अनुप्रिया ने इस बार रंगों के साथ ये नए प्रयोग किए हैं। रंगों की भी अपनी भाषा होती है। इर्द-गिर्द प्रकृति , स्त्री -पुरुष सम्वाद और स्वातंत्र्योन्मुख चिंतनशील मनुष्य को मैं इन चित्रों में देखती हूँ। रंग और रेखाओं की दुनिया में मानवीय अंतर्सम्बंधों और अबूझ मन की गुत्थियाँ सुलझाने का प्रयास अनु के यहाँ लगातार दिखाई देता है। रंगों ने इन्हे प्रभावशाली बनाया है लेकिन मुझे लगता है अनु की ताकत उनकी रेखाएँ हैं; सफेद कागज़ पर काली रेखाओं से वे जो कविता रचती हैं उसकी ध्वनि मनोजगत में दूर तक जाती है, वे जितनी बार देखे जाते हैं उतनी ही बार पढे जाते हैं। बाकी जो पारखी हों वे जानें, मुझ से सामान्य पाठक को रंग और रेखाओं की समझ इतनी ही है कि मुझे ये चित्र आकर्षित करते हैं।
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तेरा मेरा मनवा कैसे इक होई रे... |
1 comment:
आपने ठीक कहा। चित्र बोलते से लगते हैं, उनकी भाषा हरेक के लिये चाहे अलग हो।
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