तुमने मुझे याद किया मुझे बहुत खुशी हुई। मानवीय वार्तालाप-जीवन में सूक्ष्म और सघनतम सुखों में से एक है।तुम अपना श्रेष्ठतम-अर्थात मन- दूसरों को देते हो और बदले मे उसका मन लेते हो ।और यह सब इतनी आसानी , बिना किसी कठिनाई और प्रेम की अपेक्षा के।
बहुत , बहुत पहले,बचपन से ही, उस समय से जब से मुझे याद है,मेरी इच्छा रही कि लोग मुझे प्यार करें।
अब मैं जानती हूँ, हर एक से कहती हूँ- मुझे प्यार नही चाहिए, मुझे पारस्परिक समझ चाहिए, मेरे लिए यही प्यार है और जिसे आप प्रेम की संज्ञा देते हैं- बलिदान, वफादारी, ईर्ष्या - उसे दूसरों के लिए बचाकर रखिए, किसी दूसरी के लिए, मुझे ये नही चाहिए। मुझे सिर्फ एक ऐसे आदमी से प्रेम हो सकता है जो वसंत के किसी दिन मेरी तुलना में भुर्जवृक्ष को अधिक पसंद करे।
मैं कभी यह भूल नही पाऊंगी, किस तरह बहार के एक दिन एक सुन्दर प्राणी(कवि, जिसे मैं बहुत प्यार करती थी) ने कितना गुस्सा दिखाया था! वह मेरे साथ क्रेमलिन के पास से गुज़रते हुए मास्को नदी और गिरिजाघरों की ओर देखे बिना लगातार मुझसे और मेरे बारे में बातें करता रहा।मैंने उसे कहा" ज़रा सिर उठाइए, आसमान की तरफ देखिए- वह मुझसे हज़ार गुना बड़ा है, क्या मैं ऐसे दिन तुम्हारे प्रेम के बारे मे सोचूंगी, या किसी दूसरे के प्रति प्रेम के बारे में।" मैं अपने बारे में भी नही सोचती, लगता है मैं अपने से ही प्रेम करती हूँ।
बातचीत करने वालों के साथ मेरी दूसरी भी मुसीबतें हैं।मैं ऐसे हर मिलने वाले के जीवन में अविलम्ब प्रवेश कर जाती हूँ जो किसी कारण मुझे अच्छा लगता है, मेरा मन उसके सहायता करने को कहता है,मुझे उस पर 'दया' आती है कि वह डर रहा है कि मैं उससे प्रेम करती हूँ, या वह मुझसे प्रेम करने लगेगा और इस तरह उसका पारिवारिक जीवन तहस- नहस हो जाएगा।
यह बात कही नही जाती पर मैं यह चीख कर कहना चाहती हूँ- महोदय ! मुझे आपसे कुछ नही चाहिए,आप जा सकते हैं, फिर आ सकते हैं, जा सकते हैं,फिर कभी नही भी लौट सकते हैं।मुझे इससे कोई फर्क नही पड़ता। मैं ताकतवर हूँ। मुझे कुछ भी नही चाहिए सिवा अपने हृदय के।
लोग मेरी ओर खिंचे चले आते हैं: कुछ को लगता है कि मुझे अभी प्रेम करना नही आता, कुछ दूसरों को - कि मैं उन्हे अवश्य ही प्रेम करती हूँ, तीसरों को मेरे छोटे छोटे बाल पसंद हैं, चौथों को लगता है कि मैं बाल उनकी खातिर रखने लगूंगी, सबको मुझमें कुछ न कुछ दिखाई देता है, सब मुझसे कुछ चाहते हैं-और यह भूल जाते हैं कि सब कुछ तो मुझमें शुरु हुआ है और यदि मैं उनके नज़दीक नही जाती तो मेरे यौवन को देखते हुए उनके दिमाग में कुछ भी नही आया होता।
मैं समझ, सहजता और स्वच्छन्दता चाहती हूँ, किसी को पकड़कर नही रखना चाहती और न ही कोई मुझे पकड़कर रखे! मेरा अपना पूरा जीवन- अपने ही हृदय से प्रेम की कहानी है। उस शहर में जहाँ मैं रहती हूँ , सड़क के आखिरी छोर के पेड़ से और हवा से मुझे सुख है, असीम सुख ।
(21जुलाई 1916 को प्योत्र इवानोविच युर्केविच को लिखा मारीना स्वेतायेवा के एक पत्र से)
अनु. वरयाम सिंह
मारीना ने 1941 में हताश और रुग्ण अवस्था में आतमहत्या कर ली थी। एक बेटी की लगातार बीमारी के दौरान दूसरी छोटी बच्ची को खो देना , वह भी कुपोषण से, पति का अक्सर काम के बिना रहना , घरेलू भूमिका को साधने और तमाम आर्थिक तंगियों के बीच लिख न पाने की पीड़ा मारीना के पत्रों और कविताओं में यहाँ वहाँ खूब अच्छे से पह्चानी जाती है।
