मुझे कुछ और करना था ...
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एक कवि था। रघुवीर सहाय ...और कविता थी...
मुझे कुछ और करना था ...
पर मैं कुछ औरकर रहा हूँ...
बहुत कुछ तोड़ना था
मुझे इस वर्ष और मैं बना रहा हूँ शीशे के सामने हजामत...
फिर देखती हूँ एक लड़का अलार्म पर उठता हुआ, शीशे के सामने हजामत
बनाता हुआ, जिसे टाई न बांधने के लिए बॉस की डांट सुननी है...जिसमें कलाकार
की सी अना है लेकिन बॉस को गुरु मानकर चापलूसी
भी करनी है...जिसे गणित समझ नही आता लेकिन
पिता उसे इंजीनियर बनाने के लिए एहसानमंद होने को कहते हैं...और यह वही
एक लड़का है जो जिसे बचपन से शौक है कहानियाँ
सुनने का, जो खुद
एक लाजवाब किस्सागो है, सपने देखता है, वह जो दुनिया के एक अनजाने टापू पर
मिलता है एक लड्की से तो कहता है अपना परिचय मत दो...क्योंकि फिर हम अपने नाम और
जेंडर से जुड़ी पहचान को जीने लगेंगे और वह नही हो पाएंगे जो हम असल में हैं...
और तब वे 7 दिन के लिए
जीते हैं...एक दोस्ती...एक कहानी..फ्रांस के उस टापू पर जिसे वह लड़का कहता है हम
उस टाइम और स्पेस मे हैं जिसे वन्स अपॉन अ
टाइम कहते हैं ...और यहाँ एक कहानी
शुरु हो रही है...दिल और दुनिया के बीच की
जगह में...और यहीं खत्म हो जाएगी।
वे कोशिश करते हैं एक जेंडर न्यूट्र्ल स्पेस
बनाने की...न जनाना ना मर्दाना...क्योंकि
वे कुछ भी हो सकेंगे तो ही असली हो सकेंगे...वह मर्द हो जाएगा तो कोशिश करेगा फिज़िकल
होने के बहाने ढूंढ्ने की...वह इसी के लिए बना है ...वह कहती है फिर तो मुझे टच मी
नॉट होना पड़ेगा और फिर मैं वह नही कर पाऊंगी जो मैं करना चाहती हूँ क्योंकि मुझे इससे
बच्ना सिखाया गया है...और कुछ भी होंगे ...डॉन और मोना डार्लिंग
...या कुछ भी और ...वेद और तारा नही होंगे...और
फिर भरपूर जीते हैं वे ...और बिना नाम जाने लौट जाते हैं ....
मिलते हैं 4 साल बाद...
जानते हैं नाम अब एक दूसरे का...
लेकिन
यह लड़का वह नही ...जिसे तारा तलाशती रही 4 साल...
यह मशीन है...प्रोडक्ट मैंनेजर...रूटीन लाइफ़
जीता एक एवरेज आम आदमी जिसमें कुछ खास नहीं...
सब कहानियाँ एक जैसी होती है और प्रेम होता है हमेशा
कविता जैसा ...जितना यथार्थ उतना कल्पना..जिसमें फैंटेसी रचते
हैं हम...जिसमें शब्दार्थ और व्याख्याएँ
नष्ट कर देते हैं कविता को..थियेटर भी
है वह जिसमें अपनी भाषा ,
सम्वाद और रोल आप ही चुनते हैं
हम...प्रेम जो अपने आप को खो देने मे नही है...अपने आप को पा लेने में
है...वह अपने ही भीतर के उस स्पेशल सेल्फ को पा लेना है जिसके लिए तारा 4
साल भटकती रही बिना नाम पता जाने लड़के का...मिलते
हैं वे तो सब होता है
अब , सेक्स भी लेकिन
सगाई की अंगूठी वापस कर देती है तारा और अपना कंसर्न बचा लाती है साथ लडके के लिए...कहती है तुम वो नही जिसे
ढूंढ रही थी...जो हो वह तो मेरे पास है...मैं किसी और को ढूंढते आई थी...
