यह पोस्ट 17 अप्रैल को लगाई गई थी। यह मुद्दा इतना महत्वपूर्ण है कि इसी पोस्ट को दैनिक हिंदुस्तान और जनसत्ता दोनों अखबारों ने अपने 20 अप्रैल के अंकों में संपादकीय पृष्ठों पर लिया। इन दोनों आलेखों के लिंक नीचे दिए जा रहे हैं-
यह कैसा नियम (दैनिक हिंदुस्तान)
कुरीति का दुश्चक्र (जनसत्ता)
आगे आलेख पढ़ना जारी रखें...
अक्षय तृतीया के ठीक हफ्ते भर पहले यह खबर। कायनात की साजिश है। मध्य प्रदेश की रत्नश्री पांडे का 14 साल की छोटी उम्र में बाल विवाह हुआ था। 13 साल तक अपमान, शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना झेलने के बाद आखिर उसको तलाक मिल गया। अपने दो बच्चों का पालन-पोषण भी उसी के जिम्मे है क्योंकि, जाहिर है, पति से उसे कोई गुजारा भत्ता नहीं मिलता।
ऐसी विपरीत स्थितियों से उबर कर
रत्नश्री मध्य प्रदेश की सिविल सेवा परीक्षा पास की है। लेकिन राज्य के बाल विवाह रोकने के नियम के तहत उसे नियुक्ति देने से इनकार कर दिया गया। रत्नश्री दो बार सिविल सेवा परीक्षा पास कर चुकी है, लेकिन दोनों बार उसे नियुक्ति नहीं दी गई। ऐसे में उसने सरकार के इस फैसले के खिलाफ अदालत में गुहार लगाई। मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने भी म. प्र. सिविल सेवा नियम 6 (5) का हवाला देते हुए नियुक्ति न करने को सही ठहराया और कहा कि नियम साफ है कि तय उम्र के पहले विवाह करने वालों (लड़कियों के लिए 18 साल) को सरकारी सेवा में नहीं लिया जाएगा।
सोच कर देखें तो रत्नश्री पहले ही बाल विवाह से पीड़ित थी, जिस पर उसका कोई जोर नहीं था। उस कच्ची उम्र में विवाह के लिए न तो उसकी सहमति/असहमति हो सकती थी और न ही वह उसके खिलाफ कुछ करने, उसे रोकने में ही सक्षम थी। बरसों बाद उस घुटन और यातना से निकल कर जब वह अपनी मेहनत और काबिलियत से इस ऊचाई तक पहुंची, तो कानून उसके सशक्तीकरण के रास्ते में रुकावट बन रहा है। उसे समर्थ बनाने के बजाए कमजोर करने पर उतारू है। यह उसके साथ दोहरा अन्याय है।
मध्यप्रदेश में बाल विवाह रोकने के लिए सरकार ने कई नियम बनाए हैं। ऐसे किसी मामले में शामिल लोगों के लिए कड़ी सजाओं का भी प्रावधान किया है, जो कि इस कुरीति को हटाने में मददगार भी रहे हैं, ऐसा सरकार के आंकड़ों से पता चलता है। सरकार का दावा है कि 2001 से 2010 के बीच बाल विवाह की घटनाओं में 87 फीसदी की कमी आई है।
अच्छी खबर यह है कि इस मामले में रत्नश्री ने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की है जिसमें उसने राज्य सरकार के इस नियम को चुनौती दी है। और इस अपील पर उच्चतम न्यायालय ने मध्य प्रदेश सरकार को एक नोटिस भी भेजा है।
रत्नश्री की हिम्मत की दाद देनी होगी कि वह बाल विवाह जैसी कुरीति के दुश्चक्र से निकल पाई। बाल विवाह करने के दोषी उसके अभिभावक हैं, न कि वह खुद। वह समाज की कुरीति की पीड़ित है, अपराधी नहीं। पीड़ित को अपराधी मानकर इज्जत की जिंदगी जीने से रोकना एक और अपराध कहलाएगा। अपराध ही नहीं, बल्कि मानवाधिकार का हनन। होना तो यह चाहिए कि बाल विवाहित लड़की को पीड़ित मानकर उसे सहारा दिया जाए और उसके पुनर्वास, बेहतर जीवन के लिए भरसक मदद की जाए। तभी औरत सक्षम बनेगी, अपने फैसले ले सकेगी और अपने खिलाफ सामाजिक कुरीतियों का विरोध करेगी, उन्हें दूर करने की कोशिश करेगी।
