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सुजाता
(पहल
– 111 में छपा आलोचनात्मक लेख । इसी कड़ी में अगले दो लेख नीलेश रघुवंशी और सुमन केशरी
की कविता पर होंगे।)
लकाँ और बार्थ को समझें तो दुनिया में मनुष्य भाषा की दया
पर है और सबकुछ को अर्थ देने के लिए भाषा ज़रूरी है। आखिर अर्थ कहाँ रहता है ! भाषा
में । अगर यह दुनिया मर्दों की दुनिया है, जो कि है, तो निश्चित रूप से भाषा उसके अस्तित्व को
व्यवस्थित तरीके से बनाए रखकर आगे की पीढियों तक जारी रखती है। और जैसे भाषा
प्राकृतिक नहीं है और यादृच्छिक है, मने भाषा यदि गढंत है, जोकि है,तब भाषिक निर्मितियों को चुनौती दी जा सकती
है/ दी जानी चाहिए ताकि भाषा रूपी लोहे की दीवार को नहीं भी
फोड़ा जा सके तो उसके-इधर-उधर फलांगा जा सके और अलग्योझा से उपजी हेजीमनी टूटे।
भाषा और साहित्य की लैंगिक निर्मिति की समझ मेरी वोलस्टनक्राफ्ट, वर्जीनिया वूल्फ और सीमोन से होती हुई अमरीका में 1960-70 के दशक में
फले-फूले ‘स्त्रीवादी कविता आंदोलन’ के
बाद फ्रेंच स्त्रीवादियों या कहें उत्तर-स्त्रीवाद में एक व्यवस्थित स्त्रीवादी
आलोचना तक जाती है। समाज और साहित्य का, जीवन और कविता का
स्त्रीवादी पाठ साथ-साथ बनता है। इस दृष्टि से अनामिका की कविता इस मिथ को तोड़ती
है कि भाषा ‘न्यूटर’ होती है, कि न वह स्त्री-भाषा होती है न पुरुष-भाषा, कि वह
कोई अ-यौनिक निर्जीव वस्तु है, कि भाषा की कोई देह नहीं होती
और उस देह का कोई ‘सेक्स’ नहीं होता, कि वह लाठी है जो किसी को भी ताक़त से गुलाम बना सकती है- भैंस ही नहीं
बैल भी ! और इस तरह अनामिका की कविता एक्रीचर फेमिनाइन (स्त्री लेखन) और फेमिनिस्ट
राइटिंग (स्त्रीवादी लेखन) के स्तरों पर एकसाथ भीतर-बाहर की यात्रा है।
अपने यहाँ हिंदी की स्त्री कविता एक ऐसा इलाक़ा है जहाँ पंगा ही पंगा है। खारिज किए जाने का कष्ट बड़ा कष्ट है । खारिज किए जाने की
वजहें तय करने वाले ही वाह-वाह करने वाले भी तो ठहरे । तो वाहवाही के लिए ‘मर्दानी’ भाषा और
विषयों का सहारा लिया तो ठीक, यानी मेरे पाले में आकर खेलो
वर्ना दूर ठिठककर पाठक रह जाएगा –कि मेरे तो सर से गुज़र जाता है और आलोचक बरसेगा-
कितनी इतिवृत्ति है, अनावश्यक विस्तार है, एडिटिंग मांगता है , शिल्प अनगढ़ है! सिर्फ
रोना-गाना है, देश-दुनिया की पॉलिटिक्स तो इसमें है ही नहीं
! जैनेंद्र की कहानी ‘पत्नी’ पढी-गुनी
हो ईमानदारी से तो समझ आए कि ‘घर’ जो
समाज और देश की आधारभूत इकाई है उसकी पॉलिटिक्स दुनिया के दो टोलों में बँट जाने
की पॉलिटिक्स है, एक के स्वामित्व और एक की कमतरी को स्थापित
करने वाली पॉलिटिक्स है। लेकिन मर्द को यही एक बस पॉलिटिक्स नहीं लगती ! पब्लिक-प्राइवेट स्पेस का और श्रम के लैंगिक
