- सुजाता
मैं
यमुना से चली थी...केन के लिए...जाने कैसी प्यास थी एकदम भूखी, एकदम
ज़िद्दी, नमक बिना खाए हुए जामुनों के जीभ पर असर जैसी... एक बोझ था मन पर, शहरी मन
का...एक बस्ता था भारी भीड़ में अपने खो जाने के तमाम दर्दों से भरा हुआ ...जिसे चुपचाप
रख देना था और अपने एकांत को जी लेने की अदम्य चाह को हथेलियों से फड़्फड़ाते मुक्त होते
देखना था...
एक
बच्चे-सी ललक थी खिड़की से सटने की और ट्रेन के चलने की। यह वक़्त की नदी में तिरना है।
इसमें कुछ आगे-पीछे नहीं, भूत भविष्य
नहीं , पहले-बाद नहीं, सिर्फ यात्रा है
वक़्त की पटरी पर। सबसे खूबसूरत नज़ारा है रात को भोर में तब्दील होते हुए देखना। चुपचाप
उस रहस्य का साक्षी होना जो सूरज की पहली किरण के आने पर अतीत हो जाएगा।ज़िंदगी में
सबसे ख़ूबसूरत लम्हे ऐसे ही होते हैं जब आप उनके होने से नितांत अनभिज्ञ भी नहीं होते
और उनका होना भी भीतर एक नीरव उन्माद सा भरा रहता है।शहर गाँव में बदल रहे हैं
गाँव किसी क़स्बे में और फिर किसी अजान शहर में ।अँधेरे में रात ने धीमे-धीमे थपकियाँ
दी थीं और सहलाया था कुम्हलाए जीवन को।अभी अचानक धीमी चलती पिक्चर को फास्ट फॉरवर्ड
कर दिया है किसी ने।आसमान की हल्की नीली चादर पर अभी भी खेल रहे हैं कुछ टुकड़े रोशनी
के कुछ अँधेरे के एक साथ और वक़्त लोटा उठाए हाथ में भागा जा रहा है।लाल गुब्बारे सा
सूरज किसी बच्चे के हाथों छूट गया है और पेड़ों के पीछे से झाँक रहा है। उचाट दीखती
हुई दीवारों के पीछे तहाने लगी होंगी चादरें और थकन। बंधने लगे होंगे बिखरे खुले बालोँ
के जूड़े और दो कप पानी खौलने लगा होगा पतीली में । स्टेशन आ गया। मिचमिचाती आँखों में
आज की गर्मी का पहला भभका !
यह
बुंदेलखण्ड था। बाँदा की गर्म , सूखी ज़मीन। दिन भर एक महीन धूल की चुनरी इधर
से उधर लहराती हुई दीखती थी..कभी सर पर आ गिरती थी तो थपकी देकर भाग जाती थी...मैं
‘बसंती हवा’ खोजती हूँ केदार की जन्मभूमि
पर। दिन भर में मोहलत नहीं मिलती । रात को मन व्याकुल हो जाता है केन किनारे जाने के
लिए। कहता है ड्राइवर इतनी रात में नदी क्या दिखेगी...क्या कहती ...नदी जानती है मेरा
वहाँ होना ..जैसे मैं जानती हूँ उसका वहाँ होना जब नहीं भी दिखाई देती वह। खाली सड़क
पर चलते हुए हवा अपनी ठण्डी उंगलियों से छूकर बताती है कि क़रीब है केन...चाँद चुपके
से कान में कहता है – मैं हूँ न ! आओ ! चली आओ! बेखटके ...मैं चली आई हूँ ...चाँदनी
के कैनवास पर अंधेरे की पेंसिल से जैसे उकेर दिया गया है एक धीमी-धीमी बत्तियाँ टिमकाता
पुल, ऊबड़-खाबड़ चट्टानें, झुलसे पेड़ की एक-एक
उदास शाखा...नदी के पानी में बल्ब की रोशनी गिरती है और दूर से लगता है एक रोशनी का
फव्वारा चल पड़ा है। कोई दो बाइक सवार सुनसान रास्ते से गुज़र जाते हैं, शहरी मन संदेह से घिर आता है।याद आता है किसी ने समझाया था- यहाँ पानी की घोर कमी है,शराब
इफरात में है।
चाँद
जैसे सामने वाली चट्टान पर ही उतर आया है। कौतूहल छिपाए नही छिप रहा उसका... घूमती
हूँ चारों ओर अपनी धुरी पर...अभी-अभी लगा है कि .मैंने चाँदनी रात में केन के किनारे