बाल विवाह का अर्थ सिर्फ एक कानून तोड़ना नहीं बल्कि यह उस लड़की, लड़के और उनकी आने वाली पीढ़ी को शैक्षिक, शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, व्यावसायिक विकास के मौके पाने से रोकना है। महिलाओं के लिए यह खास तौर पर बोझ है क्योंकि उन्हें विवाह के बाद विकास का कोई मौका कम ही मिलता है। तिस पर उनके कमजोर तन-मन पर पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ बिना सोचे-समझे डाल दिया जाता है। और अगर ऐसी उम्र में वह मां बन गई, जो कि शिक्षा, जानकारी की कमी के कारण स्वाभाविक ही है, तब तो उसका जीवन ही खतरे में पड़ सकता है।
24 अप्रैल को फिर अक्षय तृतीया आ रही है, जब देश के हजारों नाबालिग, बचपन के आंगन में बेपरवाह खड़ी, नादान लड़कियां शादी के बंधन में बांध दी जाएंगी, जो उनके लिए किसी गुलामी की जंजीर से कम नहीं होगी। उन सब होने वाली घटनाओं को रोकना एक बड़ा काम होगा। क्यों न शुरुआत यहीं से करें और एक रत्नश्री को न्याय दिलाने के लिए मिल कर कुछ करें।
यह कैसा नियम (दैनिक हिंदुस्तान)
कुरीति का दुश्चक्र (जनसत्ता)
आगे आलेख पढ़ना जारी रखें...
अक्षय तृतीया के ठीक हफ्ते भर पहले यह खबर। कायनात की साजिश है। मध्य प्रदेश की रत्नश्री पांडे का 14 साल की छोटी उम्र में बाल विवाह हुआ था। 13 साल तक अपमान, शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना झेलने के बाद आखिर उसको तलाक मिल गया। अपने दो बच्चों का पालन-पोषण भी उसी के जिम्मे है क्योंकि, जाहिर है, पति से उसे कोई गुजारा भत्ता नहीं मिलता।
ऐसी विपरीत स्थितियों से उबर कर
रत्नश्री मध्य प्रदेश की सिविल सेवा परीक्षा पास की है। लेकिन राज्य के बाल विवाह रोकने के नियम के तहत उसे नियुक्ति देने से इनकार कर दिया गया। रत्नश्री दो बार सिविल सेवा परीक्षा पास कर चुकी है, लेकिन दोनों बार उसे नियुक्ति नहीं दी गई। ऐसे में उसने सरकार के इस फैसले के खिलाफ अदालत में गुहार लगाई। मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने भी म. प्र. सिविल सेवा नियम 6 (5) का हवाला देते हुए नियुक्ति न करने को सही ठहराया और कहा कि नियम साफ है कि तय उम्र के पहले विवाह करने वालों (लड़कियों के लिए 18 साल) को सरकारी सेवा में नहीं लिया जाएगा।
सोच कर देखें तो रत्नश्री पहले ही बाल विवाह से पीड़ित थी, जिस पर उसका कोई जोर नहीं था। उस कच्ची उम्र में विवाह के लिए न तो उसकी सहमति/असहमति हो सकती थी और न ही वह उसके खिलाफ कुछ करने, उसे रोकने में ही सक्षम थी। बरसों बाद उस घुटन और यातना से निकल कर जब वह अपनी मेहनत और काबिलियत से इस ऊचाई तक पहुंची, तो कानून उसके सशक्तीकरण के रास्ते में रुकावट बन रहा है। उसे समर्थ बनाने के बजाए कमजोर करने पर उतारू है। यह उसके साथ दोहरा अन्याय है।