बँटवारे भी शायद समझ नहीं आते! सारे इलाके घेर लेना और फिर कहना कि – इस वक़्त बाहर
निकलोगी तो मोलेस्टेशन ही होगा, पॉलिटिक्स में जाओगी तो
झेलना ही पड़ेगा, फिल्मों में जाना है तो ‘यह सब’ करना ही होगा, पब में
बैठोगी तो रेप ही होना न! फिर भाषा की सारी श्वेत-श्याम शब्दावली! और ये सारे
विभाजन- द्वेष- हिंसा जहाँ मौजूद है वह भाषा है। जहाँ स्त्री के प्रतिकार दर्ज
होने हैं, वह स्पेस भाषा है और भाषा में है। इसलिए अगर
स्त्रीआंदोलन के दूसरे चरण की मुखर स्त्रीवादी विचारकों ने ‘पर्सनल
इज़ पॉलिटिकल’ का नारा दिया था तो सही ही था। सूसन गूबर ने भी
कहा कि ‘सेक्शुअल इज़ टेक्श्कुअल’ तो
एकदम सही कहा। आखिर भाषा और साहित्य भी एक जगह है ! बेदखली यहाँ भी स्त्री की वैसी
ही हुई जैसी घर में बेघर होकर घर की मालकिन कहलाने वाली हुई !
स्त्री के सामने ,सारी दुनिया में क्रांति करने वाले पुरुष का धीरज चुक जाता है ! पाँच-सात हज़ार हिंदी के पाठकों, जिनमें कविता के पाठक जो उसके
एक-चौथाई से भी कम होंगे, उसमें भी कुछ कवियों
को इस सदी में लगने लगा है कि उनका पीढा औरतें छीने ले रही हैं। यह ‘गाइनोफोबिया’ नहीं तो और क्या है कि कुछ सोचते
हैं पहले तो घरों में चैन नहीं लेने देती थीं, फिर दफ्तरों में बॉस बन बन कर आईं
और अब कविता में भी फूल-पत्ती करने लगीं , एकाध नहीं, हुजूम की हुजूम! यह हाल तब है कि
जब प्रकाशक वे ही हैं,
सम्पादक वे ही हैं, आलोचक वे ही हैं, पुरस्कारों के निर्णायक वे ही हैं, आयोजनों के मालिक वे ही हैं।
आयोजन और पुरस्कार की जाने दीजिए। उनका क्या है
! लेकिन साहित्येतिहास और आलोचना से ही नहीं , सीमांतो पर ढकेली गई स्त्री कविता
तो भाषा से भी पूछेगी ही ‘स्त्रियों की होती है
वह कौन सी जगह जहाँ से गिरकर वे नहीं रहती कहीं की !’
निजता निजेतर के घर आती-जाती है
विचार और सम्वेदना की देहरी के इधर-उधर आवागमन करती और कभी
दोनो की बाहें थाम सैर को निकल जाती अनामिका की कविता इस मानी में हिंदी की स्त्री
कविता का महत्वपूर्ण पड़ाव है कि अनामिका जितना अच्छे से ‘सेक्शुअल पॉलिटिक्स’ को समझती हैं उतना ही वे ‘टेक्स्चुअल पॉलिटिक्स’ को भी बारीकी से समझती हैं। कविता के शिल्प को स्त्री कविता का शिल्प
बनाते हुए अनामिका ने अपनी कविता में लगातार न सिर्फ एक स्त्री-भाषा को गढने की
कोशिश की है बल्कि भाषा के ‘मुच्छड़पन’
की नस-नस जानते हुए उसे ख़ूब अलटा-पलटा, फेरा,घुमाया, उठक-बैठक कराई है और वह बुलवाने की कोशिश की
है जो स्त्री कहना चाहती है। जैसे रोटी फिराई जाती है चिमटे से कि पक जाए बराबर
लेकिन जल न जाए ऐसे कविता में अनामिका स्त्री की उस ‘चुप्पी’ को शब्द देती हैं जो पुरुष की भाषाई मुखरता में अक्सर भीतर घुँट जाती है।