होने की बरसों की है प्रतीक्षा ... सिकुड़ी हुई केन भी अपने दर्द खोलने के लिए अंधेरे
की प्रतीक्षा में थी...खुदे हुए गड्ढे हैं, बालू निकाल लिया गया है शायद किसी
माफिया का काम हो...सिकुड़ी हुई नदी है। नहीं जानती अंधेरे के लिए यह कैसा सम्मोहन है
मुझे। और नदी को। केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं में आई केन याद करती हूँ तो सोचती हूँ
दिल्ली की यमुना को भी।! मुझे सर्वेश्वर की ‘कुआनो नदी’ याद आती है...खूब देखा है इधर की जमनापार बसी दिल्ली में, बरसातों में बढता पानी खूब , नीचे खेत जलमग्न हो
जाते और झुग्गियाँ सब ऊपर फुटपाथ पर जैसे –तैसे दिन काटने के लिए आ लगती थीं।भयानक
जीवट था।यह हर बरसात में होता। पुल सिर्फ नदी पार नहीं कराते थे...अपनी आस्था के छिलके
फेंक देते थे लोग उन पर से नदी में।कैसे शहर हैं बेमुरव्वत ...जो अपनी नदी को प्यार
करना नहीं जानते...। अब तो झुग्गियाँ नहीं रहीं। इधर अब बसावट हो गई है बहुत... आते–जाते कोई नहीं
बोलता –‘हलो यमुना कैसी हो’ ...झांकते हैं
बस तभी जब खबर आती है पानी खतरे के निशान से ऊपर बह रहा है।कोई खतरा नहीं आता। ऐसी
बारिश को भी कई साल हुए ...अक्षरधाम भी कैसा तो निश्शंक बना खड़ा है ही। मैं चांद को
देखना चाहती हूँ यमुना में होते प्रतिबिम्बित...कहो, कोई आता होगा न मेरी ही तरह बांदा से भी ,किसी चांदनी
रात ,दिल्ली में, यमुना के लिए ...गुनगुनाता
होगा ...वीराने में जैसे याद किया था मैंने फरीदा ख़ानम को- ‘आज
जाने की ज़िद न करो...’
साँस
के साथ धूल की तह नाक में जमती जा रही है और गर्म हवा के थपेड़े के बीच सब जन सामान्य
हैं ...अपने-अपने काम में लगे...वे भली महिला हैं जो डॉकटर हैं बता रही हैं- आदमी ज़्यादातर बाहर चले जाते हैं कमाने...यहाँ एडस
और हेपेटाइटिस-बी बहुत ज़्यादा है। औरतों के शरीर में लहू है ही नहीं लेकिन दौड़ती हुई
आती हैं( मैं याद करती हूँ लोहे जैसी ढलीं और गोली जैसी चलतीं औरतें) कुपोषण है और गरीबी...बच्चा गर्भ में टिकता ही नही अक्सर...पहला बच्चा
ज़्यादातर का अज्ञानता और कमज़ोरी से गिर जाताहै। मैं एक नई –नवेली, सींक-सी माँ को याद करती हूँ। ट्रेन में चकरघिन्नी हो गई थी, बच्चे ने रो-रोकर
सफर पहाड़ कर दिया था।...परित्यक्ताओं की सहायता के लिए संस्था चलाती हैं जो स्त्री
,उनके साथ रहना चाहती हूँ कई घण्टे...खूब आत्मविश्वास से
भरीं हैं। एन.जी.ओ. वाली भली महिलाओं ने भी उनके रास्ते में अड़चनें खूब पैदा कीं।मैंने
अभी उनकी आँखों में एक जानी -पह्चानी पीड़ा देख ली है। हँसती-बतियाती स्त्रियाँ अचानक
किसी एक क्षण में एक दूसरे की आँखों में देखती हैं और फिर कोई भेद भेद नहीं रहता...जो
कहा नहीं गया उसे कहने की ज़रूरत ही खत्म हो चुकी होती है, वे
फिर बतियाने लगती हैं हंसती हुई।
इधर
आज सूरज हफ्ता वसूली को निकला हुआ है जैसे, अभी चाँद सहमा झाँक रहा है पर्दे
से कि कोई जान ना ले उसका वहाँ होना। मालिक की झिड़की खाने के बाद बूढे पेड़ ने सहलाया