सब कहानियाँ एक ही हैं...क्या फर्क पड़ता है
संजुक्ता और पृथ्वीराज हों या राम और सीता या वेद और तारा ...और खुद अपनी भी कहानी
का अंत हम जानते हैं...बस डरते हैं...डरते हैं अपनी असली सेल्फ से...हम अपनी ही
असलियत से खौफ खाते हैं क्योकि वह असल आदमी ‘मेरा दुश्मन’ है, कृष्ण बलदेव वैद की कहानी की
तरह जिसके लिए वेद का पिता कहता है ‘जिनकी ज़िंदगी मे कष्ट नही
होता वे
कष्ट पैदा कर लेते हैं’। यह असल होने का भय है जिसे हमारे
ही करीब के लोग कभी पह्चानते
नही पह्चान लें तो स्वीकारते
नही..वर्ना हम अपनी कहानियों के अंत पूछने के लिए कभी किसी के पास न जाएँ ,
कभी
आतुर न रहें अंत जाने के लिए...बल्कि अंत हमें खुद ही लिखना होता है...बिना डरे...
अपने
भीतर के इस असली मनुष्य को पाने की छटपटाहट , यह ‘कुछ और’ क्या है इसके शोध की व्याकुलता इम्तियाज़ अली की फिल्मों मे
दिखाई देती है।जो मैं हूँ उसे छिपाना और जो नही हूँ जिसे सब चाहते हैं कि मैं रहूँ
उसके बीच के गैप में सब अंट संट है...तारा
अंगूठी वापस करती है तो वह किसी अतित्ववादी कवि की तरह हो जाता है...जो ऑफिस मे
प्रेज़ेंटेशन देता है तो बीच बीच मे असम्बद्ध बातें कहता है ...अक्सर प्रलाप करता
है...जिसे उबकाई आती है...जिसे वहम है कि उसके अंतड़ियों मे फफूंद लग रही
है... जिसके भीतर काई जम गई है ...बदबू आती है...
वह कवि है, नाटककार है ,
कलाकार
है वह...स्वप्न जीवी...कहानियाँ सुनाने वाला...प्रेम के लिए बना हुआ...जो बोलता है
तो लोग घेर लेते हैं उसे और सुनना चाहते
हैं...वह इसी के लिए बना था...जो कुछ भी हो सकता था ...डॉन भी...रोमियो भी
...रांझा भी...कुछ भी...मशीन नही हो सकता था...स्टॉप, गो , स्माइल...एकदम
नही...एक शायर कहता था 'होता है शब ओ रोज़ तमाशा मेरे आगे' ...और उसे अपनी कलाकारी के साथ कह जाने वाला ही इंसान है किस्सागो...
फ़िल्म में कोई तथ्य खाली तथ्य बन कर नहीं आता। वह संदर्भ हो जाता है। 1947 के भारत पाक विभाजन की घटना एक घटना नहीं थी जो हुई और बीत गयी। जिस पीढी ने उसे अपनी समझदारी की उम्र में झेला था उनकी संताने भी सरवाइवल की जंग में जीवन खपा गयी। लेकिन उनकी आज लगभग तीसरी पीढी वही जो मेरी पीढी है उसके सामने सर्वाइवल से ज़्यादा बड़ा प्रश्न है अपनी पहचान का। यह छटपटाहट जो हीरो की छटपटाहट है वह एक विस्थापन की तीसरी पीढी का द्वंद्व भी है। वह अपने बाप दादाओं के ज़िंदगी मौत के संघष की कीमत अदा करने की कोशिश करता है गणित पढ़ने में ज़बरदस्ती दिमाग लगाकर, इंजीनियरिंग करके ताकि दादा के बनाए बंगले को और बड़ा बनाया जा सके लेकिन उन सपनों का क्या जो वह देखने लगा है। पिता का यह डायलॉग की जिनकी ज़िंदगी में कष्ट नहीं होते वे कष्ट पैदा कर लेते हैं वह उसी जगह खड़े होने से उपजा है जहाँ एक भयानक संघर्ष झेली हुई विस्थापित पीढी खड़ी है और भुलाए नहीं भूलती अपना अतीत। इसलिए भी मैं नायक से ही अधिक तादात्म्य महसूस कर पाई शायद कि खुद मैं ऐसे विस्थापित परिवार की तीसरी पीढी हूँ और पहचान का संकट मेरे जीने के संकट से कम नहीं है।