अनामिका के यहाँ भाषा ही कविता है, वही लय है, वही शिल्प है, वही औजार है,
वही पाठ है। भाषा के ज़रिए कवयित्री ने स्त्रीत्व को मुखर बनाया है।
स्त्री लिखती ही क्यों है? अपनी जगह बदलने के लिए । अपनी जगह पाने के
लिए । खुद को समझने के लिए । वह लिखती है क्योंकि मनुष्य है। जब कोई थेरी कहती है
कि मैं आज मरती हूँ और इस तरह मुक्त होती हूँ तो वह पीड़ा और मुक्ति ललद्यद तक ले
जाती है। घर के भीतर के शोषण के कई दस्तावेज़ हैं वहाँ। पूरे परिवारतंत्र में एक
अदना उपेक्षित पुर्ज़ा रह जाने की पीड़ा
हब्बा खातून के यहाँ भी मिलती है । यह
शांत, मारक विद्रोह है परिवार संरचना से बाहर निकल गई
कवयित्री का । मीरा जो लोक-लाज को धता बताती हैं तो साँवरे के रंग में रंग कर
मुक्त हो जाती हैं। लिखना मुक्त भी करता है।
जिसे अपने ‘वजूद की गठरी’ कहती है कवयित्री जिसे
स्त्री कंधे पर उठाए फिरती है कि जाने कब, कहाँ से कहाँ
निकलने की स्थिति आन पड़े उस गठरी में दुनिया भर की स्त्रियों का वजूद समाया है। वह
‘स्त्री उपेक्षिता’ है जिसने प्रतिकार
के लिए उसी भाषा को चुन लिया जिस भाषा में उन्हें पढ़ा गया ऐसे –
जैसे पढ़ा जाता है काग़ज़
बच्चों की फटी कॉपियों का
चनाजोरगरम के लिफाफे बनाने के पहले !...
और जैसे ही स्त्री
प्रतिकार करती है कि – “पढ़ा जाए हमें जैसे समझी जाती है नई नई सीखी हुई भाषा” तब
चारों तरफ चीख-पुकार मच जाती है
दुष्चरित्र महिलाएँ, दुष्चरित्र
महिलाएँ –
किन्ही सरपरस्तों के दम पर फूली –फलीं
अगरधत्त जंगली लताएँ !
खाती-पीती, सुख से
ऊबी
और बेकार बेचैन , आवारा महिलाओं
का ही
शगल है ये कहानियाँ और कविताएँ ...!
जैसे हेलेन सिक्सू भी कहती है कि स्त्री का लिखना प्रतिरोध
है उसका । लिखना उसके लिए अपनी देह की ओर लौटना है क्योकि दरसल प्रतिबंधित देह का
मतलब है, प्रतिबंधित सोच और प्रतिबंधित
लेखनी। इस तरह लिखना स्त्री का, दमन की उस संरचना से खुद को
फाड़ कर अलग कर लेना है जहाँ उसके लिए जो जगह नियत है वह ‘अपराध-बोधों’ से भरी हुई है। यह वजूद चिंदी-चिंदी हो जाना और पूरी दुनिया में बिखर
जाना, किसी झाड़ी में अटक जाना अपनी तय की गई‘औरत की जगह’ से मुक्त होना,
व्याप्त हो जाना है।
लद्दाख की सड़क पर कोकाकोला की टूटी बोतल के काँच से एक बूढे
भोटिए की हथेली में बाँधने के लिए कपड़ा नहीं , अपना ही वजूद फाड़ती है छोटे-छोटे टुकड़ों में, यह
बाहर निकलना अपनी सीमाओं से, अपने तहाए हुए पन से, सिमटेपन से, तभी समाज के लिए भी कल्याणकारी हो
सकेगा वजूद, कहने को यह कश्मीर की सरहद से लल्लद्यद का बयान
है, एक थेरी वह भी है, उसी की अविछिन्न
परम्परा कवयित्री तक चली आई है।
फाड़ रही हूँ टेढ़ा-बाकुल !
एक की बाँधी है पट्टी पट्टी किसी तरह,
बाकी का उड़ा रही हूँ परचम !