है रोटी चबाते मज़दूर को। सुबह चार बजे से जगा ड्राइवर अंगारे खाए बैठा है। रास्ता भर
खूब किंचाइन करता है। बाहर के लोग भी जाने कहाँ-कहाँ सर-फुड़ाई करने के लिए आते हैं, गुप्त गोदावरी से अच्छा है कि अनुसूइया माता का मंदिर देखें, उनका महातम जाने... वहाँ से नदी का उद्गम है...नदी जो कभी नही सूखती...वह
दूर पहाड़ दिखाता है... राम ने हनुमान को प्यास लगने पर एक तीर मारा और झरना फूट पड़ा, तब से बहता ही रहता है सूखता नहीं... आस्था को सहलाओ और वह अचानक किलक भरा
बालक हो जाता है। नदी है बैसुनी...वैष्णवी रही होगी शायद...नंग-धड़ंग बच्चे शैतानी करते
हुए शिकारे को पकड़ कर बहने लगे हैं। नाविक भी 17- 18 बरस का लड़का ही है डांटता है पर
बे असर। एक बहन साल भर के भाई को नदी में उतार रही है, वह वापस
चढ जा रहा है। चित्रकूट का पर्वत झुलसे हुए पेड़ों का बीहड़ दीख रहा है...वह कहता है
सबसे अच्छा मौसम है बरसात का यहाँ आने के लिए, कुछ सोचता सा कहता है फिर-बरसात नहीं हुई लेकिन पिछले तीन साल
से...मैं सोचती हूँ ऐसे झुलसे, सूखे बीहड़ में मनुष्य की आस्था
कभी न सूखने वाले जलस्रोतों में आखिर कैसे न जा बसे। लगता है फिर पास
है नदी। उजाड़ में से गुज़रते हुए किसी
जादूई पेंटिंग की तरह दिखी है जीभर ढेर हरीयाली और बीच में बहती सलिला। ऐसा हरी आभा
लिए पानी जैसे कोई बच्चा चुपके से गाढे हरे पोस्टर कलर से सना अपना पेंट ब्रश धो गया
है उसमें। अनुसूइया का मंदिर नया और भव्य है। नदी का नाम पूछो तो कोई मंदाकिनी कह रहा
है कोई नर्मदा। नाम की कौन बड़ी बात है ! सोचो, वह सूखती नहीं
कभी। मंदिरों के नए भवनों का निर्माण जारी है।
कुछ
दूर तक राह में गदरायी मिट्टी में गाड़ी धँसते हुए चलती है। ड्राइवर फिर स्थायी भाव
को प्राप्त हुआ खिझाता हुआ चल रहा है। एक तरफ लाल मिट्टी है...धूप के चश्में से देखो
तो खून-सा लाल रंग। कोई कहता है यह प्रेम की मिट्टी है... इसपर साथ चलने वालों में
प्रेम बढ्ता है। और अकेले चलने वाले का क्या होता है भैया ! उँह ! उलटा ही सोचती हूँ।
पर एक बार अकेली चल पाती इसपर, पूरे पाँव लथपथ...और मैं तलवों में लाल बजरी
का स्पर्श महसूस करती हूँ दरदराया, समुंदर किनारे की रेत का स्पर्श
महसूस करती हूँ, चारकोल की सड़क का, हरी
घास के पैबंदों वाले मैदान की भूरी मिट्टी का ...नहीं वह अलग होगा ...इन सबसे...मैंने इस एहसास के लिए
एक खाली जेब बुन ली है मन में...कभी लौटूंगी...लौटूंगी वह मंदिर देखने जो उसने बनवाया
था जो बुतशिकनी के लिए कुख्यात था। औरंगज़ेब ! कुछ तो उस पुरातन को मुझसे कहना होगा
न।
बैठने
की जगह यात्रा का स्वाद बदल देती है। सबसे आगे बैठो तो पहुँचने की शीघ्रता और सुरक्षा
नज़ारों का आनंद नहीं लेने देती। मैं सबसे पीछे , ड्राइवर की ओर पीठ दिए
बनाई गई सीट पर आ गई हूँ। अब जल्दी नहीं है...जो पीछे छूट रहा है वह कितना स्पष्ट दिख
रहा है और सुंदर...सड़क तसल्ली से दोनों बाहें सर के पीछे बाँध के लेट गई है नीला आसमान
तकने। दोनो तरफ गुलमोहर उसे छेड़ रहे हैं खिलखिलाते...कब तक ताकोगी उसकी ओर कुछ हमारा
