ऑस्ट्रिआई साहित्य से एक ऐसे उपन्यास के कुछ अंश प्रस्तुत कर रही हूँ जिसे लिखते हुए लेखिका - मार्गिट श्राइनर- ने विकृत मर्दानेपन और खुद को महानता के सर्टिफिकेट देने पाले पुरुषों की घटिया सोच का पर्दाफाश किया है।तलाक के बाद लिखे इस लम्बे पत्र में वह मानों पूरी पितृसत्ता का
पैरोकार बनकर पत्नी ही नहीं दुनिया की हर स्त्री को उसके ढोंग का आइना दिखाने के मूर्खतपूर्ण
प्रयास में खुद बदशक्ल और घटिया और नंगा हो गया है।
न बताया जाए तो कोई यकीन ही न करे कि इसे किसी स्त्री ने लिखा है। मार्गिट श्राइनर के नॉवेल के बारे में आलोचकों ने लिखा- “कुशल चातुर्यपूर्ण गद्य , जिसमें अपनी पत्नी द्वारा त्याग दिए जाने के बाद कथक अपना मरदाना बकवादी चेहरा दिखाता है- दाम्पत्य जीवन मे बरबादी से लेकर मरदाने अक्खड़पन के कीचड़ मे सराबोर मनोरंजक उपन्यास, जिसे एक स्त्री ने ऐसा लिखा है कि नैतिक पैमाने पर दब्बू और भावुकता के पैमानेपर विकृत पुरुष कभी नहीं लिख पाता। ”
घर , घरवालियाँ और सेक्स – मार्गिट श्राइनर
मूल जर्मन से अनुवाद – अमृत मेहता
साहित्य उपक्रम
यह अच्छा नहीं है जब स्त्रेी केी आँखें ऐसे चमकती हों
और अगर तुमने यह पैसा कमाया भी है तो
इसलिए कि मैंने तुममें निवेश किया था। पैसे का, मनुष्य रूप में भी।
क्योंकि मैं तुमारा मनोवैज्ञानिक भी था। मेरे बिना तुम अभी भी सुपर मार्केट के
काउण्टर पर सड़ रही होतीं। मेरे बिना तुम छलांग लगाकर दर्जी नहीं बनतीं। मेरे बिना तुम
हफ्ते मे दो बार इलाज के लिए नहीं जातीं। कोई आत्मविश्वास नहीं, कोई हिम्मत नहीं।
हमेशा दुखी, हमेशा थोबड़ा बना हुआ है। सब काम आधा करना: आधी धूल झाड़ना,आधे कपड़े धोने, आधी सफाई
करनी। पूरा कभी नहीं, कोई काम कभी पूरा
नहीं किया।यह एक मनोवैज्ञानिक समस्या थी, जिसका समाधान मैंने किया था, और इसे भी तब हिसाब
में जोड़ना होगा, जब लुगाइयाँ क्लब में कहती हैं: मारी थेरेज़ ने घर का आधा पैसा दिया
है, उसनेउसे पैसा तोहफेमें दे दिया है, उसने उसे घर तोहफे
में दिया है, वह अपने लिए कोई खर्चा नहीं मांगती।वह इसका शोषण कर रहा है। तुम क्या
समझती हो मैं नहीं जानता कि वे क्या बकती हैं? शोषण ! हद हो गई!
साफ नज़र आरहा है कौन किसका शोषण कर रहा है। तुम लोग हमें चूसती हो, पैसे को भी, आदमी को भी । जब तक
ह्म कमाते हैं तुम लेतीहो, और जब हम बेरोज़गार हो जाते हैं तो हमें छोड़ जाती हो।ऐसी हो तुम लोग!
