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कहानी के इतिहास में उसने कहा था के बाद शेखर जोशी विरचित कोसी का घटवार अपनी तरह की अलग और विशेष प्रेमकहानी है।
फौजी
जवान गुंसाई और लछमा की कहानी, जहां सांसारिक
अर्थ में प्रेम परास्त होता है। बड़े-बूढ़ों की जिद लछमा का विवाह कहीं और करवा
देती है, क्योंकि गुंसाई अनाथ है और फौज में उसकी जान का भी
भरोसा नहीं।1 कहानी बताती है कि लछमा का पति
रामसिंह भी फौज में है पर उसके पीछे भरापूरा परिवार है।
यह
मनोविज्ञान कि अकेले आदमी को ब्याह कर बेटी संकट में पड़ सकती है और उधर दूसरे
आदमी पर संकट आया भी तो परिवार देखभाल के लिए है, खोखला निकलता है। रामसिंह नहीं रहता और क्योंकि मनोविज्ञान जटिल विषयवस्तु है, रामसिंह के जेठ-जिठानी वाले परिवार का भी एक मनोविज्ञान है, जो विधवा लछमा और बच्चे को खुद पर बोझ और ज़मीन-जायदाद पर अवांछित अधिकारी
मानता है।
लछमा
मायके लौट आती है पर वहां भी सभी कुछ नष्टप्राय है। उधर गुंसाई फौज पन्द्रह साल की
सेवा समाप्त कर गांव लौट आया है और कुछ मन लगा रहे इसके लिए उसे गेंहू पीसने का घट/पनचक्की
लगा ली है। यहां दोनों की पन्द्रह साल बाद दोबारा एक उदासीन-सी मुलाकात होती है।
लछमा
ने कभी आंचलिक ग्रामदेवता गंगनाथज्यू की कसम लेकर कहा था कि गुंसाई जैसा कहेगा वैसा वह करेगी,
पर उसने किया नहीं। ये दोनों ही पात्र एक जटिल मनोवैज्ञानिक सम्बन्ध
और तनाव में जी रहे हैं, एक-दूसरे के प्रति भी और समाज के
प्रति भी। एक ओर समाज की तथाकथित मर्यादा निभाने की मानसिक चुनौती है दूसरी ओर
अपने गोपन प्रेम का बहुत पीड़ा देनेवाला अहसास। मर्यादा रह जाती है लेकिन क्या
प्रेम मर जाता है ? इसे समझना बहुत कठिन है। प्रेम भी मरता
नहीं, समाज तो बाहर है पर मन के कोने-अंतरे भी उसी प्रेम का
घर हैं। गुंसाई उलाहना नहीं दे रहा पर उसे लगता है कि गंगनाथ की झूटी हो चुकी कसम
से ही लछमा का अनिष्ट हुआ है, यह एक परम्परागत ग्रामीण
मनोविज्ञान है, जिसमें देवताओं की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है
- इसी के चलते वो कहानी के अंत में बच्चे के साथ जाती हुई लछमा को सलाह देता है -
‘‘कभी चार पैसे जुड़ जाएं तो
गंगनाथ का जागर लगाकर भूल-चूक की माफी मांग लेना। पूत-परिवार वालों को देवी-देवता
के कोप से बचा रहना चाहिए।’’ 2
गुंसाई
ने लछमा के बच्चे को देखा है, वह खुद तो
अकेला है पर लछमा पूत-परिवार वाली है, उसे इसी बात की चिंता
है कि अब लछमा की झूटी पड़ गई कसम का कोप बच्चे पर न हो - यह गुंसाई के मनोजगत में
लछमा के प्रति उसके प्रेम का ही विस्तार है।
प्रेम
का सरल समीकरण तो यह कहता है कि अभी देर नहीं हुई है,
एकाकी जीवन जी रहा गुंसाई और लछमा एक हो जाएं तो दोनों का जीवन संवर
सकता है, पर सामाजिक बंधनों में जो मनोसंसार निर्मित होता है,
वह जटिलता की ओर जाता है। प्रेम मनोविज्ञान की दृष्टि से वैसे भी
