वह
रोज़ मेरे ज़हन
में
शबनम बनके झरा
करती है, चुपचाप..
स्मृतियों की
हरी घास पर
न जाने कब आकर
चिपक जाती है
लिपट जाती है
मुझसे
मुझे बचा लो...
नहीं कर पाती
मैं कुछ.
क़तरा-क़तरा साफ
शफ़्फ़ाक़
शबनम की बूंदों
सी पारदर्शी वह
सचमुच लिपट जाती
है मुझसे और
रोज़-रोज़ सूरज
के साथ आने वाले घाम में
न जाने कब भाप
बन के उड़ जाती है.
नीलोफ़र
जी हां यही नाम
था उसका.
नील के रंग की
तरह सुन्दर और स्पष्ट थी वह.
बड़ी साफ थी
उसकी समझ
हां के लिए हां
और न के लिए न.
हमारी तरह
घालमेल नहीं करती थी वह
न तो विचारों
में, न ही जीवन
में........
अन्तरराष्ट्रीय
राजनीति पर बहस करती थी वह
ईराक पर अमरीका
के हमले को वहशियाना करार दिया था उसने
उस ज़माने में
बुश सीनियर राष्ट्रपति हुआ करता था अमरीका का.
रंगों से
कलाकृतियां उकेरती थी वह
जिस भी दीवार पर
हाथ फेर देती, जगमगाने लगती...
ऐसी कलाकार थी
वह
उसके हाथों का
हुनर
बागीचे में फूल
बन कर खिलता था.
जब वह चलती तो
क्यारी की
गुलदाउदियां उसे आवाज़ लगातीं
नीलोफर.....नीलोफर.......नीलोफर...........
फिर कहां चूक
हुयी...?
क्या हुआ सरे
राह...?
क्यों पगला गयी
नीलोफर......?
ख़लाओं में
गुलदाउदियां
आज भी आवाज़ दे
रही हैं
नीलोफर.....नीलोफर....नीलोफर........
पर कहां रही अब
वो नीलोफर......
उसके कमरे की
दीवारों में एक भी तस्वीर नहीं है आज
उसके बागीचे
फूलों से भरे हुए नहीं हैं आज.....
कमरे की एकमात्र
खिड़की से
अपनी बड़ी-बड़ी
सूनी आंखों से वह दूर उफ़क में देखा करती है
मानों सुनना
चाहती हो गुलदाउदियांे की आवाज़
नीलोफर......नीलोफर..............नीलोफर.................
क्या आप बता
सकते हैं
क्यांे पागल हो
गयी नीलोफर?
उसके लिए जो घर
बसाया गया था
वह उसे रास नहीं
आया क्या?
या फिर उसका
हमसफर?....
पता
नहीं.......क्या हुआ....
उसने कभी किसी
से कुछ कहा नहीं..........
कुछ भी नहीं.
शायद यहीं गलती
हो गयी हमसे....
हम उसका मौन
नहीं पढ़ पाए शायद........
सबने समझा था कि
आखिर है तो वह भी एक औरत
ढल
जाएगी....खांचे में............
पर
नहीं..........
उसने मौन को
अपने विद्रोह की आवाज़ बना लिया
और घुट
गयी...........
चीखी क्यों नहीं
थी वह?
ज़ोर से
चिल्लायी क्यों नहीं थी वह?....
प्रतिरोध क्यांे
नहीं किया उसने?
शायद इसीलिए
पागल हो गयी मेरी नीलोफर..........
क्यांेकि अपने
हिस्से का चीखी नहीं वह...........
लड़ी नहीं
वह......
इसीलिए खामोश हो
गयी मेरी नीलोफर.
दजला-फ़रात,
नील, ह्वांगहो, सिंधु
मिसीसिपी,
वोल्गा से लेकर
गंगा तक
तुम्हें कहीं
मिल जाए मेरी नीलोफर...
तो ज़ोर से
झकझोरना उसे....
कहना उसे कि
चिल्लाओ.......इतनी
ज़ोर से चिल्लाओ....
कि सारी नदियां
मचल उट्ठे....
आकुल हो उठे
समन्दर कि ये आवाज़ कहां से आयी....
कि ब्रह्माण्ड
में हो जाए सुराख़
कि डोलने लगें
सत्ताएं.....
और ये
गुलदाउदियां झूम-झूम के देने लगें आवाज़
नीलोफर.........नीलोफर...........नीलोफर............
7 comments:
बेहद सुंदर, हर नारी के दिल को छू जायेगी ये नीलोफर ।
touching poem...
सुंदर रचना...बहुत बहुत बधाई...
रचना बहुत ही बेहतरीन है,सराहनीय है ...
बहुत सुन्दर कविता है आशा जी । आप मेरी रचनाओं को पढ कर मुझे उत्साहित करतीं हैं धन्यवाद ।
सुंदर रचना
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