सब कुछ
तो देखती सुनती हो तुम
पर जुबां
बंद ही रहती है
या फिर
खुलती है तो सिर्फ
सहमती
जताने के लिये ।
कहने को
तो स्वतंत्र हो तुम,
पर अपने
धन पर भी तुम्हारा अधिकार कहां है,
कभी सीधे
शब्दों में तो कभी भावनात्मक छल से
यह भी
हथिया लिया जाता है ।
तन पर
भी वश कहां है तुम्हारा,
खटती तो
हो ही,
पर तुम्हारी
इच्छा अनिच्छा को कौन समझता है
और तो
और तुम्हारी कोख भी तुम्हारी अपनी कहाँ,
लडके पैदा
करने की मशीन बनाना चाहते हैं तुम्हे
ये परिवार
ये समाज सब ।
और मन
पर अधिकार भी छूटता ही चला जाता है
जब उसके
पंख ही कतर दिये जाते हैं या तुम खुद ही बांध देती हो उन्हे ।
परिवार
के लिये सोचना कर्तव्य निभाना, तुम्हारी जिम्मेदारी है
औरों का
तो सिर्फ हक होता है । तुम अपना समय ,तन, मन, धन, सब दो.........
विनम्र
होना अच्छा है पर तब, जब अपने हक ना कुचले जायें ।
और ये
जो तथाकथित स्वतंत्र नारियां तुम्हे दिखती हैं, आधुनिक कहलाती हैं,
ये भी
शिकार हैं पुरुष के अहम का । ज्यादा से ज्यादा तन खुला छोडने के
लिये मजबूर
करते ये फैशन के चलन ।
स्वतंत्रता
के नाम पर रात बेरात की पार्टियां ।
और स्त्रीत्व
का कुचला जाना । उसमें झेलना तो तुम्हे ही है ।
लिव इन
के नाम पर अपना सब कुछ मुफ्त में न्योछावर कर देती हो तुम ,
और वो
खत्म हो जाने पर टूटने की नियती भी तुम्हारी है ।
ये जो
बडे बडे भाषण देती हैं स्त्री मुक्ति के लिये,
जानो कि
कितनी मुक्त हैं ये, या कितनी खुश ।
स्वतंत्र
होना अच्छा है, पर स्वतंत्रता सोच में होनी चाहिये बिना किसी फैशन -चलन
या तथा कथित दोस्तों के दबाव के ।
तुम कर
सकती हो कि स्वतंत्र तो रहो पर उध्दत नही ।
अपना हक
भी लो पर दूसरों का कुचले बिना ।
अपने चुनाव
खुद करो पर सामंजस्य बिठा कर ।
आखिर एक
दूसरे के साथ ही चलना है हमे ।
5 comments:
sundar rachana prastuti...
बहुत उमदा .........
कृ्पा कर एक बार यहाँ भी आएं
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सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति . हार्दिक आभार हम हिंदी चिट्ठाकार हैं
very thoughtful...
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