मजाज़ कहते हैं जैसे – ‘तेरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन/ तू इस
आँचल का एक परचम बना लेती तो अच्छा था...’
अपने उपेक्षित वजूद को पहचानने की कोशिशें, अपनी स्त्रीत्व के प्रशिक्षण
को समझने-समझाने के प्रयास, सीमोन की भाषा में कहें ‘जैसे औरतें बनाई जाती हैं’ उसकी परख और
प्रतिकार-विद्रोह के तेवर कुछ इस तरह ओवरलैप करते हैं एक दूसरे को कि फाँसी लगाने
से पहले पंखे की धूल झाड़ने की इच्छा होती है एक तरफ तो कभी लगता है –
धीरे-धीरे मेरे कंधे से
उतर रहा है घर
या फिर गृहलक्ष्मी सीरीज़ की कविताएँ ! घर की दुछत्ती, ख़राब घड़ी, केसरॉल की
आखिरी रोटी से लेकर कोई भी उपेक्षित सामान कवयित्री के लिए साथी हो सकता है जिससे
वह बतियाती है, दोनो समझ लेते हैं कष्ट एक दूसरे का। फिर
अचानक से एक विद्रोही तेवर प्रकट होता-
कल मैं सोई मिट्टी पर
हरसिंगार के नीचे
एक अकेली औरत का
ऐसे सो पाना
एक पराक्रम है पूरा !
स्त्री क्या चाहती है ? यह सवाल फ्रॉयड के पूछने
का है ही नहीं । यह स्त्री का ख़ुद से पूछा जाने वाला सवाल है । अमरीकी स्त्रीवादी बेट्टी फ्रीडन ने अपने सर्वेक्षण में
इसे समझा कि अपनी पहचान क्यों ज़रूरी है -इस सवाल की मुश्किल से बचने का सबसे आसान
तरीका लड़कियों के लिए शादी है । आखिर हमारी पिछली सभी पीढ़ियों ने यही किया है और
पिछले सौ साल से पहले हमारे पास घर से बाहर निकल कर पहचान बनाती आम औरतों का कोई
इतिहास नहीं है । इसलिए ‘मैं क्या चाहती हूँ’ लड़कियों के लिए ज़्यादा मुश्किल सवाल है जिनकी माओं ने अपना जीवन घर
परिवार को बनाते-बांधते और गृहस्थन होने की ट्रेनिंग लेते-देते गुज़ार दिया ।
पाब्लो नेरुदा जब लिखते हैं कि ‘मैं सिर्फ पत्थरों या ऊन का
विश्राम चाहता हूँ’ तो बड़ी सादगी और भोलेपन से से कहना चाहती
है कवयित्री
दर्ज़ी की दूकान हो या सिनेमाघर –
कितना ज़रूरी है जाने को एक जगह, करने को एक काम !
यह अपने स्पेस, दुनिया में अपनी जगह, अपनी अस्मिता, अपने मक़सद की अनवरत तलाश और सहज
जिज्ञासा अनामिका की कविताओं में समाई सृष्टि की समस्त स्त्री में दिखाई देती है।
भीतर से बाहर और बाहर से भीतर की यात्रा लगातार चलती है। दो दुनियाओं के बीच
दरवाज़े खुले रहते हैं हमेशा और एक खुली छत से झाँकता बड़ा सा आसमान ।
सेक्शुअल इज़ टेक्श्चुअल
अपनी
स्त्रीभाषा और स्त्रीवादी एजेण्डा के साथ यह कविता में स्त्री की लैंगिक उपस्थिति
का क्लेम भी है कि भाषा में ‘जिसको भी पूँछ उठाकर देखा, मादा ही पाया’ वाले इकहरेपन को चुनौती मिले। प्रेम
और मातृत्व के इर्द गिर्द बुना गया स्त्री मिथक टूटना ज़रूरी है। प्रेम का
प्रश्न्चिह्नित होना ज़रूरी है। अनामिका के यहाँ मौसियाँ-नानियाँ-दादियाँ और
बेटू-बेटी के बीच पुल सी तनी हुई स्त्री है जो अक्सर कामकाजी है और बच्चे के
