हुस्न तबस्सुम निहाँ
हलाला मुस्लिम समाज की एक ऐसी प्रथा है जो काफी निंंदनीय कही जा सकती है। इसमें एक तलाकशुदा पत्नी को अपने पति से दोबारा निकाह करने के लिए, उससे पहले किसी दूसरे मर्द से निकाह करना पड़ता है। यही नहीं उसके साथ हमबिस्तरी भी ज़रूरी है। हलाला निकाह के बारे में ठीक ठीक स्पष्ट नहीं है कि इसका इतिहास क्या है।क्यों ये रवायत शुरु करनी पड़ी।
वास्तव में हलाला शब्द 'हलाल' से बना है जिसका अर्थ है वैध। हराम का विपरीतार्थक। जो वर्जित न हो वह हलालहै। उसी से बना है शब्द हलाला। तलाक़ के बाद पत्नी को पति पर हराम मान लिया जाता है।दोबारा वैध बनाने के लिए उसे हलाला की अग्नि परीक्षा से गुअज़रना होता है।
अब्दुल्लाह बिन मसूद ने कहा कि रसूलल्लाह स.वसल्लम ने हलाला करने वाले और जिसके लिए हलाला किया जाए दोनो पर लानत की है।हैरत ये होती है कि एक तरफ इसपर लानत भेजी जा रही है तो दूसरी तरफ इसके ताईद भी की जाती है।
ऊम्मुल मोमिनीन आयशा फरमाती हैं कि किसी पति ने अपनी पत्नी को तलाक़ दे दिया। लेकिन बाद में फिर से अपनी पत्नी से शारीरिक सम्बंध बनाने की इच्छा प्रकट की।तब रसूल ने कहा कि ऐसा करना बहुत बड़ा गुनाह है। ऐसा तब तक नही हो सकता जब तक उसकी पत्नी किसी दूसरे मर्द का और वह मर्द उसके शहद का स्वाद न चख ले। (दाउद, किताब 12,नम्बर 2302)
हलाला की चर्चाएँ कुरान में भी पाई जाती हैं। अगर ये बातें लानत की चीज़ हैं तो मो. साहब ने इसे हराम क्यों नही कहा। इससे ज़ाहिर होता है कि हलाला निकाह पितृसत्तात्मक व्यवस्था का ही एक रूप है जो महिलाओं पर अंकुश लगाने उन्हें पति की बांदी बनकर रहने को विवश करता है।अगर दाल में नमक कम है तो भी पति पत्नी को तलाक देता है। बाद में होश आने पर वह पत्नी को पुन: पाना चाहता है। तब उसे हलाला का रास्ता सुझाया जाता है ताकि उस मर्द की ग़ैरत पर चोट पहुँचे। पर यह अपमान और ज़लालत पत्नी क्यो सहे?
हलाला निकाह के लिए औरत की मर्ज़ी नही जानी जाती। अभी कुछ दिन पहले की घटना है कि क़स्बा फतेहगंज के निकटवर्ती गाँव मेंकुछ आपसी मन-मुटाव के कारण पति-पत्नी ने अलग हो जाने का फैसला किया। किंतु कुछ दिनो में उन्हे आभास हुआ कि उनका निर्णय गलत था।उन्होने दोबारा साथ रहने का फैसला किया और आपसी बातचीत के बाद हलाला निकाह करने का निर्णय लिया गया। एक व्यक्ति को हलाला निकाह के लिए राज़ी भी कर लिया गया। यह तय हुआ कि निकाह के एक दिन बाद वह महिला को तलाक़ दे देगा। इस निक़ाह के बारे मे उस व्यक्ति ने अपनी पत्नी से कुछ नही कहा। दो दिन पूर्व उस पत्नी को इसकी भनक लग गई।नतीजा , वह गुस्से में आगा बबूला हो गई और कमरा बंद करके फाँसी पर लटक गई।
नशे की हालत में और फोन पर दिया गया तलाक़ भी मान्य है। और इस स्थिति में भी हलाला के सिवाय दूसरा विकल्प नहीं।
