रोज़ के अखबारों और समाचारों से हम
बलात्कार की खबरें और उनकी डीटेल्स इकट्ठी कर पढने लगें तो दिन के अंत तक उबकाई ,आक्रोश, तनाव, व्यर्थता -बोध
और माइग्रेन से अधमरे हो जाएँगे ।लेकिन सच यह है कि अब सब उदासीन होते जा रहे हैं
।उफ! एक और बलात्कार ।हम
बलात्कारों के प्रकारों और भेदों पर विस्तार में बात कर सकें इतनी तरह के बलात्कार
-वर्गीय कुण्ठा से, जातीय ठसक से, फैलिक ताकत के प्रदर्शन के लिए, सबक सिखाने के लिए,
मनोरंजन के लिए ....न बुझने वाली हवस के लिए। न जाने क्या क्या
पुरुष की हमेशा असंतुष्ट कामेच्छा को लेकर एक कम्बोडियाई कहावत है -
"दस नदियाँ मिल कर भी एक सागर को नहीं भर सकतीं".... जब भी लुइज़ ब्राउन
की किताब "एशिया का सेक्स बाज़ार "उठाई और पढी एक गहरे तनाव से कुछ दिन
तक उबर नहीं पाती। वेश्याओं का बलात्कार हमारे समाज की समझ मे ही आने वाली चीज़
नहीं है।वैवाहिक रेप की अवधारणा तो और भी गज़ब बात है संस्कारी भारतीय समाज के लिए
।जो आपकी मर्ज़ी से नहीं बना, किसी भी तरह के दबाव के
तहत हुआ वह सेक्स ' फ्री' नहीं
है यह साधारण सी बात न समझ पाना फेसबुक पर भले दिखते हुए पढे -लिखे लोगों
की घटिया सोच के प्रकटीकरण का माध्यम बनीं फिर ,सड़क
किनारे एक टेंट में बसे मजदूर परिवार की स्त्री को देखो जिसके तीन बच्चे बाहर खेल
रहे होंं और एक अजन्मा उसकी पीठ को झुकाए ,दुबली सी वह औरत
...इसके लिए फ्री सेक्स के मानी होंगे वह सम्भोग जिसमें उसे फिर से गर्भ ठहरने का
भय न हो।वह कितना सोच पाती होगी इस विषय में ...उसके लिए जितनी बड़ी समस्या दो वक़्त
की रोटी है क्या बार-बार गर्भ ठहरने का भय पीड़ा और स्वास्थ्य का बिगड़ते रहना कोई
"बड़ी" समस्या नहीं है ? उसके पास 'ना' कहने का अधिकार होना और उसकी 'ना' का सम्मान किया जाना सीखना क्या किसी
फ्लाईओवर के बनने या भीड़भाड़ वाले इलाके में फटने से पहले किसी बम के डिफ्यूज़ किए
जाने से कम महत्वपूर्ण है ? ?
और फिर बच्चियों का बलात्कार। घर में परिजन और बाहर
स्कूल की वैन का ड्राइवर से लेकर कोई भी सम्पर्क में आने वाला अनजान पुरुष उसकी
नन्ही अपरिपक्व देह और अबोध मन को हमेशा के लिए छलनी करता हुआ। माँ बनती हुई दस
ग्यारह साल की बच्चियों को देखना इस वक़्त का ऐसा दु:स्वप्न है जिसका सच हो जाना
पागल किए दे रहा है।
बेहद महीन स्तरों पर बेहद गहरी और
गाढी लकीरों सी खिंची है स्त्री देह पर अनधिकार चेष्टाओं की कहानियाँ ,
अपनी ही देह से अपने ही निर्वासित हो जाने की स्त्री की यह व्यथा
जितनी मुश्किल है कही जानी उसकी कई गुना सम्वेदनशीलता चाहिए उसे
समझने को... चोखेरबाली पर स्त्री के प्रति इस यौनिक हिंसा को महसूस करते दुख और प्रतिरोधसे उपजी एक कविता अमरीकी कवि मार्ज पियर्सी की हमने पहले भी लगाई है। इस हफ्ते हिंदी
व अन्य भाषाओं से ऐसी ही कविताओं को खोजकर यहाँ साझा करने का प्रयत्न रहेगा। इस क्रम
में आज एक कविता अशोक कुमार पाण्डेय की शाया कर रही हूँ । प्रस्तुत कविता उनकी स्त्री-केंद्रित
कविताओं के संकलन ‘प्रतीक्षा का रंग साँवला’ से आभार सहित ले रही हूँ।
बेटा माँ का, पत्नी का सिन्दूर बाप की ऐंठी हुई मूछें बहन की राखी बेटे का सुपरमैन
रंग जैसा हर दूसरे इंसान का क़द भी वैसा वैसा ही चेहरा मोहरा बोली बानी...सब वैसा ही
वह लड़की भी तो वैसी ही थी जैसी सब होती हैं...
न होती खून से लथपथ
न होती चेहरे पर इतनी दहशत और बस जान होती इस देह में
तो गैया को सानी कर रही होती, गोइंठा पाथ रही होती,
लिट्टी सेंकती गा रही होती सिनेमा का कोई गीत
स्वेटर बुन रही होती क्रोशिया का मेजपोश
कपड़ा फींच रही होती हुमच हुमच कर चला रही होती हैण्ड पम्प
वह जो डरता था मोहल्ले के गुंडे से
वह जो सिपाही को दरोगा जी कहकर सलाम करता था
वह जो मंदिर में नहीं भूलता था कभी भोग लगाना
वह जो बाप के सामने मुंह नहीं खोलता था उसने
...उसने !
उसने-
जो रात के अँधेरे में दबे पाँव आता था कमरे में
और आहिस्ता आहिस्ता खोलता था अपने भीतर के हैवान की जंजीरें
और उतना ही आहिस्ता लौट जाता था
उसने-
जो दीवारों और पेड़ों और फासलों की आड़ में खड़ा हो
चुपके से हटाता था उस शैतान के आँखों की पट्टी
उसने –
जो अँधेरे हॉलों से चुपचाप चेहरा छुपाये निकलता था
जो बस में कुहनियाँ लगाते चेहरा उधर फेर लेता था
जो दफ्तर में सुलग उठता था मैडम की डांट पर
जो बहन पर चिल्लाता था पीटता था बीबी को माँ से डरता था
उसने जिसका चेहरा कितना मिलता था मुझसे और तुमसे भी...
2 comments:
यथार्थ हमारी दुनिया का...
अब जा कर समाज के सामने खुल कर आया है की बेटियों के लिए घर भी उतना ही खतरनाक था हमेशा से जितना की घर के बाहर |
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