काफी समय पहले आलोचक-लेखक विजयमोहन सिंह का एक रोचक आलेख पढ़ने को मिला था। लेकिन उस लेख में जिस 'जन्नत' के बारे में पढ़ा था आज भी खून खौलाती है। इस लेख में उन्होंने अमेरिकी लोगों और समाज का चित्र बड़ी सहज भाषा में उकेरा था। इसी में एक जगह अमेरिका के मशहूर शहर लास वेगाास का जिक्र आया है जो कि दुनिया भर में अपने जुआघरों के लिए मशहूर है । लास वेगास से जुड़े एक प्रसंग को उन्होंने इस लेख में दर्ज किया था। मैं उस पूरे पैर को कोट करने से खुद को रोक नहीं पा रहीं हूं -''कुछ बाद में पता चला कि अनेक सेवानिवृत्त पिता, पुत्रों से विशेष अनुरोध करके लास वेगाास जरूर जाते हैं और वहां से विभोर और कृत-कृत होकर लौटते हैं। मेरे बेटे ने बताया कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के ऐसे ही एक पिताश्री को उनके 'श्रवण कुमार' लास वेगास घुमाकर लाए तो उन्होंने भारत लौटकर अपने हमउम्र निश्तेदारों से कहा : 'भार्इसाहब स्वर्ग अगर कहीं है तो वहीं है, अब क्या बताएं आप से, प्राय: निर्वस्त्र बालाएं ठुमकती हुर्इ आकर सुरापान कराती हैं और गाल-वाल थपथपा जाती हैं। कुछ धर्मग्रंथों में स्वर्ग के बारे में भी यही सब लिखा है न तो स्वर्ग और क्या होगा ?''
Wednesday, August 31, 2011
जन्नत लुटाता एक दोजख
काफी समय पहले आलोचक-लेखक विजयमोहन सिंह का एक रोचक आलेख पढ़ने को मिला था। लेकिन उस लेख में जिस 'जन्नत' के बारे में पढ़ा था आज भी खून खौलाती है। इस लेख में उन्होंने अमेरिकी लोगों और समाज का चित्र बड़ी सहज भाषा में उकेरा था। इसी में एक जगह अमेरिका के मशहूर शहर लास वेगाास का जिक्र आया है जो कि दुनिया भर में अपने जुआघरों के लिए मशहूर है । लास वेगास से जुड़े एक प्रसंग को उन्होंने इस लेख में दर्ज किया था। मैं उस पूरे पैर को कोट करने से खुद को रोक नहीं पा रहीं हूं -''कुछ बाद में पता चला कि अनेक सेवानिवृत्त पिता, पुत्रों से विशेष अनुरोध करके लास वेगाास जरूर जाते हैं और वहां से विभोर और कृत-कृत होकर लौटते हैं। मेरे बेटे ने बताया कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के ऐसे ही एक पिताश्री को उनके 'श्रवण कुमार' लास वेगास घुमाकर लाए तो उन्होंने भारत लौटकर अपने हमउम्र निश्तेदारों से कहा : 'भार्इसाहब स्वर्ग अगर कहीं है तो वहीं है, अब क्या बताएं आप से, प्राय: निर्वस्त्र बालाएं ठुमकती हुर्इ आकर सुरापान कराती हैं और गाल-वाल थपथपा जाती हैं। कुछ धर्मग्रंथों में स्वर्ग के बारे में भी यही सब लिखा है न तो स्वर्ग और क्या होगा ?''
