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आज चोखेरबाली पर तुषार धवल सिंह की कविता शाया कर रही हूँ । तुषार की यह कविता स्त्री काया और मन मे प्रवेश करके स्त्री हो पाने और अभिव्यक्त कर पाने के लिहाज़ से अपने उद्देश्य मे जितनी सुंदर है उतना ही संशय से मन को भर देती है। क्या सम्भव है पुरुष के लिए स्त्री हो पाना? एक पुरुष के लिए अपने पुरखों के पापों का एक तरह से आत्मस्वीकार सरल तो नही! सौंदर्य को स्त्री का कर्तव्य बना देना, महानता और दैवीयता की आड़ मे पितृसत्ता द्वारा अपनी सुविधाओं का एक सुरक्षित लोक निर्मित करना और इतिहास का जानबूझ कर स्त्री को अनदेखा कर देना वे पाप हैं जिन्होने आज स्त्री-पुरुष के बीच एक गहरी खाई बना दी है। जिन्हे साथी होना था वे अलग अलग लोक के वासी हो गए। इसकी पहचान के रूप मे तुषार की कविता महत्वपूर्ण है। लेकिन इस युक्ति की भी अपनी कुछ सीमाएँ हैं। ऐसी युक्तियाँ अक्सर सिर्फ उतना प्रयास भर है रह जाती है कि जितना स्टेज पर अभिनय करते व्यक्ति को किसी चरित्र मे डूबना होता है। अभिनय भी सफलता –असफलता और उसके बीच की कई सम्भावनाओं से भरा होता है। इसलिए जब जब कविता में स्त्री की काया में समाया पुरुष बीच बीच मे झाँक जाता है तब कविता मे अंतर्विरोध सुनाई देता है , स्त्री-पुरुष दोनो दिखाई देने लगते हैं । तुषार जिस स्त्री को गढते हैं इस कविता में वह मुख्यधारा के इतिहास के बरक्स अपना समांतर पाठ रचना चाहती है । मुख्यधाराई इतिहास स्त्री की कहानी पर या तो चुप रहा है या उसे अपने तरीके से कहा है। यही वजह है कि दी गई मुक्तियाँ मुक्त नही कर पातीं । वे मुक्तियाँ भी परतंत्र है। इसलिए भी कहना चाहूंगी कि तुषार भी अपनी स्त्री गढ रहे हैं ।उनकी स्त्री पितृसत्ता की बनाई परिभाषाओं , मानदण्डों और व्यवस्था को नकारती तो है लेकिन इसके लिए नई भाषा नही गढ पाती। बल्कि स्त्रीविरोधी भाषा मे वह स्त्री का पक्ष रखने की असहाय कोशिश करती है। यही कारण है कि दमयंती कहती है –
आज चोखेरबाली पर तुषार धवल सिंह की कविता शाया कर रही हूँ । तुषार की यह कविता स्त्री काया और मन मे प्रवेश करके स्त्री हो पाने और अभिव्यक्त कर पाने के लिहाज़ से अपने उद्देश्य मे जितनी सुंदर है उतना ही संशय से मन को भर देती है। क्या सम्भव है पुरुष के लिए स्त्री हो पाना? एक पुरुष के लिए अपने पुरखों के पापों का एक तरह से आत्मस्वीकार सरल तो नही! सौंदर्य को स्त्री का कर्तव्य बना देना, महानता और दैवीयता की आड़ मे पितृसत्ता द्वारा अपनी सुविधाओं का एक सुरक्षित लोक निर्मित करना और इतिहास का जानबूझ कर स्त्री को अनदेखा कर देना वे पाप हैं जिन्होने आज स्त्री-पुरुष के बीच एक गहरी खाई बना दी है। जिन्हे साथी होना था वे अलग अलग लोक के वासी हो गए। इसकी पहचान के रूप मे तुषार की कविता महत्वपूर्ण है। लेकिन इस युक्ति की भी अपनी कुछ सीमाएँ हैं। ऐसी युक्तियाँ अक्सर सिर्फ उतना प्रयास भर है रह जाती है कि जितना स्टेज पर अभिनय करते व्यक्ति को किसी चरित्र मे डूबना होता है। अभिनय भी सफलता –असफलता और उसके बीच की कई सम्भावनाओं से भरा होता है। इसलिए जब जब कविता