होमवर्क के साथ साथ अपने जीवन के भी उन रिक्त स्थानों के बारे में सोचती चलती है
जिन्हें कभी नहीं भरा उसने। यहाँ माँ के भीतर पेण्डुलम सा दोलन करती स्त्री है जो
अपने स्त्री होने के वजूद और अपने सम्बंधों की गुनगुनाहट के बीच बिना रुके-थके आती
जाती है। ‘एक स्त्री का पहला राजकीय प्रवास’ का वह मार्मिक स्थल है कि पहली बार परिवार से दूर आकर स्वयम एकांत पहली
बार महसूस करती है, डनलप पर लेटती है तो घर की चटाई चुभती
है- ‘तो क्या राजकुमारी ही होती है हर औरत !’ फिर सारी डॉलर खर्च करके पहले बेटे को फोन मिलाती है कहते हुए कि तुम ही
सबसे प्यारे हो। फिर दो फोन और मिलाकर यही दोहराती है – आफिस में खिन्न बैठे अंट-शंट सोचते अपने प्रिय से फिर, चौके में चिंतित, बर्तन
खटकती अपनी माँ से तीनों से के ही बात कहने की बेईमानी पर खुदा के सामने उसकी
पेशी होती है। लेकिन खुदा यह कहकर कलम रख देता है कि -
“औरत है, उसने यह ग़लत नहीं कहा!”
“औरत है, उसने यह ग़लत नहीं कहा!”
और मानो आधुनिक स्त्री-जीवन की समस्त विडम्बनाएँ साक्षात हो
जाती हैं । अनामिका लगातार भाषा की झाड़-पोंछ कर रही हैं कि वह स्त्री-सम्वेदना को
अभिव्यक्त करने के क़ाबिल हो जाए । जब पुरुष उसे
‘झाड़’ रहा है वह मन ही मन गाली दे, कोसे अपनी किस्मत को या एकदम ही उस तरफ से अपना स्विच ऑफ़ कर ले और किसी
निर्जीव चीज़ से बात करने लगे उसे अपना साथी, प्रेमी बना
ले...अवहेलना भी न हो उस पुरुष की और अपना विद्रोह भी बचा रह जाए, पढने वाला कसमसा कर रह जाए। ‘फर्नीचर’ कविता की शुरुआत में ही कहती हैं –
मैं उनको रोज
झाड़ती हूँ-.
पर वे ही हैं इस पूरे घर में.
जो मुझको कभी नहीं
झाड़ते!
और इसी तरह ‘पगड़ी’ कविता में
पिता
की पगड़ी से ,अकेले पढने/नौकरी के लिए शहर में आई लड़की को जो देनी होती है भाड़े के मकान
के लिए पगड़ी से लेकर कविता यहाँ तक जाती है –
मैं
सारी दुनिया उठा लूंगी माथे पर
अपने
ही आँचल ही बाँधे हुए पगड़ी
‘चुनरी में दाग़’ का अर्थ ही बदल जाता है जब चौदह साल
की सेक्स वर्कर अपने अंकलनुमा क्लाइण्ट को कहती है, माहवारी
होने वाली है शायद मेरी अपनी शर्ट दूर हटा लो वर्ना बीवी पूछेगी यह दाग़ कैसे लगा!
मुहावरों को मौका मिलते ही प्रश्नाकिंत करती हैं – बेगानी शादी में अब्दुल्ला
दीवाना/ हुआ कि नहीं- मैं नहीं जानती/अलग-अलग दुखों की टोकरी उठाए/ लेकिन ये
दीवानियाँ नाच रही हैं दे-दे ताली ।
या
फिर ‘ईश्वर की दाढ़ी में तिनका’ होना और ‘चोर-चोर मौसेरे भाई ’ मौसेरे ही क्यों होते हैं, चचेरे क्यों नहीं ! ‘आँखों का पानी’ मुहावरे का अर्थ बदल जाता है जब अकेली, निश्चिंत से
अंधेरों में गुम वृद्धा की पथराई हुई आँखों में ‘इत्ता-सा
पानी बचा है/ बड़ी सख्तजान-सी बूँद बनकर’ या जैसे ‘लेडीज़ संगीत’ कविता में शादी के लिए तैयार होती बेटी
पूछती है माँ से “क्या प्रेम में पड़ना खटाई में पड़ना है अम्मा ?”