मध्यप्रदेश में बाल विवाह रोकने के लिए सरकार ने कई नियम बनाए हैं। ऐसे किसी मामले में शामिल लोगों के लिए कड़ी सजाओं का भी प्रावधान किया है, जो कि इस कुरीति को हटाने में मददगार भी रहे हैं, ऐसा सरकार के आंकड़ों से पता चलता है। सरकार का दावा है कि 2001 से 2010 के बीच बाल विवाह की घटनाओं में 87 फीसदी की कमी आई है।
अच्छी खबर यह है कि इस मामले में रत्नश्री ने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की है जिसमें उसने राज्य सरकार के इस नियम को चुनौती दी है। और इस अपील पर उच्चतम न्यायालय ने मध्य प्रदेश सरकार को एक नोटिस भी भेजा है।
रत्नश्री की हिम्मत की दाद देनी होगी कि वह बाल विवाह जैसी कुरीति के दुश्चक्र से निकल पाई। बाल विवाह करने के दोषी उसके अभिभावक हैं, न कि वह खुद। वह समाज की कुरीति की पीड़ित है, अपराधी नहीं। पीड़ित को अपराधी मानकर इज्जत की जिंदगी जीने से रोकना एक और अपराध कहलाएगा। अपराध ही नहीं, बल्कि मानवाधिकार का हनन। होना तो यह चाहिए कि बाल विवाहित लड़की को पीड़ित मानकर उसे सहारा दिया जाए और उसके पुनर्वास, बेहतर जीवन के लिए भरसक मदद की जाए। तभी औरत सक्षम बनेगी, अपने फैसले ले सकेगी और अपने खिलाफ सामाजिक कुरीतियों का विरोध करेगी, उन्हें दूर करने की कोशिश करेगी।
बाल विवाह का अर्थ सिर्फ एक कानून तोड़ना नहीं बल्कि यह उस लड़की, लड़के और उनकी आने वाली पीढ़ी को शैक्षिक, शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, व्यावसायिक विकास के मौके पाने से रोकना है। महिलाओं के लिए यह खास तौर पर बोझ है क्योंकि उन्हें विवाह के बाद विकास का कोई मौका कम ही मिलता है। तिस पर उनके कमजोर तन-मन पर पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ बिना सोचे-समझे डाल दिया जाता है। और अगर ऐसी उम्र में वह मां बन गई, जो कि शिक्षा, जानकारी की कमी के कारण स्वाभाविक ही है, तब तो उसका जीवन ही खतरे में पड़ सकता है।
24 अप्रैल को फिर अक्षय तृतीया आ रही है, जब देश के हजारों नाबालिग, बचपन के आंगन में बेपरवाह खड़ी, नादान लड़कियां शादी के बंधन में बांध दी जाएंगी, जो उनके लिए किसी गुलामी की जंजीर से कम नहीं होगी। उन सब होने वाली घटनाओं को रोकना एक बड़ा काम होगा। क्यों न शुरुआत यहीं से करें और एक रत्नश्री को न्याय दिलाने के लिए मिल कर कुछ करें।
13 comments:
समाज में जागरूकता लाने की ज़रूरत है...जब तक समाज जागरूक नहीं होगा...बाल विवाह प्रथा पर रोक लगाना आसान नहीं है...इस मामले में क़ानून को भी सख्ती बरतनी होगी...
ये तो इस लडकी के साथ बहुत गलत हुआ.जज को अपने विवेक से काम लेना चाहिए था.बाल विवाह को रोकने के लिए कडे कदम उठाए जाने चाहिए .राजस्थान में संभवत: सर्वाधिक बाल विवाह होते हैं हालाँकि कुछ लोग ये तर्क भी देते हैं कि यहाँ बचपन में विवाह भले ही कर दिया जाता हो लेकिन लडकी का गौना तो बालिग होने के बाद ही किया जाता हैं.