भी खयाल करो ! बचपन में झाँकती हूँ कनखियों से ...दूर तक फैले हैं गुलमोहर, अमलतास, जामुन और सेमल...दिल्ली की चमकदार काली सड़कों
के किनारे...गर्मियों के इन्हीं दिनों नेहरू पार्क में मस्ती -होड़ रहती थी, रुई-सी उड़ती थी और हम भागते थे बुढिया के बाल कौन पकड़ेगा चिल्लाते हुए।
लगता
है हर वो जगह मेरी प्रतीक्षा में है जहाँ मैं कभी नहीं गई...वहाँ जाने के बाद होता
है मुझे अपनी प्रतीक्षा का एहसास।
मैं
लौटूंगी इधर।
फिलहाल
मन, यात्रा से लौटते बखत के बिखरे सूटकेस-सा हो गया है। आई थी तो सब तहा के करीने
से लगाया था। अब वापस उसी जगह में नहीं अँटता कुछ भी । बस कैसे भी दबा- कुचल कर बंद कर दिया है बक्सा और
बैठ गई हूँ ट्रेन में।महोबा में रुक गई है गाड़ी आधे घण्टे के लिए, झाँसी से आते हैं 9 डिब्बे, उनका इंतज़ार करेंगे। सोचती
हूँ- महोबा और प्यार होने लगता है इस नाम से...मन में बोलती हूँ कई बार ...महोबा...महोबा...
महोत्सवपुर से महोबा...याद आता है आल्हा-ऊदल ...जैसे किसी अल्हैत के ढोल की थाप के
साथ सुनाई देता है- बरिस अठारह छत्री जिए,आगे जीवन को धिक्कार...
मन होता है उस धरती की मिट्टी छू आने का जहाँ चंदेल राजा परमाल के लिए दोनो भाई आल्हा ऊदल भिड़ गए थे पृथ्वीराज चौहान
से।बुज़ुर्ग बता रहे हैं कि उसे हराया था, जान से मारा नहीं था।
आल्हा-ऊदल वीरता की प्रतिमूर्ति, राजपूती दम्भ के सामने डटे हुए
दलित नायक, जनपदीय संस्कृति के जन-नायक।सोचती हूँ, इस टेक्स्ट के मर्दवादी वर्ज़न को अभी पढा जाना है।
अभी ट्रेन ने भारी मन से चलना शुरु किया है। फाटक पर जनता बदहाल
है , पलकें बिछाए नहीं, ये जाने
कहाँ-कहाँ से जब-तब आने-जाने वाले यहाँ से टलें तो उनके रास्ते खुलें । मैं कब से उस
पार देखने के लिए अंधेरे की प्रतीक्षा में थी...रात आती है और अंधेरे के पर्दे पर चलती
गाड़ी से छिटकती रोशनियों की परछाईं भागती है साथ साथ ...जितना आगे जाती हूँ उतना पीछे
छूटता है दृश्य...मैं जितना पा रही हूँ ...उतना खो रही हूँ...थोड़ा-सा अपने भीतर क़स्बा
और ज़रा-सा अपना, शहरीपन !
( नया ज्ञानोदय ,जुलाई 2016 ,में प्रकाशित यात्रा संस्मरण)
4 comments:
बुन्देलखण्ड का अपना सौन्दर्य है. बखूबी आपने इसे शब्दों में ढाला है.
Gyasu Shaikh said:
आपके पास चुपचाप बैठ
एक मुग्ध प्रकृति प्रेमी यात्री को हम देखते रहे। यात्रा के दौरान
और लौटते हुए बैग में पहने कपड़ों को जैसे-तैसे ठूंसे जाने
तक ! सधा-साधा सा है लेखन...और सघनता इतनी कि
शायद ही कही कुछ चूक हो ! आप हमें अपने साथ ही लेकर चली
हो ! नदी प्रकृति स्थानीयता के मूक साक्ष्य बने रहे, इस सफर में...
और नदी का ये पोखर चित्र में कितना गहन गहरे हरे रंग में
पगा...जहां होने की ललक आच्छादित रही हम पर... मतलब
सबसे अलिप्त और मूक संधान हो जीवन का प्रकृति में...! ग्रीन
साड़ी में आप ही हो शायद।
तत्कालीन सारे बिंब दृश्यमान रहे लेखन में...
ऐसा लेखन आपको व्यक्तित्व दे और हमें दे आपकी कुछ
और पहचान !
बहुत सुंदर है सुजाता। लगा कविता पढ़ रही हूँ कोई
शुक्रिया मित्रो :)
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