्वीकार्य है, बाकी वों लगातार स्त्री के लिए अपमान और बंधन और पीड़ा का सबब है. निरुपमा के बहाने अविवाहित मात्र्तव पर खासी बहस जारी है. विवाहित महिलाए भी कभी सामाजिक दबाव में बच्चे जनने को, एक ख़ास लिंग का बच्चा जनने और न जनने को, गर्भपात से लेकर कई तरह के संत्रास से रोज गुजरती ही है. इसीलिए मात्रत्व को स्त्री के सिर्फ व्यक्तिगत प्रश्न देखने के बजाय इसे स्त्री के स्वास्थ्य, अस्मिता, और उसके वृहद् सामाजिक भूमिका से जोड़ कर देखने की ज़रुरत है. स्त्री के स्वास्थ्य, सेक्सुअलिटी पर पितृसत्ताक, नजरिया बहुत लम्बे समय तक रहेगा, स्त्री का सामाजिक अनुकूलन भी नित नए रूप में सामने आयेगा. अलग-अलग समाजो की फांस और अपनी ख़ास तरह की अनूठी जीवन रचने की जो शक्ती स्त्री के पास है, उसको समझते हुये, ही स्त्री उनसे कई स्तरों पर तैयारी से उलझती रहे, और सशक्त बने, सक्रिय तरीके से किसी स्तर पर सामाजिक चेतना को कुछ आगे धकेले. इन सबके बीच स्त्री तभी पार पा सकती है जब उसके पास आधुनिक नजरिया हो कि किस तरह स्त्री अपने शरीर, अपनी इच्छाओं, को देखे समझे ( Our Bodies, Ourselves: A New Edition for a New Era, Boston Women's Health Book Collective). स्त्री शिक्षित हो, अपने बारे में. मात्र्तव उसके लिए दुर्घटना न बने, माता बनने और माँ न बनने के जो पारिवारिक और सामाजिक दबाव स्त्री पर लगातार बने रहते है, उनसे पार पाए. मातृत्व का चयन स्त्री का हो और वों बच्चे और माँ के जीवन का उत्सव हो. आज गर्भ-निरोधक पिल्स को मान्यता मिले ५० साल हुये है. और निसंदेह इन ५० सालों में स्त्री को सिर्फ अनचाहे मात्रत्व से ही मुक्ती नहीं मिली है, उसे समाज में अपने लिए जगह बनाने के अवसर मिले है, और परिवार और समाज पर बढ़ती जनसंख्या का दबाव भी कम हुया है.आज पिल्स की ५०वी सालगिरह भी है
सायंस और तकनीकी के समाधान हमारी साझी सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया के ही हिस्से है, सिर्फ यही अकेले समाधान नहीं है. सायंस के समाधान भी देर सबेर शोषक और सबल का हथियार बन जाते है और शोषण के दूसरे रूप उनका इस्तेमाल करने में आगे रहते है.
समाज बदलने की दिशा में और स्त्री को एक सम्पूर्ण मानव की गरिमा मिलने तक स्त्री की अपने बारे में और अपने समाज के बारे में एक सचेत राजनैतिक शिक्षा की ज़रुरत लगातार बनी रहेगी. इस मायने में स्त्रीत्व की लड़ाई सिर्फ भारतीय समाज में ही नहीं है, अलग-अलग तरह से दूसरे समाजो में भी है. जिन समाजो में अविवाहित मात्र्तव कुछ हद तक स्वीकृत है, और सायंस, तकनीकी और तकनीकी जानकारी का अभाव नहीं है, वहाँ भी स्त्रीत्व की यात्रा सरल और सुखद नहीं है. अमरीकी समाज में एक बड़ी होती लड़की अपनी इस यात्रा को किस तरह से देखती है, नोमी वूल्फ की ये किताब कुछ कठिन सवालों से रूबरू होती है. ये सवाल कुछ दूसरी तरह से भारतीय समाज में लड़की के बड़े होने और स्त्रीत्व की यात्रा के बहुत नजदीक ही है। सामाजिक अनुकूलन की प्रक्रिया को समझते हुये स्त्री का सचेत रूप से अपने स्त्रीपन से उलझे बगैर काम नहीं चलता.
विवाह,जाति-प्रथा और यौन शुचिता आदि पर बहुसंख्यक समाज के जो विचार है उन्हें इतने सालों बाद भी लोहिया जी की तरह बार-बार कटघरे में खड़े किये जाने की ज़रुरत है. कम से कम स्त्री का माँ बनना या न बनना, विवाह के भीतर या बाहर बनना सिर्फ उसकी ही मर्जी होनी चाहिए. . सवाल लेकिन सिर्फ माँ बनने और नहीं बनने का नहीं है, सवाल ये है कि क्या स्त्री एक सम्पूर्ण मनुष्य है? या उसका शरीर और उसकी योनिकता का मालिक कोई दूसरा है? पिता, पुरुष या समाज? और जब तक ये सवाल नहीं सुलझाया जाएगा, स्त्री को एक सम्पूर्ण मनुष्य की गरिमा नहीं मिल सकती.