बूढे किस्सागो से मिलकर वेद आखिरकार अपने इस
रियल सेल्फ से साक्षात्कार करता है ...जिसे तारा ने पह्चाना था 7
दिन के साथ में। जिसे उसके अपने सगे सम्बंधी नही पह्चान पाए थे...क्यों न पह्चानती
तारा...उसने देखा था लडके को बिना किसी नकाब के , निष्कवच,
बिना
किसी अपेक्षा के, नाम छोड़िए ...जेंडर तक बीच में नही...उन्होंने
वह साथ बिताया था जिसमें दो लोग एक दूसरे को ठीक वैसे अपना बनाते हैं जैसे वे हैं ,
कोई
ऑलटरेशन नहीं, कोई एक्स्पेक्टेशन नही...यहाँ तक दोस्ती
थी....प्यार शुरु होता है वहाँ जहाँ तारा उसे झकझोर पाती है ...जब दोनो रोते हैं
साथ मिलकर...जब चिल्लाता है वह कि जो मेरे घरवाले और दोस्त नही जानते वह तूने एक
हफ्ते मे कैसे देख लिया..प्यार शुरु होता है वहाँ जब वे ऐसा एकांत रचते हैं जिसमें
वे दोनो अपनी अपनी खूबी के साथ अलगअलग इंसान हैं...खलील जिब्रान के शब्दों में
...एक कप से लेकिन अलग अलग स्ट्रॉ से पीते हुए दो लोग।
प्रेम शुरु होता है तब जब अपने आप को पा लिया
जाता है| और फिर ..
आज फिर शुरु हुआ जीवन
आज मैंने एक छोटी सी सरल सी कविता पढी
आज मैंने सूरज को डूबते देखा देर तक
आज मैंने आदि से अंत तक एक पूरा गान किया
....(रघुवीर सहाय)
और "तमाशा" एक फिल्म नही जैसे एल
लम्बी कविता पढी पूरी। थियेटर की खूबियों को साधती हुई शान्दार फिल्म। फिल्म नही
...मानो किस्सागोई। अभिनय जैसे रणवीर और दीपिका वेद और तारा ही हैं...उनके आँसू
उतने ही सच्चे जितने मेरे।भाव्, भाषा , सम्वाद, अभिनय
बेहतरीन।
10 comments:
बेहतरीन एवं उम्दा समीक्षा, अभी तक अफ़सोस है कि मैं इसे क्यों नहीं देख पाया, जल्दी ही देखना चाहता हूँ और ये करूँगा।
बेहतरीन एवं उम्दा समीक्षा, अभी तक अफ़सोस है कि मैं इसे क्यों नहीं देख पाया, जल्दी ही देखना चाहता हूँ और ये करूँगा।
sujata, itna likhti ho, achcha lgta h, itna likhna, log hme begar krne wale smjh lete h, tumhari umr me mai bhi itna hi likhti thi, bolg ko apne blog se kaise follow kru
सुंदर समीक्षा।
beautifully penned
good movie....in your words more beautiful...
यह असल होने का भय है जिसे हमारे ही करीब के लोग कभी पह्चानते नही पह्चान लें तो स्वीकारते नही..वर्ना हम अपनी कहानियों के अंत पूछने के लिए कभी किसी के पास न जाएँ , कभी आतुर न रहें अंत जाने के लिए...बल्कि अंत हमें खुद ही लिखना होता है...बिना डरे...जो मैं हूँ उसे छिपाना और जो नही हूँ जिसे सब चाहते हैं कि मैं रहूँ उसके बीच के गैप में सब अंट संट है.
bahut bada sach hai. sameeksha ki aatma bhi
Bahut sundar ...dil ko touch kar gayi
मुझे कुछ और करना था ...
पर मैं कुछ औरकर रहा हूँ...
https://dev-palmistry.blogspot.in/
शुक्रिया राजेश जी
शुक्रिया देव
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