लेती हो, सालों साल लेती जाती हो, लौटाती कुछ नहीं, साफ घर नहीं,अच्छाखाना नहीं, पतलून
नेहीं, कमीज़ नहीं, शुक्रिया नहीं, खुशी नहीं,कुछ नहीं,हमेशा दर
और असुरक्षा,और ज्योंही अपनी हालत ज़रा बेहतर होती है, ज्योंही हमारा बार बार कहना सफल होता है, तुम चल
देती हो। ज्योंही तुम्हे जो है वह नहीं भाता तभी सब खत्म हो जाता है।जैसे सब कुछ
कभी था ही नहीं। सब बेकार था, किसी चीज़ का कोई हिसाब नहें
था। सब भूल जाता है।ौर लोग सिर हिलाते हैं।मगर तुम लोगों पर नहीं , हम लोगोंपर, क्योंकि उन्हें नहीं पता होता कि पिछले
सालों हुआ क्या है,क्योंकि हम किसी से तुम्हारी असुरक्षा और
निर्भरता की बात नहीं करते।लोगों में सोचने का माद्दा नहीं।लोग सोचते हैं कि घर
में दर्जी की दुकान खोलने में कुछ नहींलगता। लेकिन उन्हें गलतफहमी है। लोगों को
क्या पता कि आजकल ऐसी सिलाई मशीन कितने में आती है जो किनारी लगा सकती है और टेढी मेढी
लाइने मार स्कती है।और बटनों की सजावट। और एक अच्छी इस्त्री की क्या कीमत है? ज़्यादातर लोग नहीं जानते कि दर्जी की एक सही कैंची कितने में आती है।
आधी जायदाद लग जाती है उस पर ! और मुझे यह देख खुशी होतीहै कि
कैसे तुम यह सब खरीद पाती। सिलाई मशीन के लिए तुम्हे सालोंसाल सुपरमार्केट के
काउण्तर पर? और तब? तब कब सिलाई करती
तुम अगर कोई बीच में तुम्हारा पालन पोषण न करता?कैसे होता तब? दिन भर सुपरमार्केट और रात को सिलाई? नहीं भाई,तुम कभी नहीं कर पाती। ऐसी औरतें भी होती हैं जो यह कर सकती हैं, पर तुम उन औरतों में नहीं हो। उन औरतों में आत्मविश्वास होता है। औरतें
जिनमें भार उठाने की हिम्मत होती है, तुम्हारी तरह नहीं कि कुछ
गड़बड़ हुई तो रोना शुरु कर दिया।ौर सिर द्र्द हो गया। या कमरदर्द्। नहीं, तुम जैसी औरतों के साथ सावधानी बरतनी
पड़ती है।खयाल रखना पड़ता है वर्ना तुम से कुछ नहीं होता। लोग नहीं जानते क्योंकि
मैंने कभी इस बारे मे किसी से नहीं कहा। कभी एक लफ्ज़ मुँह से नहीं निकाला कि तुम कितनी बेशऊर हो। तुम मे चूल्हे को, तवे को,चमकाने का शऊर नहीं,
तुम्हारे यहाँ हर कोनेमें धूल पड़ी होती है और छत पर मकड़ियों के जाले रसोई की अलमारी
में सब गड्ड मड्ड पड़ा होता है और पाखाने की चिलमची के किनारे पीले होते
हैं। मैंने किसी को नहीं बताया कि तुम्हे
अकेली को कुछ नज़र नहीं आता।कि
तुम्हे हर चीज़ बतानी पड़ती है। रेज़ी,
किसी को तुम्हे बताना पड़ता है कि पाखाने की
चिलमची का एक किनारा है ,रेज़ी,चूल्हे
पर पानी के दाग हैं, कोनों में धूल पड़ी हुई है, अलमारियों को ढंग से लगाना है, मकड़ी के जालों को
झाड़ू से हटानाहै।फर्श को पोंछना है, सिंक को धोना है, बर्तन का पानी टपकाने वाला हैंगर सफाई मांगता है। हाँ , तुम तो हमेशा शहज़ादी रही हो, काम तो तुम्हारी घुट्टी
में ही नहीं है। सिर पर तौलिया और दीवार के साथ चहलकदमी,यही
आता है तुम्हे,पीले घर और दीवारे6, बाग, तलैया,विशाल ड्योढियाँ जिनमेलाल पत्थरहै। लेकिन
घर बनाने पड़ते हैं,
बागों और तालों की देखभाल करनी पड़ती है और लाल पत्थर के फर्श पर पोछा लगाना पड़ता है। अगर मेरा बेटा न होता
तो मैं तुम्हे मार मार कर घर से निकाल देता।
.....
यह फितूर भरा किसने तुम्हारे दिमाग में? तुम्हारे
आशिक ने? या तुम तब से नियमित रूप से मनोवैज्ञनिक के पास जा
रही हो, जबसे मैं तुम्हारा नहीं रहा?