मुस्लिम समाज आज इक्कीसवीं सदी में भी क़ुरान द्वारा ही संचालित हो रहा है। हैरत तब होती है जब असग़रअली इंजीनियर जैसे प्रगतिशील विचारक भी अपनी पुस्तकों में आसमानी किताब या 'बही' आने का ज़िक्र करते हुए इस्लामी गाथा लिखते हैं। ऐसे में भला क्या उन्नति कर सकेगा यह मुस्लिम समाज ।
कभी किसी मुस्लिम देश में यकायक यह नियम लागू कर दिया जाता है कि जेलों में जिन महिलाओं के लिए मौत की सज़ा का ऐलान हुआ है उन्हें फाँसी देने से पहले उनके साथ जेल के अधिकारियों या कर्मचारियों को शारीरिक सम्बंध बना लेना चाहिए। इससे महिला को मौत के बाद जन्नत मिलेगी। ऐसे कामों पर आपत्ति होने पर फौरन कुरान का हवाला देकर उसे सही ठहराने का प्रयास किया जाने लगता है। जहाँ तक हदीसों की बात है तो हदीस रचने वाले भी पुरुष ही हैं। उन्हे अपनी सत्ता तो बरक़रार रखनी ही है। इसके लिए महिलाओं को आगे आना होग। ऐसे तमाम मिथकों को तोड़ना होगा जो उनके अस्तित्व पर प्रहार करते हैं।
'हलाला निक़ाह: एक वैध वेश्यावृत्ति'
के कुछ अंश
हंस , जून 2016 से साभार
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चित्र : अनुप्रिया |
हलाला मुस्लिम समाज की एक ऐसी प्रथा है जो काफी निंंदनीय कही जा सकती है। इसमें एक तलाकशुदा पत्नी को अपने पति से दोबारा निकाह करने के लिए, उससे पहले किसी दूसरे मर्द से निकाह करना पड़ता है। यही नहीं उसके साथ हमबिस्तरी भी ज़रूरी है। हलाला निकाह के बारे में ठीक ठीक स्पष्ट नहीं है कि इसका इतिहास क्या है।क्यों ये रवायत शुरु करनी पड़ी।
वास्तव में हलाला शब्द 'हलाल' से बना है जिसका अर्थ है वैध। हराम का विपरीतार्थक। जो वर्जित न हो वह हलालहै। उसी से बना है शब्द हलाला। तलाक़ के बाद पत्नी को पति पर हराम मान लिया जाता है।दोबारा वैध बनाने के लिए उसे हलाला की अग्नि परीक्षा से गुअज़रना होता है।
अब्दुल्लाह बिन मसूद ने कहा कि रसूलल्लाह स.वसल्लम ने हलाला करने वाले और जिसके लिए हलाला किया जाए दोनो पर लानत की है।हैरत ये होती है कि एक तरफ इसपर लानत भेजी जा रही है तो दूसरी तरफ इसके ताईद भी की जाती है।
ऊम्मुल मोमिनीन आयशा फरमाती हैं कि किसी पति ने अपनी पत्नी को तलाक़ दे दिया। लेकिन बाद में फिर से अपनी पत्नी से शारीरिक सम्बंध बनाने की इच्छा प्रकट की।तब रसूल ने कहा कि ऐसा करना बहुत बड़ा गुनाह है। ऐसा तब तक नही हो सकता जब तक उसकी पत्नी किसी दूसरे मर्द का और वह मर्द उसके शहद का स्वाद न चख ले। (दाउद, किताब 12,नम्बर 2302)
हलाला की चर्चाएँ कुरान में भी पाई जाती हैं। अगर ये बातें लानत की चीज़ हैं तो मो. साहब ने इसे हराम क्यों नही कहा। इससे ज़ाहिर होता है कि हलाला निकाह पितृसत्तात्मक व्यवस्था का ही एक रूप है जो महिलाओं पर अंकुश लगाने उन्हें पति की बांदी बनकर रहने को विवश करता है।अगर दाल में नमक कम है तो भी पति पत्नी को तलाक देता है। बाद में होश आने पर वह पत्नी को पुन: पाना चाहता है। तब उसे हलाला का रास्ता सुझाया जाता है ताकि उस मर्द की ग़ैरत पर चोट पहुँचे। पर यह अपमान और ज़लालत पत्नी क्यो सहे?