Tuesday, August 23, 2011
मैं अन्ना नहीं होना चाहूंगीः अरुंधती राय

"अन्ना की मांगें गांधीवादी नहीं हैं।" अरुंधती राय की राय सोचने को मजबूर कर देने वाली हैं। 22 अगस्त को द हिंदू में छपे लेख का अनुवाद एक ब्लॉग पढ़ते-पढ़ते में मिल गया तो यहां लिंक दे रही हूं। मनोज पटेल ने खुद ही इसका अनुवाद किया है। साभार।
Thursday, August 18, 2011
लड़कियाँ
'कथादेश' में श्री दिनेश शुक्ल के कुछ समकालीन दोहे पढ़े। अच्छे लगे। और सब भी पढ़ सकें, इसलिये यहाँ पोस्ट कर रही हूँ।
कम्प्यूटर युग लड़कियाँ
बहती नदी की तरह, पानी के घर प्यास
इस पृथ्वी पर लड़कियाँ, जीवन का उल्लास।
सपने, कोशिश, हौसले, सुख, दुख, चिन्ता, हर्ष,
लड़की का अपना रहा, जीवन का संघर्ष।
कम्प्यूटर लड़कियाँ, आफ़िस, बस्ता, पेन,
महानगर की ज़िन्दगी, पकड़ें लोकल ट्रेन।
लड़की के दुख अलग हैं, दुनिया के कुछ और,
हर मुश्किल में लड़कियाँ, सदा हँसीं इस दौर।
मुट्ठी में बाँधे हुए, चाँद, रोशनी, फूल,
खोले बैठी लड़कियाँ, सपनों के स्कूल।
एक फूल ने भर दिये, मन में गंध, पराग,
लगी महकने लड़कियाँ, लिये प्रेम की आग।
ढेरों दुख और मुश्किलें, झिड़की, बंदिश, डाँट,
लड़की का मन काँच था, कहीं नहीं थी गाँठ।
सुख सपनों के आइने, उम्मीदों के रंग,
बँधी प्रेम में लड़कियाँ, रंगी प्रेम के रंग।
टूटा कोई स्वप्न जब, छूटा कोई हाथ,
रोई सहसा लड़कियाँ, जब-तब आधी रात।
रोटी के संघर्ष को, देकर मोड़ विशेष,
हँसती लड़की देख कर, ईश्वर हँसा 'दिनेश'।
-दिनेश शुक्ल
Wednesday, August 17, 2011
आज़ादी व्यक्तिगत से ज़्यादा एक सामाजिक क्वेस्ट है
ये पोस्ट २००८ में लिखी गयी थी, जिसे सुजाता ने पोस्ट किया था.. अनुराधा की पिछली पोस्ट देखकर याद आयी. फिर लगा रही हूँ.
मैं खुश हूँ ,मेरा भरा पूरा परिवार है ,मैने आज़ादी हासिल की है; पर मै व्यग्र हूँ ,मैं चिंतित हूँ, क्योंकि जब तक मेरा दफ्तर ,मेरी गलियाँ ,मेरा समाज आज़ाद नही है मेरी आज़ादी का कोई मतलब नही है । स्वप्नदर्शी का आलेख बहुत हद तक सपना की डायरी की में व्यक्त बेचैनी के करणों की ओर जाता है ,सपना के सवाल उसके अकेले के नही है, उसकी बेचैनी उसके अकेले की नही है ;वह सवाल उठाती है अपनी बहुत सी बहनों की ओर से समाज के आगे और हम लाजवाब से खड़े रह जाते है।स्वप्नदर्शी जी के सुझाव पर इस आलेख की महत्वपूर्ण विचारणीय बातें यहाँ प्रस्तुत हैं -
आज़ादी पसन्द लोगों को समाजिक लडाई/प्रक्रिया का हिस्सा बनना चाहिये -
मेरी समझ मे स्वतंत्र होना, गुलाम होना,ये एक व्यक्ति तय नही करता, वरन ये किसी एक समाज के परिपेक्ष्य मे ही व्यक्ति के सन्दर्भ मे कहा जा सकता है। निजी स्तर पर एक सीमित दायरे मे, थोडी व्यक्तिगत आज़ादी हासिल कर लेना, किसी को आज़ाद नही करता। क्योंकि इस व्यक्तिगत आज़ादी की घोषणा, और महत्त्व ही दिखाता है कि आज़ादी इस समाज मे एक अपवाद है।
अपने घर और आफिस से बाहर अगर आप सडक पर निकलती है, और असुरक्षा का भय अगर 24 घंटे मे से एक घंटे भी आपके सर पर है, तो आप सडक पर चलने के लिये आज़ाद नही है।
आप सामाजिक रूप से आज़ाद नही है।अगर आप महिला या किसी जाति विशेष की है, और किसी मन्दिर, मस्जिद मे आपको जाने की मनाही है, तो आप धार्मिक रूप से आज़ाद नही है।
अगर आप गर्भवती महिला है, या सिर्फ महिला है, और आपको इस आधार पर नौकरी नही दी जाति, प्रमोशन नही मिलता, तो समान अवसर पाने के लिये आप आज़ाद नही है।