नुकसान कोई नहीं इसमें बशर्ते कि वह समझदार हो। मगर ऐसे बहुत कम होते हैं। आजकल के
सभी मनोवैज्ञानिक महिलाओं की सिद्धि के समर्थक हैं। यह भी धंधे की एक बीमारी है या
फिर पैसे की भूख्। औरतें ही तो उनकी आमदनीका मुख्य स्रोत हैं। अगर तुम उसे कहोगी
कि वह तुम्हे मारी थेरेज़ कहकर पुकारे तो वह तुम्हे बताएगा कि इससे दूरी पैदा होती
है। बेहतर हो कि वह तुम्हे स्पष्ट करे कि
हमें छोड़कर तुम अपने बच्चों का क्या हाल करती हो।
एक मनोवैज्ञानिक को इसका मतलब पता होना चाहिए कि तुम ऐसा कदम उठा कर न सिर्फ अपनी ज़िंदगी बरबाद करती हो, बल्कि अपने
बच्चों की भी ज़िंदगी बरबाद करती हो।
.....
तुमने कभी खास तौर से मेरी पसंद का पकवान नहीं बनाया बनाया और
मेरी कमीज़े भी इसतरी नहीं की मोजों को रफू नहीं किया बटन कभी दुबारा नहीं लगाए।
मुझे हमेशा घर से बाहर देने पड़ते थे। यही हाल तुमने मेरे बेटे का किया। फेंक दिया
उसे। डेढ साल की उम्र से उसे आया पाल रही है। और तीन साल की उम्र में वह
किण्डर्गार्टन जा रहा था। मैं हमेशा इसके खिलाफ था। पहले एक बच्चा बनाना और फिर
पालने पोसने के लिए उसे दूसरे लोगों को दे देना ताकि वे अपनी बकवास और तालीम के मनमाने ढंग से बच्चे को बिगाड़ दें। पागलपन है यह ! अगर
मैं एक बच्चा बनाता हूँ तो मैं खुद उसे पालूंगा पोसूंगा अपने घर मे जिसमें एक
बगीचा होगा अपने परिवार मे। अपनी माँ और अपना बाप, कोई आया
नहीं, किण्डरगार्टन नहीं, शिशुसदन वाली
मौसी नहीं। मैं हमेशा इसके खिलाफ था। मगर तुमसे समझदारी की बात तो की ही नहीं जा
सकती थी। तुम तभी रोना धोना शुरु कर देती थी हमेशा की तरह...
....
अगर मैंने किसी और से विवाह किया होता, ऐसी से जो
तुमसे ज़्यादा हँसमुख है, ज़्यादा आशावादी, जीवन के प्रति ज़्यादा व्यावहारिक और अर्पित, ऐसी जो
घर को साफ रखे और उसके बावजूद भी अपने
खाली समय में कुछ उपयोगीकाम कर सके, ऐसी जो बगीचे मे काम कर
सके।खुशीदेने वाली। अब तुम यकीन करो न करो, ऐसी औरतोंसे भी
मेरा संसर्ग रहा है। मिसाल के तौर पर
एल्फी जिसके साथ मैं रहा हूँ, जान पह्चान होने के बाद्। वह ऐसी ही थी। ईशव्र जानताहै वह
कितनी व्यवहारिक थी। जब भी कहीं कुछ गलत होता उसे तुरंत पता चल जाता था। और फिर वह
तुरंत कुछ न कुछ करती। ऐसा नहींहोता था कि मेरी जैकेट में सिर्फ दो बटन होते थे।
एल्फी फटाफटा बटन उठाएगी और बटन लगा देगी। कोई बड़ा नाटक किए बिना। और तुम यकीन भी
नहीं करोगी कि एल्फी एक आज़ाद औरत भी नहीं थी। वह कभी भी साइकिल की मरम्मत कर सकती थी, और अगर कार आवाज़ करने लगे तो वह बोनट उठा कर खुद ही नुक्स ठीक करती थी।
वह उन औरतों मे से नहीं थी जो खुद को इतना नफीस समझती हैं कि गाड़ी मे पेट्रोल की
मात्रा नहीं देख सकतीं। यदि मैं उसके साथ कभी किसी डांस पार्टी मे जाता था तो वह
सुबह तीन बजे तक नाचती रहती।वह इधर उधर बैठकर तुम्हारी तरह पूरा समय ताकती नहीं
रहती। वह मिलनसार थी, वाकपटु थी,
हँसमुख थी और कभी कभी खुशी से शराब
का एक पूरागिलास भी पी जातीथी , एल्फी। तुम्हे पहली बार देखने के
बाद मेरी माँ ने कहा था: ध्यान
रखनाफ्रांत्स, इसकी आँखों में एक चमक है। यह अच्छानहीं है। जब आँखें ऐसे चमकतीहों।एल्फी
को क्यो नहीं अपना लेते, माँ ने कहा था, उसका दिल सही जगह पर है।
.....