में स्त्री की काया में समाया पुरुष बीच बीच मे झाँक जाता है तब कविता मे अंतर्विरोध सुनाई देता है , स्त्री-पुरुष दोनो दिखाई देने लगते हैं । तुषार जिस स्त्री को गढते हैं इस कविता में वह मुख्यधारा के इतिहास के बरक्स अपना समांतर पाठ रचना चाहती है । मुख्यधाराई इतिहास स्त्री की कहानी पर या तो चुप रहा है या उसे अपने तरीके से कहा है। यही वजह है कि दी गई मुक्तियाँ मुक्त नही कर पातीं । वे मुक्तियाँ भी परतंत्र है। इसलिए भी कहना चाहूंगी कि तुषार भी अपनी स्त्री गढ रहे हैं ।उनकी स्त्री पितृसत्ता की बनाई परिभाषाओं , मानदण्डों और व्यवस्था को नकारती तो है लेकिन इसके लिए नई भाषा नही गढ पाती। बल्कि स्त्रीविरोधी भाषा मे वह स्त्री का पक्ष रखने की असहाय कोशिश करती है। यही कारण है कि दमयंती कहती है –
मेरी मुट्ठी मे है डिम्ब वीर्य और अन्न
यह पंक्ति एक अभिमान के साथ दो तीन बार कविता में आती है और तमाम
अच्छी बातों के बावजूद यह
अब तक के स्त्री विमर्श को ध्वस्त करने वाली है। अन्नपूर्णा होना, माँ होना , सृजन कर सकना और ऐसे ही सारे महान काम जिनका महिमामण्डन पितृसत्तात्मक
समाज सदियों से स्त्री मुक्ति का सवाल उठाने पर करता है यह वही है। इस महिमामण्डन
के बोझ तले दबी स्त्री जाने कैसी मुक्तिकी कामना करना
चाहती है। और यह कोई स्त्री स्वयम भी लिख रही होती तो
भी वह किसी पुरुष की ही भाषा होती। जैसे मुक्तियाँ दान मे मिली
नही होतीं ऐसे ही मुक्ति की
बात भी उधारी भाषा मे नही
की जा सकती।
यह वो बराबरी नही जो काम्य है। किसी की भी मुट्ठी मे बंधा हुआ हो
ही क्यों सब कुछ ? सृजन की सारी ज़िम्मेदारी
खुद पर होने का दम्भ... ?? इससे बाहर आने की कोशिश
कविता शुरुआत मे तो करती है लेकिन फिर बह जाती
है उसी परिचित शब्दावली में जो अब तक स्त्री को व्याख्यायित करती आई
है। अंत मे कविता फिर उसी दैवीयता और महानता से मुक्ति की बात करने लगती है जिसका ऊपर अनजाने समर्थन कर आई है। इस भाषा मे स्त्री मुक्ति
की बात करने का एक और खतरा है स्त्री की यौनिकता का विरूपित हो जाना। स्तनों को
स्त्री भी सदा मातृत्व से जोडकर नही देखती। उसके लिए
भी अपना यह अंग अवसर आने पर अपनी सेक्शुएलिटी से ,अपने सौंदर्य से जुड़ा
होता है इसलिए हर बार जब स्त्री वक्ष की ओर देखा जाए तो पौरुष को अपना
शिशुपन याद आए यह स्त्री सेक्सुएलिटी को अपने हिसाब से व्याख्यायित करने की कोशिश
है। सबको माँ –बहन समझो वाला तर्क इससे कम मिलता जुलता नही है। स्तनों के प्रति विशेष आसक्ति जो है पुरुष की और उसके
फलस्वरूप जो कष्ट स्त्री को घर और बाहर झेलने होते हैं उसपर चोट किया जाना बेहद
ज़रूरी है लेकिन यह उसका तर्क कतई नही है। अगर है तो दान मे मिला है। सेक्शुएलिटी
का अपना एक लम्बा इतिहास है।इसलिए यह आदिम कुण्ठा नही है सभ्यता के विकास के साथ
पुरुष में आई है। जो आदिम समाज आज भी नग्न रहते हैं
उनमे यह विकृति नही मिलेगी। कुछ बातो का दोहराव कविता मे
खलता है। शिल्प काव्यात्मक लय मे अक्सर बाधा बनता है। बहुत कुछ कहने
की हडबड मे जैसे कवि भूल
जाता हो कि
गद्य लिखता है या
कविता। कुछ पंक्तियाँ बेहद सुंदर हैं !