एक लडकी को अगर पिता की सम्पति मे समान अधिकार नही है, पत्नी अगर अपना सब कुछ दाव पर लगा कर भी, जनम भर घर का काम करती है, पर घर की/पति की सम्म्पति पर अगर उसका अधिकार नही है, तो यहा एक बडा तबका, आर्थिक आज़ादी से बेद्खल है।
ये कतिपय उदाहरण है, जिनसे ये समझा जा सकता है, कि आज़ादी एक व्यक्तिगत क़ुएस्ट से बहुद ज्यादा एक समाजिक क़ुएस्ट है। व्यक्तिगत आज़ादी की अपनी सीमा है, और ये व्यक्ति के साथ ही खतम हो जाती है। इससे समाज के बडे हिस्से को कोई फायदा नही मिलता। इसीलिये सही मायनो मे आज़ादी पसन्द लोगों को एक बडी सामाजिक लडाई/प्रक्रिया का हिस्सा बनना चाहिये। अकसर महिला आज़ादी का प्रश्न एक व्यक्तिगत सवाल मे तब्दील होता हुआ दिखता है। जैसे अगर महिला ने ठान ली तो मुक्त हो जायेगी। जैसे की स्वतंत्रता का समाज से, क़ानून से, सभ्यता से कोई लेना देना ही न हो।
एक बंद कमरे मे बैठा व्यक्ति स्वतंत्र है, अपनी मर्जी से खाने, पहनने, और अपना आचरण करने के लिए ? पर एक सामाजिक स्पेस मे ये स्वतंत्रता व्यक्ति नही समाज तय करता है, धर्म से, क़ानून से, रिवाज़ से, संसाधन मे साझेदारी से।
ये सोचने की बात है की बंद कमरे मे कोई इंसान समाज से कितना स्वतंत्र है? अपनी सुविधा के साधन जो इस कमरे मे है, वों समाज से ही आते है। चोरी का डर भी समाज से ही आता है। और विनिमय शक्ति भी एक सामाजिक शक्ति है। बंद कमरे वाला इंसान भी कितना सामाजिक है ?, इस मायने मे स्त्री की समस्या भी क्या केवल स्त्री की ही है? क्या सिर्फ़ इसका निपटारा व्यक्तिगत स्तर पर हो सकता है? क्या स्त्री की समाज मे दुर्दशा का प्रभाव पुरुष पर नही पड़ता? क्या पुरुष पूरी तरह आजाद है। घर चलाने का जुआ उसके सर भी तो है। एक ख़ास तरह से चाहते न चाहते उसे भी अपने जेंडर के रोल मे फिट बैठना है।
अगर स्त्री आजाद होती तो क्या पुरुष भी कुछ हद तक और ज्यादा आजाद नही होता?
ये एक बड़े फलक के सवाल है, और एक बड़ी ज़मीन, और बड़ा आसमान माँगते है.
- rakhshanda said...
- अगर स्त्री आजाद होती तो क्या पुरुष भी कुछ हद तक और ज्यादा आजाद नही होता? दिल को छू गया ये सवाल , बहुत ही अलग और सोये हुए अहसास को जगाता हुआ.आप ने ठीक कहा कि ओरत की आजादी सिर्फ़ ओरत की व्यक्तिगत आज़ादी नही,पूरे समाज की आज़ादी है,पता नही क्यों जब भी ओर्तों के अधिकार की बात आती है तो पुरूष वर्ग इसे महिलाओं का मामला कह कर दूर हटने की कोशिश करता है,कितने दुःख की बात है ना, कि पुरूष को जन्म देने वाली स्त्री की आज़ादी उसके अधिकार को उसका मामला कहकर टाल दिया जाता है,स्त्री और पुरूष दोनों मिलकर समाज बनाते है तो एक का मामला दूसरे से अलग कैसे हो सकता है ,यदि ओरत आजाद होगी तो उसका पूरा फायेदा पुरूष को भी मिलेगा,पता नही क्यों ,आज तक इतनी छोटी सी बात समाज क्यों नही समझ पाया....
- April 25, 2008 11:08 AM
- आभा said...
- सही कह रही हैं ,सुजाता।
- April 25, 2008 11:30 AM
- अनूप भार्गव said...
- "आज़ादी एक व्यक्तिगत क़ुएस्ट से बहुद ज्यादा एक समाजिक क़ुएस्ट है।" माना ! लेकिन यह सामाजिक कुएस्ट व्यक्तिगत कुएस्ट से ही शुरु होगी । जिसे व्यक्तिगत आज़ादी नही है वह समाज को बदलने के लिये कैसे लड़ेगा । पहले खुद के लिये लड़ें, फ़िर समाज को बदलने के लिये । अगर आजादी का अपहरण ’व्यवस्था’ के स्तर पर हुआ हो तो ज़रूर ’व्यवस्था को बदलने का प्रयास’ पहले और सामूहिक होना चाहिये । लेकिन यहां तो आज़ादी का अपहरण हमारी मानसिकता के द्वारा किया गया है ।
- April 25, 2008 11:57 AM
- pallavi trivedi said...