शब्द
की ताक़त का भान है कवयित्री को। वह जानती है -
शब्द
ही होते हैं
चप्पू
उचकुन
उड़नखटोला
डेंगा-पानी
वायुयान
रिक्शा
लिल्ली
घोड़ा
कहीं
न कहीं तो पहुँचते ही हैं।
इन
शब्दों की सोचते ही
पैरों
में पंख लग गए मेरे ! (वितृष्णा
थेरी अब बोल पड़ी मेरे ही भीतर से )
उधर
चम्पा थेरी कहती है – मेरे दुखों को सस्ता और दोटकिया कहते हुए वह बोला –‘असली
दुख का स्वाद तुमने नहीं चखा ।’ पूछती है ‘सखियो, दुख का स्वाद उसने चखाया / या फिर चखाया मज़ा ?’ दुख के इन्हीं चखाए हुए मज़ों
से थेरियाँ आ पहुँची थी मुक्ति के लिए बुद्ध की शरण में। “टोकरी में दिगंत : थेरी
गाथा 2014” इस दृष्टि से उनका अब तक का सबसे सशक्त संग्रह है।
मुख्यधारा
साहित्य ने मौखिक रचना को तो साहित्य के दर्ज़े में ही जगह न दी । एक पूरा लोक,
स्त्री की एक पूरी दुनिया साहित्य और साहित्य के इतिहास से बाहर हो गई । इतिहास
में अपना नाम न मिलना भविष्य का बड़ा संकट
है । उस पूरे लोक को उसकी शब्दावली सहित कवयित्री ने अपने काम में जगह बनाने दी है, उस सब को भाषा में ‘क्लेम’ कर
लिया है जिसे साहित्येतिहासकारों ने अनदेखा और ग़ैर-ज़रूरी मान लिया। कवयित्री कहती
है ‘माँओं के बचाए हुए ही बचती है भाषा’ (मातृभाषा: आई.टी. में कार्यरत पुराने सहपाठी के
साथ एक शाम ) अनामिका के यहाँ सहज ही भोजपुरी, अंगरेज़ी ,पंजाबी की अभिव्यक्तियों का भी ख़ूब आना-जाना है! बीच-बीच में लोककथाओं के
बैल और धोबन चिड़िया ही नहीं शेक्सपियर, कंफ्यूशियस बेधड़क चले
आते हैं। अनामिका की कविता पढते हुए लगता है वे -
ढूँढ रही है भाषा ऐसी
जिससे मिट जाएँगी सब सलवटें दुनिया की। ( एक
नन्ही सी धोबिन- चिरैया )
बक रही हूँ जुनूँ में क्या कुछ/ कुछ न समझे ख़ुदा करे
कोई
लड़कियों
को बहस-चर्चा में उलझना नहीं सिखाया जाता। सिखाया जाता है- ‘बेवजह
उलझो नहीं, सुन लो सबकी, करो अपने मन
की !’ (एक पिता की मुश्किलें)
जिस
इमारत में अपने ही बच्चे, पति, प्रेमी, पिता, बहनें, बहनोई, सगे-वाले, नातेदार, पितृसत्ता की संरक्षक अपनी ही माँएँ, सहेलियाँ , पड़ोसिन बहने फँसी हुई हों वहाँ घुस कर
मत्था नींवा करके धीमी-धीमी लगातार ठक-ठक-ठुक-ठुक करते रहने की कविता है अनामिका
की। बनी हुई दरारों से वह गहरे उतरती है और तहखाने में पहुँच कर चिल्लाती है, पुरुष ईगो को सीधा चोट नहीं पहुँचातीं। अपना थोड़ा-ज़रा सा काम निकालने, जीते रहने के तरीके खोजने को स्त्री-भाषा को गज़ब का मैनीपुलेशन
मिला है। इससे स्त्री-भाषा में जो लचीलापन और गतिशीलता आई है वह लेखन में एक नई
ताक़त पैदा करती है। जूलिया क्रिस्टेवा जानती हैं कि बात-चीत के किसी भी मोड़ पर से