जैसे –
मेरी छत
को जिन हथेलियों ने उठा रखा था ऊँचाई पर
उनके
नाखून मेरी पिण्डलियों में धँसे हुए थे और मैं बोल नहीं पाई
इतिहास के वर्तमान मर्तबान में अपने केश धोकर सब सवालों और जवाबों की
अपेक्षाओं से , दैवीयता ,महानता और सौंदर्य के कर्तव्य से मुक्त होती हुई स्त्री एक सुंदर ,अर्थगर्भित और प्रभावी बिम्ब बनाती है।
तुषार ने बेशक एक ईमानदार कोशिश की है यहाँ लेकिन
वर्ग, जाति ,धर्म या क्षेत्रीयता की
अपेक्षा जेंडर के पार जा पाना सरल नही। खुद
को पूरी तरह
अनलर्न करना पड़ता है।
खैर, कविता प्रस्तुत है कुछ और सार्थक बहस के लिए -
दमयंती का बयान
मृत्युओं के लिये
एक जगह रख छोड़ा है हमने
बाकी हिस्से में
सृजन है समय के जगत का
असमर्थताएँ स्वप्न
कल्पना यूटोपिया
घिरे हुए हैं हम.
*****
मेरी कथा मुझ पर ही
चुप है I
(1)
जी
बलात्कार हुआ है
मेरे साथ
और यह हर समय ही
होता है
ये मुक्तियाँ
सदियों की मुक्त नहीं कर पाती हैं मुझे
दी हुई मुक्तियाँ
परतंत्र ही होती हैं
कुण्ठाओं का काल
नहीं ढलता लिप्साओं का भी
असुरक्षित इच्छाओं
के नख दंशों का भी नहीं
भुज बल से उगे
आदर्शों का चेहरा जिनसे तय होता है
बल का छल बल से छल
है
छल भी छल से ही छल
है
छल --
छल है
मेरी गति भी साथी
तेरे हाथों में
(2)
मेरे स्तन देखना
चाहते हो ?