- हमारा देश सिर्फ राजनैतिक रूप से आजाद है...लेकिन अगर व्यक्तिगत आजादी नहीं है तो सामजिक आजादी कहाँ से आएगी! बात सिर्फ सुरक्षा की नहीं है ,आज भी हम कई तरह की मानसिक बेडियों में जकड़े हुए हैं!बात स्त्री या पुरुष की नहीं है! चलिए ...सड़क पर निर्भय होकर घूमने में हमारी कानून व्यवस्था मदद भी कर दे फिर भी हमारे अंधविश्वास, सड़ी गली सोच ,जिनके गुलाम हमारे मस्तिष्क हैं, उनसे आजादी तो हमें खुद ही पानी होगी! और शिक्षा से बड़ा इसके लिए कोई हथियार नहीं है !
- April 25, 2008 12:20 PM
- रचना said...
- सब को अपनी अपनी मंजिल ख़ुद पानी हैं चलना जरुरी हैं और जरुरी नहीं हैं की एक लाइन मे ही चला जाये महिला की लाइन का मतलब महिला के लिये अलग लाइन नहीं हैं महिला की लाइन का मतलब केवल बंधी बंधाई लाइन { लीक } हैं जिस पर महिला को चलना ही हैं या होता हैं । मेरे लेख की आख़री पंक्ति का मतलब किसी आरक्षण या कानून से नहीं हैं बल्कि घिसी घिसाई मानसिकता से उपर उठ कर चलाना हैं । और ये तो सब मानते हैं की महिला के लिये एक लाइन अभी भी बनी हैं . अनिता जी के लेख बढ़ते कदम मे वह कहती हैं " हम सब को ठोक पीट कर इस समाज की मशीनरी में फ़िट कर ही दिया जाता है मै चाहती हूँ हर महिला को आज़ादी हो अपनी सोच से ये तय करने के लिये वह क्या करना चाहती हैं । और आज़ाद वह होता हैं जो मन से आजाद होता हैं । समाज क्या हैं और कैसे बना हैं ? क्या व्यक्ति समाज को नहीं बनाता ? समाज के नियम देश और काल से बनते बदलते हैं । समाज की सोच समय के साथ बदलती रहती हैं और उस सोच को बदलने मे कुछ व्यकियों का ही हाथ होता हैं । "ये एक बड़े फलक के सवाल है, और एक बड़ी ज़मीन, और बड़ा आसमान माँगते है।" अगर सब अपने अपने हिस्से के सवालो के जवाब खुद खोजे तो उन्हे ज्यादा इंतज़ार नहीं करना होगा की कोई आएगा और उन्हे एक बड़ी जमीन दे जायेगा । समूह बनते हैं काम होते हैं समय लगता हैं , पर जिन्दगी बहुत छोटी हैं और कुछ लोग उस जिन्दगी को जीना चाहते हैं काटना नहीं इस इंतज़ार मे की एक दिन सब ठीक हो जायेगा । समाज मे उन व्यक्तियों की हमेशा आलोचन हुई हैं जो लीक पर नहीं चले , महिला मे किरण बेदी इसकी लिविंग एक्साम्प्ल हैं जिन्होंने लीक से हट कर इस समाज की परवाह किये बिना वो किया जो उन्हे पसंद था फिर चाहे वह वकीलों के अगेन्स्ट कारवाही हो या अपने पति से मन मुटाव या अपना त्याग पत्र । जिस समाज मे औरत की आजादी को ये समझा जाता हैं की वह " आजाद ख्याल यानी स्वछंद हैं " उस समाज से लड़ने बेहतर हैं की हम अपने लेवल पर अपने को आज़ाद करे । महिला होने की वजह से मेरी सामाजिक भागेदारी केवल ५०% हैं और अगर मै उस ५०% मेरे अपने जीवन को सम्पूर्ण और सार्थक बना लूँ और किसी एक को भी और "जगा" सकूं तो हम २ नहीं ११ हैं । हम समाज से नहीं समाज हम से हैं । घुटन से आजादी मिलती नहीं अर्जित की जाती हैं और उसे पाने के लिये पाने से पहले बहुत कुछ खोने के लिये भी तैयार रहना होता हैं । ग़लत को ना स्वीकारना , सच बोलना , ग़लत को जानते हुए अपनी सुविधा अनुसार compromise कर लेना और बाद मे आत्म मंथन कर के समाज मे और समाज से स्वतंत्रता का आवाहन केवल एक बन्धिबंधाई सोच पर चलना होता हैं । http://mujehbhikuchkehnahaen.blogspot.com/
- April 25, 2008 12:24 PM
- सुजाता said...