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8 comments:
Serv prtham Prdam swikar kijiye va shukriya itne utkrishth lekh keliye
सहमत हूँ।
आपने सही मुद्दा उठाया है। आपसे सहमति।
५० वर्ष हो जाने के बावजूद इन पिल्स को लेना/न लेना भी आम तौर पर पुरुषासत्तात्मक फैसला होता होगा और अब तो नई गोलियों और स्त्री शरीर पर नई नई विधियों के प्रयोग के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अमेरिका में करोड़ों डॉलर मुआवजा भरती हैं और हमारे देश में स्वयंसेवी संस्थाओं को करोड़ों के प्रओजेक्ट देकर आम महिलाओं पर चूहों की तरह टेस्ट करती है। हाल ही में सर्वाईकल कैंसर के कथित टीके नाम पर ऐसा ही हुआ है ।
मेरा किसी 'एक गिलास पानी के सिद्धांत' पर कोई विश्वास नहीं है। शरीर की भी एक गरिमा होनी चाहिये। परंतु किसी महिला या पुरुष को अपने बारे में निर्णय लेने का अधिकार होना ही चाहिये। इसमें समाज या किसी राजनैतिक-धर्मिक व्यवस्था का कोई भी हस्तक्षेप सही नहीं है। दिक्कत यही है कि एक तरफ़ युवा वर्ग सारी वर्जनायें तोड़ रहा है तो दूसरी तरफ़ लड़कियों के संदर्भ में नैतिकता के पुराने मानदण्ड उन्हें एकल मातृत्व जैसे निर्णय लेने से रोकते हैं और विवाह के अलावा कोई और विकल्प उनके समक्ष नहीं रहता और लड़कों के विशेष संदर्भ में परंपरा और बाज़ार के अन्तर्संबधों से मिलने वाले अकूत लाभ का मोह उन्हें सीधे निर्णय लेने से रोकता है, जिसका परिणाम 'धोखे' जैसी स्थिति पैदा करता है और अंततः आत्महत्या या हत्या जैसी चीज़ें सामने आती हैं…यह नहीं भी हुआ तो लड़कियों में डिप्रेशन या फिर अंततः उन्हीं परंपराओं के प्रति समर्पण की स्थित आती है।
दरअसल, आधुनिकता को सिर्फ़ प्रदर्शन की वस्तु बनाकर जीवनमूल्य की तरह न स्वीकरने से ही ये समस्यायें पैदा हुई हैं।
लबो पे जिसके कभी बद्दुआ नहीं होती
वो माँ है जो कभी खफा नहीं होती
Ek aur stereotype माँ है जो कभी खफा नहीं होती kyon use haq nahin खफा hone ka? Matritav sadaiv aanandkari ho yeh zaroori to nahin... Gar gussa ho to use sakaratmak roop se pragat karne ka adhikaar bhi zaroori hai.
http://www.youtube.com/watch?v=OCObQSpSiC0
Agar koi avivahita biological maa banana chaheto kya use anamane hi kisi se bhi shaadi kar baccha paida karna chahiye? Ya phir agar koi vivahita maa na banana chahe to use matritav ko gale lagana chahiye koi ki yeh us se apekshit hai.
Yeh stereotypes aur kya apekshit hai hi sari musibat ki jad hein dono mahilaon aur purushon ke liye...
Peace,
Desi Girl
www.girlsguidetosurvival.wordpress.com
@अफलातूनजी,
निश्चित रूप से कुछ हद तक गर्भधारण करने और न करने का दोष औरत पर ही मढ़ा जाता है, और इसकी सीधे कीमत औरत अपने स्वास्थ्य से तो हर हाल में चुकाती है, अपनी सामाजिक स्वतंत्रता का भी. पिल्स ने, दूसरे तरीकों ने स्त्री को अपनी कोख की कैद से बाहर निकाला है, ये कम से कम निर्विवाद तथ्य है. पिल्स का ज़िक्र सिर्फ इसलिए लिया कि लोग इस लेख तक पहुँच सके. इसीलिए पिल्स कोई माजिक पिल्स नहीं है. सिर्फ एक टूल है, एक तकनीकी समाधान है. ढेरों समाधान है, और प्रचलित भी है, हो सकता है पिल्स से कम हानिकारक हो. पिल्स की अपनी सीमाए है, संक्रमित रोगों से बचाव का पिल्स समाधान नहीं है, कुछ दूसरे समाधान है. शायद सबसे आसान समाधान मर्दों के लिए बनी वैक्सीन होती. बहुत साल पहले ९२ की सायंस कांग्रेस में एक सेमिनार के दौरान किसी ने ये प्रश्न उठाया था कि गर्भ-निरोधक वैक्सीन मर्दों के लिए क्यूं नहीं बनती? उसके जबाब में कहा गया था कि कोई भी मर्द नामर्द होना पसंद नहीं करेगा! इसीलिए इस दिशा में प्रयास भी नहीं किये जाते. हर तरह की सायंस और प्रेक्टिस निश्चित रूप से सामाजिक सोच से नियंत्रित होगी, बाज़ार के दबाव से भी नियंत्रित होगी ही. उसी के बीच में कभी कुछ होता है जो थोडा बहुत वंचितों के हिस्से भी आता है. वैसे भी परिवार नियोजन सिर्फ स्त्री की जिम्मेदारी नहीं है. एक परिवार, एक दम्पति का मिलाजुला फैसला है, और कम से कम सायंस ने लोगो के सामने ये चुनाव रखा है कि वों सचेत तरह से अपना जीवन चुने. तकनीकी और सायंस का मकसद है कि लोगो के जीवन को कुछ कम कठिन बनाए और ये प्रक्रिया लगातार चलती रहती है, हमेशा बेहतर बनाए जाने का विकल्प होता है, और इसके साथ कुछ रिस्क भी होते है.
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