देखो
पर उनकी सम्पूर्णता
में तुम्हारा पौरुष तुम्हें
दूध पीता दिखेगा
---
भूखा उत्तेजित
लाचार
ऐसी पूर्णता में
कभी देख ही नहीं पाते हो तुम इन्हें
सदियाँ बीत गईं और
मैं अब भी इंतज़ार में हूँ I
तुम्हें सहलाती इन
हथेलियों में मुट्ठियाँ भी हैं मेरी
और वे भय नहीं
हैं
मेरी मुठ्ठी में
डिम्ब है वीर्य है अन्न है
और इन सबके बीच
इन्हीं से उगा प्रश्न है
जो उत्तर की
अपेक्षा से बँधा नहीं है
और
ना बँधा है मेरा
इतिहास जो वर्तमान ही है काल के इस मर्तबान में
जिससे अपने केश धो
रही हूँ अब मैं
यह श्रृंगार है
निजात का
(3)
देखो मेरे स्तन पर
इन्हें नहीं इनमें देखो
अपनी शिशु इच्छाओं
को I नियंत्रण की ललक में दबी अपनी असुरक्षाओं को I
योनि से अर्थ पाती
देह पर अधिकार के दर्शन से उगे आदर्श
मेरी आत्मा को
टुकड़े सी जगह देते रहे अमूर्त ही संदर्भों में
मै ने कुछ नहीं कहा
मेरी नाभि से उड़ती
पतंगें उड़ न सकीं लम्पट देवों की अटारियों से आगे
कौमार्य जहाँ
अस्तित्व से भी अहम था
मै ने कुछ नहीं कहा
सतीत्व का कवच
परगामी पिताओं के वंशजों ने दिया था मुझे अपने परगामी पुत्रों के
निश्चिंत आश्वस्त
एकल स्वामित्व के असुरक्षित अहंकार की रक्षा के लिये --–
जानती थी
मै ने कुछ नहीं कहा
मैं प्रेम पाना
चाहती थी
मुझे दिया गया
आदर्श नारीत्व का
प्रेम देना चाहती
थी
तुम्हें कौमार्य
चाहिये था सतीत्व चाहिये था
मैं बस होना चाहती
थी नैसर्गिक स्त्री सहज
मैं बस
‘होना’ चाहती थी
‘हो’ ना सकी
कुछ नहीं कहा
(4)
वह नल था पलायन जो
कर गया
मैं टिकी रही
वहीं
उसके नंगेपन को
ढाँप कर अपने वस्त्र से I
द्यूत में हारा वह
था मैं संगिनी रही उसकी
पर कथा मेरी मुझ पर
ही चुप है I
और वर्तमान करता है
बलात्कार
इतिहास ने भी यही
किया है
देह और ज़मीन
देह की ज़मीन
ज़मीन की देह
भोग और नियंत्रण
भोग का नियंत्रण
नियंत्रण का भोग
तुम्हारे दिये
भविष्य पर भरोसा नहीं है पुरुष मेरे
तुम भूल गये हो
सृष्टि का मर्म !
देह के भीतर कौन
हूँ मैं नहीं देख पाये कभी
तुम्हारे अंधेपन पर
आईना है मेरी देह
(5)
ईष्ट देवों की
अभिप्सित कामना के चौकोर में चलती रही पिताओं की उंगुली पकड़े
उन्हीं धुरि
कक्षाओं में उन्हीं लीकों पर सबसे सही चल पाना ही सृजन था मेरा
मेरे सपने मुझमें
पिरोये गये मेरी आँखें मुझमें खोली गईं
मेरा जो मुझमें
क्या था नहीं जान पाए तुम
उन दंग रह गई किशोर
कामनाओं की आश्वस्ति मैं ही रही अपनी खोज में
पिताओं के खम्भों
से खेलती लिपटती बोलती बतियाती
मेरी छत को जिन
हथेलियों ने उठा रखा था ऊँचाई पर
उनके नाखून मेरी पिण्डलियों
में धँसे हुए थे और मैं बोल नहीं पाई
परिजनों की नाभि
संस्कृति की वाहिका आदर्शों की
पूर्वजों का उद्धार
मेरे आचरण से था
मेरी पतंगें नाभि
से उड़ती थीं लम्पट देवों की देहरी तक कौमार्य जहाँ
अस्तित्व से भी अहम
था
अपनी ही लालसाओं की
फिसलपट्टी पर
साँस थामे सतीत्व
मेरा पूर्णत्व मेरा औदार्य भी था
यही सृजन था प्रेम