- @ anoop bhargav अगर आजादी का अपहरण ’व्यवस्था’ के स्तर पर हुआ हो तो ज़रूर ’व्यवस्था को बदलने का प्रयास’ पहले और सामूहिक होना चाहिये । लेकिन यहां तो आज़ादी का अपहरण हमारी मानसिकता के द्वारा किया गया है । ***** अनूप जी ,सही कह रहे हैं । और ध्यान से देखें तो आपकी और स्वप्नदर्शी की बात एक ही मायने रखती है कि संरचना जब तक नही बदलेगी तब तक औरत की आज़ादी एक आध व्यक्ति के स्तर तक ही रहेगी ,उससे उस व्यक्ति का जीवन तो बदलेगा बाली व्यवस्था का क्या होगा जो अभी भी कुछ लोगों से सोचने का जीने की ही सामर्थ्य छीने है । इसलिए व्यक्तिगत स्तर पर जो लड़ाई और अर्जन है उसे एक विस्तार देने का प्रयास करना चाहिये । मेरी व्यक्तिगत आज़ादी बाहर की दुनिया और समाज के व्यापक प्रश्नों से कटने की बजाय उनसे गहरे मे जुड़नी चाहिये ।
- April 25, 2008 2:01 PM
- सुजाता said...
- धन्यवाद स्वप्नदर्शी जी । आपकी बात समझ सकी और ठीक ठीक कह पायी इसकी खुशी है ।
- April 25, 2008 2:24 PM
- Suresh Gupta said...
- मेरे विचार में दफ्तर, गलिआं, समाज आज़ाद नहीं होते. इंसान आज़ाद या गुलाम होता है. यह आज़ादी और गुलामी शरीर और मन दोनों की होती है. पूर्ण आजादी के लिए इंसान शरीर और मन दोनों से आज़ाद होना चाहिए. इस स्थिति को पा लेना ही मुक्ति है. जब इंसान पूरी तरह से ईश्वर का गुलाम हो जाता तब वह पूरी तरह आज़ाद हो जाता है. श्री कृष्ण ने कहा है - तू सब छोड़कर मेरी शरण में आ जा, में तुझे मुक्त कर दूँगा.
- April 25, 2008 6:49 PM
- swapandarshi said...
- The big idea in my mind when I was jotting down these lines was that "does our individual freedom has any meaning beyond us?". and if yes How it can be more productive? and what is a freedom? does it have absolute value ? how the limits of freedom are determined? Many people can write about their perspective of freedom and there can be a process of learning from each other. @यह आज़ादी और गुलामी शरीर और मन दोनों की होती है. पूर्ण आजादी के लिए इंसान शरीर और मन दोनों से आज़ाद होना चाहिए. शरीर से आज़ादी मौत के बाद ही सम्भव है. भक्ति मे डूब जाने से क्या भूख न लगेगी? सांस न लेंगे? क्या शरीर की तमाम प्रक्रिया और उस को जीवीत रखने के उपाय से/संसाधन से भी मुक्ति मिल जायेगी. हरिभजन मे डूबी महिला जो शरीर की धारणा से मुक्त हो गयी है, निर्वस्त्र सडक और गलियो मे घूम सकती है? वस्त्र पहने भी हो तो क्या ब्लात्कार, छेड्छाड से बच सकती है. मेरा लेख इस दुनिया के बाशिन्दो के लिये है. जो सचेत तरीके से समाज को मानवीय बनाने मे यकीन रखते है. और इसी दुनिया की हर बात से मतलब रखते है. इस दुनिया को बेहतर बनाने की आस संजोये है. और उसके लिये छोटे-बडे जिस भी स्तर से उनसे बन पडता है, करते है. भक्त जन इस दुनिया के ब्लोग मे भी रुची रखते है? क्या तन/क्या मन, आप तो सायबर स्पेस से भी मुक्त नही है. भक्त जन माफ करें, इस दिशा और दशा का सम्वाद मेरे बस का नही है.
- April 25, 2008 7:22 PM
- DR.ANURAG ARYA said...