स्त्री को ‘वापस लौटना पड़ सकता है’ इसलिए
वह अक्सर ‘निश्चयात्मक’ नहीं होती।
इसलिए भी भाषा के ‘स्त्री-पाठ’ अक्सर
खुले हुए पाठ होते हैं। एक व्यवस्था जहाँ प्रिय गुलाम को भी मालिक को सीधा चुनौती
देने की हिम्म्त नहीं, जहाँ घुमा-फिरा कर कहनेपर बात फिर भी
सुन ली जाएगी यह सम्भावना है, सीधा कहने को तो द्रोह ही मान
लिया जाएगा वहाँ अनामिका स्त्री-भाषा के इस मैनीपुलेशन को अपने विट और इण्टेलेक्ट
के साथ बखूबी इस्तेमाल करती हैं।
कितने बरस अभी और रहेंगे आप
इसी पाँचवीं कक्षा के बालक की मनोदशा में-
लगातार
मुझको काटते-छाँटते
गोदी में
मेरी
नन्हीं
इकाइयाँ बिठाकर
(भिन्न )
सब
बात कह चुकने,कटाक्ष करने के बाद ‘कह देती हूँ जो-सो’ कहकर अक्सर वे प्यार से निकल जाती हैं। जैसे गालिब कहते हैं ‘बक रहा हूँ जुनूँ में क्या कुछ , कुछ न समझे खुदा
करे कोई’ लेकिन चाहत
तो यही है न कि जिसे समझना चाहिए वह कम से कम समझ ले !
स्त्री
कविता का ‘मैं’ व्यक्तिवाचक मैं नहीं होता। वह समूचे हाशिए की
दुनिया का प्रतिनिधित्व करने वाला ‘मैं’ है। वह हाशिया जिसने एक जैसा इतिहास साझा किया है,
जिसे प्रकृति से एक जैसी देह मिली है, लैंगिक-भेदभाव और
उपेक्षा जिसकी विरासत रही है। अर्थ और देह के स्तर पर जिसका शोषण पूरी दुनिया में
पितृसत्ता और पूंजीवाद एक तरह से कर सकते हैं। जिसके पास कोख है, योनि है और विशिष्ट श्रम है। अनामिका लिखती हैं- मैं दरवाज़ा थी, जितना पीटी गई उतना खुलती गई। जितना पीटी गई ‘खुलती
गई’ जैसे एक पूरा इतिहास हो स्त्री जीवन का । स्त्री के
खिलाफ हिंसा की खबरों से रोज़ का अखबार रंगा होता है लेकिन खुली तभी तो दुनिया ने
जाने उसके कष्ट-उपेक्षा-पीड़ा और वह कर पाई दावा अपने मानाधिकार का । वह खुली तो
उसने लिखा और पढवाया खुद को। पाकिस्तानी शायरा किश्वर नाहिद लिखती हैं- घास भी मेरी तरह है/जैसे ही यह होती है सिर उठाने योग्य/ आ पहुँचता है कटाई करने वाला/उन्मत्त ,बना देने को इसे मुलायम मखमल/ और कर देता
है इसे चौरस । सारी दृढ़ता समाप्त करके बिछने लायक
कोमल बना दिया जाना... कुचला जाना घास का। जॉन स्टुअर्ट मिल से लेकर जर्मेन ग्रियर
तक तर्कबद्ध करते हैं स्त्री को बधिया किए जाने के इस सामाजिक अनुकूलन को । एक अमरीकी
कवि मार्च पियर्सी की कविता है- ‘मून इज़ ऑल्वेज़ फीमेल’ चाँद हमेशा से स्त्री है
– यह कहा जाना उस सम्वेदना और उस भाषा की पहचान है जिसके मूल्यांकन के लिए घिसे
घिसाए मानक नही चल सकते। सीमाओं के पार भी
एक संसार है जिसका अतीत एक है, एक पुराना घाव जो हरा होता है