तुम्हारी ताकत की बुनियाद तुम्हारा झूठ और फरेब है। तुम हमें यह
दिखाकर मक्कारी करती हो कि तुम कामुक हो, और फिर निकलती एकदम ठण्डी हो; यह दिखाकर मक्कारी करती हो कि तुमसे सम्वाद के लिए हम ज़रूरी हैं, और फिर तुम चाहती वही हो जो तुम्हे ठीक लगे। ऐसा दिखावा करती हो जैसे सेक्स
तुम्हारे लिए ज़्यादा ज़रूरी नहीं है, लेकिन जब मन नहीं भरता तो
किसी दूसरे के साथ लग जाती हो।
....
तुमने मुझे उल्लू बनाया है। शुरु से ही तुमने हर चीज़ की
होशियारी से योजना बनाई थी। यकीन नहीं आता कि तुम यह कर सकती हो। इसलिए मैं यह
मानकर चलता हूँ कि इसके पीछे कोई आदमी है, क्योंकि
तुम अकेली घबरा जाती हो। तुम में ताकत ही नहीं है, आत्मबल, कि ऐसी कोई योजना तुम बना सको और इतनी क्रूरता से उस पर टिकी भी रहो।
सिर्फ सहेलियाँ इस मामले में काम नहीं आतीं। कोई न कोई आदमी ज़रूर होगा, जो युद्धनीति बनाता है और तुम्हे चढाता है।पहले चिट्ठी। फिर तलाक। फिर घर
छोड़ना। और मैं चरके मे आ गया। चिट्ठी के, तलाक के, घर छोड़ने के। चिट्ठी के बाद मैं इंतज़ार करता रहा,
क्योंकि मैंने सोचा कि तुम सोचो- विचारोगी। तलाक दे दिया,मैंने, क्योंकि मैंने सोचा कि तुम शांत हो जाओगी। मैंने तुम्हे जाने दिया, क्योंकि मैंने सोचा: आएगी वापस।लेकिन तुमने चिट्ठी लिखी और आज तक उस पर
सोच-विचार नहीं किया, तुमने तलाक लिया और तुम शांत नहीं हुईं, तुम चली गईं और वापस नहीं आईं। क्योंकि शुरु से तुम्हारा इरादा जाने का
था। तुमने मुझे छोडकरजाने का निश्चय कर लिया था। और फिर तुमने युद्धनीति बनाकर
उसपर अमल किया। तुम चुपके चुपके अपने लिए नया फ्लैट ढूंढ रही थीं।...तुम्हारा दोष
मैं साबित कर सकता था। ऐसे दफ्तर हैं जिनके जासूस प्रेमियों का सुराग निकालने में
माहिर हैं। दिमागी हालत के प्रमाण पेश किए जा सकते है। तुम यह बरदाश्त नहीं कर
पाती। और इस पर पैसा कौन लगाता , मैं तो नहीं। युद्ध्नीति
बनाके, क्रूरतापूर्बक और दुर्भावनापूर्वक तुमने मुझे छोड़ा
है। मेरी माँ ने मुझे शुरु में ही कहा था: अगर तुम उसपर पैसा लगाओगे, उसे सिलाई की कार्यशाला बनाकर दोगे, इस्तरी,सिलाई मशीन वगैरा खरीद कर दोगे, फिर वह अपने पैरों
पर खड़ी हो जाएगी, पैसा कमाएगी, घरबार
में ध्यान नहीं लगाएगी, और आखिर में चली जाएगी।
.....तुम खुद कभी कहती भी कुछ नहीं थीं।तुम्हे तुम्हारी बातों
से पकड़ा नहीं जा सकता था। क्योंकि अगर तुम कुछ बोलतींतो मैं उसे गलत साबित करता, और तुम
जानती हो कि मैं गलत साबित करा सकता था। मगर तुम लोग इस चीज़ से बचना चाहती हो। इसी
वजह से तुम कभी कुछ बोलती नहीं हो। क्योंकि तुम सच से बचना चाहती हो। मन ही मन में
तुम लोग बनना चाहती हो विजेता।पनी टांग ओपर रखना चाहती हो,