- सवाल अपनी आत्मा को आजाद करने का है ,गरीबी ओर अशिक्षा सबसे बड़े शत्रु है ,यदिआप किसी समाज को शिक्षा देंगे तभी उसका मस्तिष्क सोचने को परिपक्व होगा ,हम जिस समाज मे रहते है उसी समाज से तभी कुछ आशा रख सकते है यदि हम उसे कुछ दे ?सवाल ये उठता है की हम उसे क्या देते है ? कैसे देते है ?एक परिवार समाज की एक कड़ी है ,हमे अपने परिवार को बेहतर ओर उसमे रहने वाले को नेक इन्सान बनाना है ,हमारी आपकी प्रतिबधता केवल लेख लिखने ओर बड़ी बाते करने से खतम नही हो जाती ,हम वास्तिविक जीवन मे उन आचरण का कितना पालन करते है ये मुख्य है . स्त्री की आज़ादी पूरे समाज की आज़ादी है ?आर्थिक निभर्ता जिस दिन स्त्री की जरुरत नही रहेगी उस दिन सही मायने मे वो आजाद होगी . पर एक प्रशन है पुरूष ने आजाद रहकर कौन सा तीर मार लिया ? या पुरूष क्या सही मायने मे आजाद है ?वास्तिविक अर्थो मे पुरूष को आजाद होने की आवश्यकता है अपनी मानसिक गुलामी से .......पर एक बात ओर है इस पुरूष की गुलामी की इस जंजीर पे ताला लगाने मे स्त्री भी अपनी सहायक भूमिका निभाती है.
- April 25, 2008 8:11 PM
- रचना said...
- how ironical its that my post which inspired swapan darshi to make a blog post has no mention at all in the editied version on chokher bali neither by sujata who edited the post nor by swapan darshi who approved the edition where as the swapan darshis orginal post begins with where my psot ends . is there any particular reason of ignoring this in edited version
- April 25, 2008 8:53 PM
- swapandarshi said...
- Dear rachnaa, I have mentioned in my blog about you inspiring post and value of individualism. However, this discussion goes beyond the scope of mere reaction of your post, and my intension is not to attack your post personally, but to ferment a disscussion on the concept of freedom and how free individuals can contribute on wider plane towards achieving a free society or extend this freedom to the less fortunate ones.
- April 25, 2008 9:01 PM
- swapandarshi said...
- Dear Rachna, as you know you have a option to publish full post on Naari, with more reference to your post. Also, This has been a consistant theme in my blog, i want to pinpoint what we can achieve as an individual and what can be achieved collectively by free individuals of a given society. I appreciate everybody for taking their time out for reading this post and for suggestions.
- April 25, 2008 9:08 PM
- रचना said...
- sn ethics is 2 way process and in quest of many things we knowingly or unknowingly ignore it . discussion for wider scope , does it mean we ignore the original post altogether . one may chose to rip open any post but how far its right to ignore the origin of dicussion . its your and sujatas preview altoghether . it has happened many times before and will keep happening quest for something from nothing
- April 25, 2008 9:49 PM
- swapandarshi said...
- Dear sujata, rachna ke lekh ka bhee link de de thanks
- April 25, 2008 10:16 PM
- राजकिशोर said...
- स्वप्नदर्शी और रचना के विचारों से मेरी पूर्ण सहमति हैं। मुक्तिबोध की पंक्ति है -- नहीं मिलते, मुक्ति के रास्ते अकेले में नहीं मिलते।
- April 26, 2008 12:35 AM
- कारवॉं said...
- अगर स्त्री आजाद होती तो क्या पुरुष भी कुछ हद तक और ज्यादा आजाद नही होता? यही सही सवाल है, वस्तुत: स्त्री को गुलाम बना कर पुरूष ने अपनी गुलामी का ही विस्तार किया है। कि जब आप किसी को कहते है कि देखता हूं कि तू आज कैसे यहां से हिलती है मैं भी हूं आज पूरे दिन पहरेदारी में या इसी तरह की बातें तो आप भीपूरे दिन उसकी पहरे दारी के नाम पर वहीखडे रहते हें,उसकी गुलामी करते हुए।आप किसी को जितना गुलाम बनाते हैं ठीक उतने ही गुलाम बन जाते हैं बस फर्क खुशफहमी का होता है निष्कर्ष में नुकसान कमोबेश बराबर होता है वह दिखता आगे पीछे है तो आप किसी को आजादी नहीं दे सकते खुद को ही आजाद करते हैं
- April 26, 2008 2:47 PM
Tuesday, August 9, 2011
आपके लिए आज़ादी का क्या मतलब है?

कुछ ही देर पहले एक सखी का फोन आया। उसने छूटते ही पूछा- तुम्हारे लिए आज़ादी का क्या मतलब है? यकायक मैं कुछ सोच नहीं पाई। कहा- आज़ादी... मतलब आज़ादी!...