बहुआयामी विषय है, जिसकी दिशा व्यक्ति-व्यक्ति में बदल जाती
है। अब कहानीकार का मनोविज्ञान भी देखें कि उन्होंने अपने वामपंथी संस्कारों और
प्रशिक्षण के बावजूद इस कहानी के परिवेश और यथार्थ की मौलिकता से समझौता नहीं किया
है, उसे जस का तस रहने दिया है।
प्रेम
की वर्जना बनी रही है। नायक-नायिका के उत्तरजीवन में प्रेम सुधार कर सकता है,
उसकी उदासीनता और विवशता को तोड़ कर उसे जीवन्त बना सकता है,
लेकिन ऐसा कुछ नहीं घटता। इस कहानी में ‘‘कुछ
शाश्वत समस्याओं को उठाते हुए आंचलिक मूल्य-मान्यताओं की सीमा का भी ध्यान रखा गया
है, अन्यथा कोसी का घटवार में गहरे रोमानी स्पर्श के स्तर पर
लछमा और गुंसाई घटवार का पुनर्मिलन इतना नीरस और उद्देश्यहीन न होता।’’3
यहां परम्परा से कोई विद्रोह सामने नहीं आता है, जीवन
अपने ढर्रे पर चलता है। इसे क्या द्वन्द्व की कसौटी पर कहानी की असफलता माना जाएगा?
नहीं, यह कहानी
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लेखक के उन दिनों की तस्वीर जब उन्होंने कोसी का घटवार लिखी |
विषयवस्तु से अपने व्यवहार से
पाठकों में परम्परा और रूढि़यों के प्रति द्वन्द्व जगाती हुई नवीनता के स्वीकार का
आग्रह प्रस्तुत करती है। द्वन्द्व कहानी में नहीं, पाठक के
मन में चलता है - परम्परा से विद्रोह भी कहानी में नहीं, पाठक
के मन में घटता है। कहानी में वर्णित प्रेम की असफलता द्वन्द्व की विशिष्टता के इस
स्तर पर कहानी की सफलता में बदल जाती है।
कहानी
के अंत में टीस बनी रहती है कि लछमा तो स्त्री है, उसे लोक में व्याप्त आचार-व्यवहार और लोक-लाज से भय अधिक है लेकिन गुंसाई
एक पुरुष है, उसे आगे बढ़कर लछमा को अपनाना चाहिए। प्रश्न
उसी यथार्थगत मौलिकता का बच जाता है, जिसकी रक्षा प्रेमचंद
ने कफन में बुधिया की दारूण मौत से की थी और शेखर जोशी की इस कहानी में उन्होंने
उसकी रक्षा लछमा और गुसाई के प्रेम की मौत से की है।
यह
हमारा सामाजिक यथार्थ है, जिसकी कीमत कभी एक
स्त्री की मौत से चुकाई जाती है तो कभी उसके प्रेम की मौत से, पर यही यथार्थ है, इसे कहानी में नहीं, समाज में बदलना होगा। कहानीकार
तो बस संकेत कर सकता है कि यह यथार्थ है और गलत है, इसे ऐसा
नहीं होना चाहिए, इसमें बदलाव की आवश्यकता है।
***
1-कोसी का घटवार, वही, प्रतिमान प्रकाशन, 952-मालवीय नगर, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण 1988
पृ0 62
पृ0 62
2-वही, पृ0 74
3 -पांडेय,
बालकृष्ण, मेरा पहाड: असहमति-अस्वीकार की
कहानियां, पुस्तक समीक्षा, साहित्य
सम्पर्क,
अंक -4, जुलाई 1992
अंक -4, जुलाई 1992
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सीमा मौर्य कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल से नई कहानी पर शोध कर रही हैं। सम्पर्क : द्वारा
प्रो.नीरजा टंडन,हिंदी विभाग, डी.एस.बी.परिसर, नैनीताल-263 002 (उत्तराखंड)
प्रो.नीरजा टंडन,हिंदी विभाग, डी.एस.बी.परिसर, नैनीताल-263 002 (उत्तराखंड)