अब राजस्थान में बाल विवाह रुकवाने के लिए ये नियम लागू कर दिया गया हैं कि विवाह के समय शादी के कार्डों पर वर वधू की जन्मतिथि भी अंकित की जानी जरूरी है अन्यथा प्रिंटिंग प्रेस वाले के खिलाफ भी कानूनी कार्रवाही की जाएगी और इस नियम का असर अभी से दिखने लगा हैं.पुलिस के पास कुछ शिकायतें आई हैं.
सचमुच यह कैसा क़ानून है..जिनका बाल विवाह किया जाता है..उनके अभिभावकों को दोषी ठहराया जाना चाहिए ना कि उस लड़के या लड़की को...
अब उच्चतम न्यायलय से ही न्याय की आशा है...और यह शीघ्रातिशीघ्र ही हो... रत्नश्री पहले ही काफी झेल चुकी है
सामाजिक कार्यकर्ताओ से मदद मिलनी चाहिए ! कितना अच्छा होता जो वह जॉब पा जाती ! बाल विवाह निंदनीय और सिविल परीक्षा में पास होना सराहनीय कार्य !
बड़ा विचित्र प्रावधान है। जिसकी सज़ा उन मां-बाप को मिलनी चाहिए थी, उसकी सज़ा बच्ची को मिल रही है। आज तक मैंने कोई भी ऐसा बाल-विवाह न देखा, न सुना जिसमें किसी बच्चे ने अपने मन से विवाह किया हो। यह तो अभिभावक उस पर थोपते हैं।
यह मामला तो,लगता है, मानवीयसंवेदना के साथदेखा ही नहीं जा रहा। वरना, बाल विवाह के खिलाफ कानून बनाने और सख्ती से लागू करने वाली सरकार क्या यह नहीं देख पा रही है कि उस पीड़ित को उसका दायदेना न सिर्फ न्यपूर्ण और मानवीय है, बल्कि बाल-विवाह के खिलाफ एक मजबूत कदम है और भविष्य के लिए उदाहरण भी।
फेसबुक पेज पर आई कुछ टिप्पणियां-
Madhu Singh, Prithvi Parihar and 3 others like this.
Sushma Naithani sahi baat! gajab ka kaanoon hai?
17 hours ago · Unlike · 1
Dilip C Mandal victim ko apradhi batane wala kanoon.
17 hours ago · Unlike · 1
Lakshmikant Sharma Yes, absolutely true.The woman has been suffering maniifold for no fault of her.When will the society and the system change?
Anuradha Mandal Why can't the law be seen and interpreted with a human rather than mechanical vision? I wonder, what the MPpeople doing?
रत्नश्री के साथ अन्याय हो रहा है। यह कानून बनाने वालों का उद्देश्य तो बाल विवाह रोकना ही था किन्तु यहाँ पासा उल्टा पड़ गया। पीड़िता को ही सजा मिल रही है। यह सजा तो उनके माता पिता को मिलनी चाहिए या उनके समाज को.
घुघूती बासूती
कानूनों में बदलाव के लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति हो तो बहुत कुछ हो सकता है
सजा १४ सालकी लडकी को नही उसके अभिभावकों को मिलनी चाहिये । ये कैसा कानून है पीडिता को ही दंड मिल रहा है ।
अधिकांश स्त्री सम्बन्धित मामलों मे यही होता है आशा जी, पीड़िता को ही दण्ड मिलता है /प्रताड़्त किया जाता है,उसे ही अपनी निर्दोषता साबित करनी होती है।यह सामाज और कानून व्यवस्था की विसंगति अरविन्द जैन की पुस्तक "औरत होने की सज़ा" मे बखूबी दिखाई गयी है।
poorntah sahmat hun aapse..kanun peedito ki raksha ke liye hote hai..unhe aur peedit karne ke liye nahi..aur aisa koi bhi kanun jo vyahvarik nhi uska badla jana bahut jaruri hai..
जागृति लानी ही होगी ........ समाज तो है ही चेतना शून्य लेकिन कानून ही अगर निर्दयी हो तो स्तिथि ऐसी ही होती है .......
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