कुल मिला कर कुछ गोल-मोल वाक्यांशों में, कुछ समझने और कुछ न समझा पाने के बीच जो कहा, उसका सरल सा मतलब यह निकला कि आजादी यानी बराबरी का हक और उन सब रूढ़ियों से आज़ादी, जो समाज में बराबरी के व्यवहार को रोकती हैं।
पर बात हो जाने के बाद भी लगा कि बात कुछ बन नहीं पाई। दरअसल हमारी पीढ़ी को देश की राजनीतिक आज़ादी देखने को मिली है। मेरे जैसे ठीक-ठाक आर्थिक-सामाजिक-शैक्षिक स्तर के परिवार में पैदा होने वालों को आज़ादी कहां नहीं मिली, यह सोचना पड़ेगा। हाथ में लड्डू की तरह जो भी सहजता से मिलता है, उसके बारे में हम अक्सर सोचते तक नहीं हैं।
और ईमानदारी से कह दूं कि आज सोचती हूं तो लगता है कि परिवार में भी कई तरह के दबावों से मैं बची रही, कुछ करने और काफी कुछ करने की आज़ादी रही। बचपन से नैतिक दबाव के अलावा आम तौर पर कोई रूढ़िवादी सामाजिक दबाव कम ही रहा। रहा भी तो मैंने अपने तईं उसकी परवाह खास नहीं की। समय पर पढ़ाई, आर्थिक निर्भरता, परिवार, समाज..। यानी कुल मिलाकर कोई खास संघर्ष जीवन में नहीं रहा। ऐसे में, जाहिर है, आज़ादी में क्या चाहिए (जैसे- नाश्ते में क्या चाहिए??!!हुंह, हद है संवेदनहीनता की) जैसे सवाल का तत्काल कोई जबाव नहीं सूझ पाया। चुपके से लगे हाथों ये भी कह ही डालूं कि स्त्री-विमर्श में जितना मैं आस-पास देख सोच कर शामिल होती हूं, उससे कहीं कम खुद झेलना पड़ता है। अगर अपने ही विचारों और सामाजिक आदतों की बंदिश न मानूं तो शायद काफी स्तरों पर मैं मुक्त हूं।
तो, कुल मिला कर अब आपके सामने भी यह सवाल रख रही हूं कि आपके लिए आज़ादी का क्या अर्थ है। स्वतंत्रता दिवस करीब है, माहौल में हर तरफ तिरंगे की आहट-सरसराहट है। ऐसे में इस सवाल का जबाव जरूर अपने भीतर खोजें और यहां साझा करें कि आपके लिए आज़ादी क्या है। आपको किस चीज से आज़ादी मिली या मिलेगी कि लगे कि हां, आप आज़ाद हैं?
Sunday, August 7, 2011
पिता का अंतिम संस्कार किया एक बेटी ने
इस लिंक को जरूर देखिये और साथ में देखिये पुत्रियों का जागरूक होना. उत्तर प्रदेश के जनपद जालौन में उरई में पुत्रियों ने अपने पिता का अंतिम संस्कार किया.
प्रदेश के अति बौद्धिक लोगों की दृष्टि में पिछड़े बुन्देलखण्ड के पिछड़े उरई में इस तरह की ये शायद चौथी घटना है जो पिछले एक साल के दौरान सामने आई है.
इन लड़कियों के और इनसे पहले की लड़कियों के द्वारा उठाये गए इस तरह के कदम से कथित महिला सशक्तिकरण वालों को और अभी-अभी बेशर्मी मोर्चा खोलने वालियों को कुछ सीखने को मिलेगा. देखा जाए तो इस तरह की घटनाओं को ही जागरूकता कहते हैं, महिला सशक्तिकरण कहते हैं.