बहुत , बहुत पहले,बचपन से ही, उस समय से जब से मुझे याद है,मेरी इच्छा रही कि लोग मुझे प्यार करें।
अब मैं जानती हूँ, हर एक से कहती हूँ- मुझे प्यार नही चाहिए, मुझे पारस्परिक समझ चाहिए, मेरे लिए यही प्यार है और जिसे आप प्रेम की संज्ञा देते हैं- बलिदान, वफादारी, ईर्ष्या - उसे दूसरों के लिए बचाकर रखिए, किसी दूसरी के लिए, मुझे ये नही चाहिए। मुझे सिर्फ एक ऐसे आदमी से प्रेम हो सकता है जो वसंत के किसी दिन मेरी तुलना में भुर्जवृक्ष को अधिक पसंद करे।
मैं कभी यह भूल नही पाऊंगी, किस तरह बहार के एक दिन एक सुन्दर प्राणी(कवि, जिसे मैं बहुत प्यार करती थी) ने कितना गुस्सा दिखाया था! वह मेरे साथ क्रेमलिन के पास से गुज़रते हुए मास्को नदी और गिरिजाघरों की ओर देखे बिना लगातार मुझसे और मेरे बारे में बातें करता रहा।मैंने उसे कहा" ज़रा सिर उठाइए, आसमान की तरफ देखिए- वह मुझसे हज़ार गुना बड़ा है, क्या मैं ऐसे दिन तुम्हारे प्रेम के बारे मे सोचूंगी, या किसी दूसरे के प्रति प्रेम के बारे में।" मैं अपने बारे में भी नही सोचती, लगता है मैं अपने से ही प्रेम करती हूँ।
बातचीत करने वालों के साथ मेरी दूसरी भी मुसीबतें हैं।मैं ऐसे हर मिलने वाले के जीवन में अविलम्ब प्रवेश कर जाती हूँ जो किसी कारण मुझे अच्छा लगता है, मेरा मन उसके सहायता करने को कहता है,मुझे उस पर 'दया' आती है कि वह डर रहा है कि मैं उससे प्रेम करती हूँ, या वह मुझसे प्रेम करने लगेगा और इस तरह उसका पारिवारिक जीवन तहस- नहस हो जाएगा।
यह बात कही नही जाती पर मैं यह चीख कर कहना चाहती हूँ- महोदय ! मुझे आपसे कुछ नही चाहिए,आप जा सकते हैं, फिर आ सकते हैं, जा सकते हैं,फिर कभी नही भी लौट सकते हैं।मुझे इससे कोई फर्क नही पड़ता। मैं ताकतवर हूँ। मुझे कुछ भी नही चाहिए सिवा अपने हृदय के।
लोग मेरी ओर खिंचे चले आते हैं: कुछ को लगता है कि मुझे अभी प्रेम करना नही आता, कुछ दूसरों को - कि मैं उन्हे अवश्य ही प्रेम करती हूँ, तीसरों को मेरे छोटे छोटे बाल पसंद हैं, चौथों को लगता है कि मैं बाल उनकी खातिर रखने लगूंगी, सबको मुझमें कुछ न कुछ दिखाई देता है, सब मुझसे कुछ चाहते हैं-और यह भूल जाते हैं कि सब कुछ तो मुझमें शुरु हुआ है और यदि मैं उनके नज़दीक नही जाती तो मेरे यौवन को देखते हुए उनके दिमाग में कुछ भी नही आया होता।
मैं समझ, सहजता और स्वच्छन्दता चाहती हूँ, किसी को पकड़कर नही रखना चाहती और न ही कोई मुझे पकड़कर रखे! मेरा अपना पूरा जीवन- अपने ही हृदय से प्रेम की कहानी है। उस शहर में जहाँ मैं रहती हूँ , सड़क के आखिरी छोर के पेड़ से और हवा से मुझे सुख है, असीम सुख ।
(21जुलाई 1916 को प्योत्र इवानोविच युर्केविच को लिखा मारीना स्वेतायेवा के एक पत्र से)
अनु. वरयाम सिंह
मारीना ने 1941 में हताश और रुग्ण अवस्था में आतमहत्या कर ली थी। एक बेटी की लगातार बीमारी के दौरान दूसरी छोटी बच्ची को खो देना , वह भी कुपोषण से, पति का अक्सर काम के बिना रहना , घरेलू भूमिका को साधने और तमाम आर्थिक तंगियों के बीच लिख न पाने की पीड़ा मारीना के पत्रों और कविताओं में यहाँ वहाँ खूब अच्छे से पह्चानी जाती है।
3 comments:
touchy post
सुन्दर पोस्ट !
मुझे प्यार नही चाहिए, मुझे पारस्परिक समझ चाहिए.........यही तो जरुरी !!
वह प्यार ही क्या जहाँ पारस्परिक समझ ना हो।
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