हलाला निकाह के लिए औरत की मर्ज़ी नही जानी जाती। अभी कुछ दिन पहले की घटना है कि क़स्बा फतेहगंज के निकटवर्ती गाँव मेंकुछ आपसी मन-मुटाव के कारण पति-पत्नी ने अलग हो जाने का फैसला किया। किंतु कुछ दिनो में उन्हे आभास हुआ कि उनका निर्णय गलत था।उन्होने दोबारा साथ रहने का फैसला किया और आपसी बातचीत के बाद हलाला निकाह करने का निर्णय लिया गया। एक व्यक्ति को हलाला निकाह के लिए राज़ी भी कर लिया गया। यह तय हुआ कि निकाह के एक दिन बाद वह महिला को तलाक़ दे देगा। इस निक़ाह के बारे मे उस व्यक्ति ने अपनी पत्नी से कुछ नही कहा। दो दिन पूर्व उस पत्नी को इसकी भनक लग गई।नतीजा , वह गुस्से में आगा बबूला हो गई और कमरा बंद करके फाँसी पर लटक गई।
नशे की हालत में और फोन पर दिया गया तलाक़ भी मान्य है। और इस स्थिति में भी हलाला के सिवाय दूसरा विकल्प नहीं।
मुस्लिम समाज आज इक्कीसवीं सदी में भी क़ुरान द्वारा ही संचालित हो रहा है। हैरत तब होती है जब असग़रअली इंजीनियर जैसे प्रगतिशील विचारक भी अपनी पुस्तकों में आसमानी किताब या 'बही' आने का ज़िक्र करते हुए इस्लामी गाथा लिखते हैं। ऐसे में भला क्या उन्नति कर सकेगा यह मुस्लिम समाज ।
कभी किसी मुस्लिम देश में यकायक यह नियम लागू कर दिया जाता है कि जेलों में जिन महिलाओं के लिए मौत की सज़ा का ऐलान हुआ है उन्हें फाँसी देने से पहले उनके साथ जेल के अधिकारियों या कर्मचारियों को शारीरिक सम्बंध बना लेना चाहिए। इससे महिला को मौत के बाद जन्नत मिलेगी। ऐसे कामों पर आपत्ति होने पर फौरन कुरान का हवाला देकर उसे सही ठहराने का प्रयास किया जाने लगता है। जहाँ तक हदीसों की बात है तो हदीस रचने वाले भी पुरुष ही हैं। उन्हे अपनी सत्ता तो बरक़रार रखनी ही है। इसके लिए महिलाओं को आगे आना होग। ऐसे तमाम मिथकों को तोड़ना होगा जो उनके अस्तित्व पर प्रहार करते हैं।
'हलाला निक़ाह: एक वैध वेश्यावृत्ति'
के कुछ अंश
हंस , जून 2016 से साभार
10 comments:
हलाला पर आपका लेख पढ़ा। केवल असगर अली ही क्यों, नारीवादियों में भी कुरआन शरीफ़ से इतर कोई विमर्श बनता नहीं दीखता। आपका लेख खुलकर बात करता है। यह जानने की उत्सुकता है कि यदि तलाक उल बिद्दत से यह बेन हो जाता है तो क्या क़ानूनन हलाला सम्भव है? दूसरे, स्त्री की सहमति के बिना क्या हलाला की कोई प्रयोज्यता रहती है?
एक ही विकल्प है कि संवैधानिक कानून लागू हो सब के लिये। धर्म का दखल कानून में ना हो।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 'स्वावलंबी नारी शक्ति को समर्पित 1350वीं बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
शुक्रिया कुमारेंद्र जी!
-सुजाता
Islam needs to reform this provision of law also.
बहुत बढ़िया ये भी एक नारी की अस्मिता को रोंदने की प्रकिर्या का नाम हलाला
वैसे मुस्लिम आलिमों को तलाक़ के लिए आधुनिक टेलीफोन काबुल है लेकिन आधुनिक नियम कानून नहीं। फैसला खुद मुस्लिमों को ही करना है । धर्म चाहे वह कोई भी हो हमेशा से स्त्री विरोधी रहे हैं। स्त्रियॉं को धर्म से चिपटाए रखने की साजिश भी पित्रसत्ता का खेल है। पवित्रता और पुण्य का ठेका केवल स्त्री का ही है । पुरुष तो जो करे वह सब जायज़ होता ही है।
अपर्णा जी आप सही कह रही हैं तमाम नारीवादी भी कुरान व हदीस का सहारा लेते हैं। नहीं हलाला निकाह कानूनन नहीं हो सकता। यह सिर्फ शरीयत के अनूसार होता है।दूसरे इस निकाह के लिए महिला की रजामंदी तो नहीं ली जाती बल्कि उस पर एक तरह का दबाव बनाया जाता है।संभव हाेे तो सितंबर के हंस में मेरे लेख पर छपी अब्दुल बिस्मिल्लाह की प्रतिक्रिया जरूर पढ़ें। आप देखेंगी कि एक पढा लिख पुरूष कितना चालाक होता है। उचित समझें तो हंस को अपनी राय भी लिखें। आपकी निंहां
शुक्रिया राजीव जी
जी। आपको मौका हो तो सितंबर का हंस पढि़एगा। अब्दुल बिस्िमिल्लाह साहब का लेख।
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