बेहतर इंसाना ज़्यादा ज़िम्मेदार बनना चाह्ती हो। और हम तो हैं कामचोर्। जो दिन में
पाँच बार तुम्हे फोन नहीं करते,बच्चों के पोतड़े नहीं बदलते,चुसनी नहीं लगाते, खाना नही बनाते और अपनी कमीज़ें
खुद इस्तरी नहीं करते।लेकिन फिर पैसा कौन लाएगा? घिसा-पिटा, इस तर्क को तुम घिसा-पिटा समझती हो,नही6 क्या? किसी बच्चे के पोतड़े घड-ई देखकर नहीं बदले जाते,
बल्कि तभी बदलेजातेहैं जब वह लिथड़ा हुआ पड़ा हो। उसके मुँह में चुसनी सुबह पाँच बजे
और फिर बारह बजे और फिर दोपहर बाद तीन बजे नहीं लगाई जाती,
बल्कि तब लगाई जातीहै जब वह चुसनी खो देता है। कौन सी ऐसी नौकरी है, जो इन चीज़ों की इजाज़त देती है? सोच नहीं सकती तुम? कहती हो कि बारीबारी से किया जा सकता है। वाह वाह ! एक बार तुम करो, एक बार मैं , एक बार तुम देख्भाल के लिए छुट्टी लो, एक बार मैं। इसके लिए तुम्हे किसी बेलदार को ढूँढना होगा, उसके लिए शायद यह सब मुमकिन होगा। लेकिन उद्योग में,व्यापार में, कम्प्यूटर टेक्नॉलजी मे अगर एक हफ्ता भी
घर में बैठ गए तो तुम्हे तभी निकाल बाहर करेंगे। यह तुम नहीं समझती। इस बारे में
तुम लोग जानना भी नहीं चाहतीं। इसी वजह से तुम लोग चुप रहती हो। हे भगवान ! हमारी
और तुम्हारी कार्यक्षमता की तुलना करना ही हास्यास्पद होगा। और फिर हमें सफाई भी
देनी है। इसे मैं तुम्हारी व्यावहारिकता का नाम दूँगा। यह व्यावहारिकता तुम दिखा
सकती हो, क्योंकि हम लोगों को तुम्ने हाथ में लिया हुआ है।
तुम्हारे पास हमारे बच्चे हैं। बच्चे तुम्हारे प्यार की अमनात हैं। अपने बच्चों के
सिर पर तुम हमें ब्लैक्मेल करतीहो। पचास साल पहले तुम लोग यह नहीं कर सकती थीं। मै
भी देखता कि पचास साल पहले तुम मेरे बेटे को लेकर कैसे मुझे छोड़कर चली जाती । बिना
नौकरीके, बिना सामाजिक सहमति के, बिना
मित्रों के, क्योंकि तब जब कोई यकायक अपने बच्चे को लेकर
निकललेता था तो दोस्त भी उससे मुँह मोड़ लेते थे। और यह मत भूलना:आज तुम हमें छोड़कर
जा ज़रूर सकती हो, मगर उसका श्रेय हमें जाता है। हम लोगों ने
नींव डाली है, इसे सम्भव बनाया है: मताधिकार से लेकर महिलाओं
के लिए आरक्षण तक।क्या सोचतीहो कि हमारे बिना इन चीज़ों की मंज़ूरी मिलती ? और तुम उसका फायदा उठाती हो ? चलो फिर से तुम्हारी
व्यावहारिकता पर आते हैं। तबाही और बरबादी में फर्क पता है तुम्हे? आदमी तबाह करता है,जानती हो,
लेकिन औरत बरबाद करती है। जो कुछ तबाह हो जाता है उसे फिर से बनाया जा सकता है: घर
, कलाकृतियाँ,पूरी सभ्यताएँ।लेकिन जो
बरबाद हो गया, वो खत्म।
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कटु सत्य
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