का सतीत्व से सिरजा हुआ
जगत के समय में
मृत्यु के हिस्से की जगह रख छोड़ने के बाद I
मैं इसी में उगती
रही उर्वर अपनी संतानों से उनके पौरुष को तापती
पालती अपनी छाती पर
रखी चट्टानों को जिनमें बीज थे जहरीले पंजों के और जिनमें दूब थी भविष्यत आदर्शों
की
औरत होने के धर्म
की
ईष्ट देवों की
अभिप्सित कामनाओं की
कुल देवताओं के
आशीर्वादों से
बोझ है यह सब
जिसमें पाप छुपे हैं गुरुओं के
तुमने मुझे
स्वतंत्र कहा : तुम्हारी परिभाषा थी
तुमने मुझे सुंदर
कहा : तुम्हारे मानदण्ड थे
तुमने मुझे महान
कहा : तुम्हारी आत्मश्लाघा का विस्तार था
यह हवा स्वप्न यह
अभीप्सा यह पिंजड़ा अदृश्य सब तुमने गढ़ा था
इसी में होना था
मेरा सौंदर्य मेरी महानता और इसी में
रहनी थी मेरी
आज़ादी भी
(6)
देखो मेरे स्तन
छुओ महसूस करो इनपर
अपनी आदिम अँगुलियों के निशान और खरोंच
जो भर नहीं पा रही
जाने कब से यूँ ही
बह रही है I मिलाओ उन निशानों
को अपने नाखूनों से
तुम जंगल से निकल
कहाँ पाये कभी
मीठी बोली लुभावने
दर्शन स्वतंत्रता के
मेरे होने का रुख
तय करते रहे तुम अपनी जंगली खोहों से
आओ देखो मेरे स्तन
और देखो उन शिशु होठों को भूखे बिलखते
वही शिशु होठ जो
अचानक खूँखार हो गये
याद आती है तुम्हें
अपनी भूखी लाचारी ?
जीवन माँगती गुहार ?
मैं पूछना भी नहीं
चाहती
उत्तर की अपेक्षा
से बँधी नहीं हूँ मैं
(7)
मृत्यु के हिस्से
की जगह छोड़ बाकी हिस्सा यही था
यही था सृजन
कलाओं के वशीकरण
नहीं थे मेरे साथ
तब भी सिरजती रही
अपना अवकाश
जिनमें पतंगें
पीढ़ियों की कुलाँचे मारती हैं
और फलता है जिसमें
नल का निश्चिंत एकल
स्वामित्व
उन बाड़ों का
स्वीकार सहज था वही सुख था उनके बाहर वर्जना थी अधम था
बोझ है यह सब इसमें
पाप छुपे हैं गुरुओं के
अब तुम कहते हो तो
सुनती हूँ सोचती भी हूँ
वर्जनाओं की
परिभाषा अधम के अर्थ
संस्कारों की योनि
से उगे अर्थों की सीमा जो
बलिष्ठ भुजाओं की
सुविधा रही है
सुविधा है यह सत्ता
के स्वार्थी विलास की
मैं भी तुम्हारी
सुविधा रही हूँ हर पल
हर आज हर कल
भागे हुए नल के
एकांत की भी उसके आर्तनाद की भी सुविधा रही हूँ मैं
चुप रहना मेरा शील
रक्षा है तुम्हारे अहं का
मर्यादा का अक्षत
कौमार्य अर्थ जीवन का
बोझ है यह सब, इसमें पाप छुपे है
गुरुओं के
बाकी इच्छाएँ मेरी
तुम कहोगे माया है, तुम्हारी मुट्ठी
में रेत है !
(8)
मेरी मुठ्ठी में
डिम्ब है वीर्य है अन्न है
मुक्त मनुष्य का
मुक्त उद्गार है
और मेरे प्रश्नों
को उत्तर की अपेक्षा नहीं है वे मुक्त हैं
और मुक्त है मेरा
इतिहास जो वर्तमान ही है काल के इस मर्तबान में
जिससे अपने केश धो
रही हूँ मैं
यह श्रृंगार है
निजात का
निजात पाती हूँ
मैं
दैवीयता से
सौंदर्य से
महानता से
मुक्ति से
मुक्त करती हूँ
तुम्हें भी तुम्हारे पापों से
पुरुष मेरे !
अब जो कहने लगूँगी
मैं तो
मेरी कथा अलग होगी
इतिहास की उन्हीं कथाओं से
सवालों की सभी दंत
कथाओं से
अभी I यहीं I