टीवी पर एक कार्यक्रम चलता है, रियालिटी शो- मां एक्सचेंज। इसमें दो परिवारों की माताएं आपस में घर-परिवार बदल लेती हैं, एक हफ्ते के लिए। इसके दो-तीन एपीसोड देखने को मिले। शुरुआती एक कार्यक्रम में हाइ प्रोफाइल पूजा बेदी थीं तो कल के कार्यक्रम में गांव और शहर की दो महिलाओं को एक-दूसरे के घर में भेजा गया था।
कार्यक्रम कमर्शली जैसा भी हो, उसमें एक बात बार-बार नजर आती रही- हर देखे हुए एपीसोड में हर प्रतिभागी की दिक्कतें खाने या किचन और सफाई के ही इर्द-गिर्द पसरी हुई दिखाई दीं। पूजा बेदी थोड़ी नफासत से, तो कोई और ज्यादा बदतमीजी से अपने अपनाए हुए नए परिवार के मकान/रहवास की 'गंदगी' और अस्वच्छ आदतों पर खीझती है, कुढ़ती है या झगड़ती है। इसके अलावा खाना कौन बनाएगा, क्यों नहीं बना, कब बनेगा क्या और किस तरह बनेगा (इसमें सेहत की चिंता कतई शामिल नहीं है) जैस मसले उनके सामने होते हैं, हफ्ते-भर के इस प्रवास में। ताजा कार्यक्रम में एक परिवार की सास भी शामिल थीं, जिनकी खासियत थी, अपनाई हुई बहू के काम में मीन-मेख निकालना, बजाए उसे पहले से कोई सीख देने या अपनी आदतें-जरूरतें बता देने के।
नाम के मुताबिक इन भागीदारों में 'मां' वाला पहलू तो दिखाई ही नहीं पड़ता, बस घरेलू कर्मी ही बनी हुई हैं सब, भले ही इसकी कीमत पर घर के बच्चों को ड़ांट-फटकार लगानी पड़े या उन छोटे-बड़े बच्चों को, उनकी जरूरतों को नजरअंदाज करना पड़े।
क्या ये कार्यक्रम हमारे व्यवहार को एडिट करके एक-तरफा बना कर दिखाए जा रहे हैं या ये ही सच्चाई है? अगर यही सच है, तो क्या ज्यादातर भारतीय औरतों के जीवन में इससे ज्यादा कुछ भी सोचने-करने को नहीं है? अगर ये रियालिटी शोज़ हमारा अपना अक्स दिखा रहे हैं तो क्या हमें इसमें कुछ भी विद्रूप नहीं दिखाई पड़ता?
कार्यक्रम कमर्शली जैसा भी हो, उसमें एक बात बार-बार नजर आती रही- हर देखे हुए एपीसोड में हर प्रतिभागी की दिक्कतें खाने या किचन और सफाई के ही इर्द-गिर्द पसरी हुई दिखाई दीं। पूजा बेदी थोड़ी नफासत से, तो कोई और ज्यादा बदतमीजी से अपने अपनाए हुए नए परिवार के मकान/रहवास की 'गंदगी' और अस्वच्छ आदतों पर खीझती है, कुढ़ती है या झगड़ती है। इसके अलावा खाना कौन बनाएगा, क्यों नहीं बना, कब बनेगा क्या और किस तरह बनेगा (इसमें सेहत की चिंता कतई शामिल नहीं है) जैस मसले उनके सामने होते हैं, हफ्ते-भर के इस प्रवास में। ताजा कार्यक्रम में एक परिवार की सास भी शामिल थीं, जिनकी खासियत थी, अपनाई हुई बहू के काम में मीन-मेख निकालना, बजाए उसे पहले से कोई सीख देने या अपनी आदतें-जरूरतें बता देने के।
नाम के मुताबिक इन भागीदारों में 'मां' वाला पहलू तो दिखाई ही नहीं पड़ता, बस घरेलू कर्मी ही बनी हुई हैं सब, भले ही इसकी कीमत पर घर के बच्चों को ड़ांट-फटकार लगानी पड़े या उन छोटे-बड़े बच्चों को, उनकी जरूरतों को नजरअंदाज करना पड़े।
क्या ये कार्यक्रम हमारे व्यवहार को एडिट करके एक-तरफा बना कर दिखाए जा रहे हैं या ये ही सच्चाई है? अगर यही सच है, तो क्या ज्यादातर भारतीय औरतों के जीवन में इससे ज्यादा कुछ भी सोचने-करने को नहीं है? अगर ये रियालिटी शोज़ हमारा अपना अक्स दिखा रहे हैं तो क्या हमें इसमें कुछ भी विद्रूप नहीं दिखाई पड़ता?
2 comments:
ज्यादातर देखा हुआ जाना हुआ, लेकिन फिर भी ताक-झांक जैसा.
http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2011/01/blog-post_13.html
good to see your post again
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