http://epaper.amarujala.com/svww_zoomart.php?Artname=20110806a_002155003&ileft=459&itop=589&zoomRatio=183&AN=20110806a_002155003
(विशेष==इस लिंक के क्लिक करने पर यदि लिख कर आये कि This Operation is not Allowed तो आप उसे OK कर दें. आवश्यक सामग्री दिखने लगेगी)
लिंक एवं चित्र अमर उजाला से साभार ली गई है
Tuesday, August 2, 2011
संविधान में बराबरी, लेकिन कानून में भेदभाव

सबसे ताजा फैसले में कल, 31 जुलाई को न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू और सी के प्रसाद की पीठ ने एक मामले में कहा है कि संतान पैदा न होने की स्थिति में पत्नी को दोष देना और पीड़ित करना गलत है। इस स्थिति में सबसे अच्छा तो यह होगा कि दंपति इलाज कराए और फिर भी बात न बने तो बच्चा गोद ले ले। उन्होंने कहा कि जरूरी नहीं कि संतान के न होने के लिए सिर्फ स्त्री जिम्मेदार है। इसलिए उसे इसका दोषी बताना और इसके लिए प्रताड़ित करना सामंती सोच का परिचायक है।
एक दूसरा मामला 2009 का है, जिसमें कोर्ट को एक कठिन सवाल का सामना करना पड़ा और कानून की रुकावट की वजह से फैसला चाह कर भी स्त्री के हक में नहीं दिया जा सका। 1955 में नारायणी देवी का विवाह दीनदयाल शर्मा से हुआ। तीन महीने में ही जीनदयाल की मृत्यु हो गई। जैसा कि आम तौर पर होता है, ससुराल वालों ने नारायणी को उसके मायके धकेल दिया। यहां उसने काम-काज शुरू किया और अच्छी संपत्ति जुटा ली। उसकी मृत्यु पर उसकी मां ने संपत्ति पर दावा जताया तो नारायणी के पति की बहन का बेटा भी अपना हक जताने मैदान में आ पहुंचा। हिंदू उत्तराधिकार कानून की धारा 15 (1) के तहत किसी स्त्री के मरने पर अगर वसीयत नहीं की गई है तो उसकी संपत्ति का हक पहले उसकी संतान को, संतान की संतान को और फिर पति में बंटता है। अगर इनमें से कोई न हो तो पति के उत्तराधिकारियों का नंबर आता है। उनके बाद कहीं जाकर उस महिला के पिता और माता के उत्तराधिकारियों की बारी आती है।
धारा 15 (2) अ के मुताबिक अगर स्त्री की संतान नहीं है तो उसकी संपत्ति जो उसे माता-पिता से मिली है, वह माता-पिता के उत्तराधिकारियों को और जो पति या ससुराल से उत्तराधिकार में मिली है वह पति के उत्तराधिकारियों में बंटेगी। लेकिन अजीब बात यह है कि दोनों ही स्थितियों में स्त्री की अपनी अर्जित संपत्ति का कहीं कोई जिक्र नहीं है, गुंजाइश नहीं है। यानी माना गया कि स्त्री संपत्ति अर्जित नहीं करती या कर सकती। इसके अलावा हिंदू पुरुष के मरने पर उसकी संपत्ति के मूल को नहीं खोजा जाता। वह संपत्ति का पूरा-पूरा मूल हकदार होता है, चाहे वह कहीं से भी आई हो। लेकिन स्त्री की संपत्ति का मूल कोजा जाना भेदभावपूर्ण है। इसी कारण से नारायणी के मामले में कोर्ट ने कहा कि यह मामला कठिन और पेचीदा है।
हालांकि नारायणी की मां का दावा भावना या संवेदना के बजाए तर्क और समानता, न्याय के सिद्धांतों पर आधारित था। लेकिन कानून इस सहज न्याय के आड़े आ रहा था। आखिर न चाहते हुए भी न्यायाधीश ने फैसला उस भांजे के दावे के हक में दिया, जिसने कभी अपनी मामी से कोई संपर्क नहीं रखा था।
अगर कोई पुरुष बिना वसीयत के अपनी संपत्ति छोड़ जाता है तो उस पुरुष के बच्चों और पत्नी के साथ मां को संपत्ति में बराबर का हिस्सा मिलता है, पर किसी महिला के मरने पर उसकी स्वयं अर्जित संपत्ति पर भी उसके माता-पिता का कोई हक नहीं है। न्याय का तकाज़ा है कि बिना वसीयत की संपत्ति उसके योग्यतम उत्तराधिकारी को मिले, लेकिन कानून ही इसमें रुकावट बनता है। नारायणी के मामले में उसकी मां से ज्यादा योग्य कौन होगा जिसने अपनी बेटी का जीवनपर्यंत ख्याल रखा जबकि उसके कानूनी उत्तराधिकारी का उससे किसी तरह का संपर्क तक नहीं रहा।
संविधान ने देश में स्त्री-पुरुष को बराबर का दर्जा दिया है, पर उसी संविधान के तहत कानून में कई स्तरों पर गैर-बराबरी कायम है। इसके बारे में भी जागरूक होना होगा ताकि बदलाव की बात हो सके।
अनुप्रिया के रेखांकन
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