हर बलात्कार की खबर के साथ। एक पीड़ा है जिसे कोई भी स्त्री महसूस करती है जब फीमेल
जेनिटल म्यूटिलेशन (यौन सुख को कम करने के लिए मादा जननांगों को पूरा या आंशिक रूप
में विकृत कर दिया जाना) से गुज़रती स्त्री की कल्पना करती है। स्त्री की सम्वेदना
उसकी समस्त जाति की सम्वेदना की अभिव्यक्ति हो जाती है । वेरा पाव्लोवा स्त्री के
लिए उस कछुए का बिम्ब लाती हैं जो कभी खुद से असहाय नहीं होता जब तक कि प्रयत्न से
कोई उसे पीठ के बल न पलट दे । यह भाषा और बिम्ब स्त्री –भाषा और स्त्री कविता के
वे बिम्ब हैं जिन्हें समझने के लिए कम से
कम अभी हिंदी के पास कोई आलोचना पद्धति नहीं है ।
अनामिका का बिम्बों का चयन निराला है। अकेलेपन और
उपेक्षा के लिए घर, आँगन, रसोई से जाने कितने
बिम्ब हैं जिनपर हम ध्यान ही नहीं देते। केसरॉल की आखिरी रोटी, घर की दुछत्ती, बारिश में भीगता हुआ
पोछा। शिल्प में जितना प्रतिकार और विद्रोह है ! उतना ही कथ्य में ! बुद्ध, ईसामसीह याद आते हैं
लेकिन ईसामसीह तुम स्त्री नहीं हो सकते थे यह भी जोड़ देती हैं! अनामिका का
प्रतिरोध उस संरचना के भीतर रहकर है जिसमें स्त्री-लेखन को इतिहासकारों ने काबिले
गौर नहीं समझा। बालकनी से कुत्तों पर पत्थर उछालने जैसा नहीं, पानी में रहकर मगर
से बैर करने जैसा ! इसलिए मेघदूत भी याद आते हैं कूरियरवाले को देखकर, हबीब तनवीर याद आ
जाते हैं, विद्यापति का गाँव
याद आता है, कुमारजीव, बुद्ध याद आते हैं
और फिर थेरियाँ जो बुद्ध से भी प्रश्न करती हैं और अन्ना कारेनिना भी जिसे मॉस्को
घूमते हुए गले लगा लिया है कवयित्री ने।
सिस्टरहुड इज़ पॉवरफुल
स्त्रीआंदोलन
के सबसे मज़बूत दौर यानी 1970 से लगभग 1990 तक का यह एक मुख्य नारा था ‘सिस्टरहुड
इज़ पॉवरफुल’ ! ‘स्त्री ही स्त्री की
दुश्मन है’ वाले प्रपंची दिमाग को स्त्री-आंदोलनों का जवाब
था यह ! अनामिका के यहाँ दुनिया की हर स्त्री अपनी ही भगिनी है। ‘टोकरी में दिगंत’ की थेरियाँ कभी बुखार की तंद्रा
में बतियाने लगती हैं अपनी पीड़ा और कभी कवि के भीतर से ही बोल उठती हैं। स्त्रियाँ
ही नहीं, दुनिया की हर उपेक्षित और तिरस्कृत शय से उनका
बहनापा है जिसे इस्तेमाल के बाद त्याग दिया गया, अनुपयोगी
होने पर फेंक दिया गया, जिस पर ध्यान ही नहीं दिया गया कि
ज़रूरत खत्म हुई। ‘हकासी-पियासी सड़क चल रही थी मेरे साथ!’ सम्बन्धों की परख, अपने आप से बात करना ख़ूब मिलता
है। निश्चय-अनिश्चय, संकल्प-विकल्प,
उधेड़-बुन सब। बार-बार प्रश्न चिह्न आते हैं। स्त्री-भाषा बराबर सम्वादोन्मुखी होती
है! थेरियों से खुद को एक परम्परा में जोड़ते हुए कहती हैं -
अब
मेरा रास्ता आसान था !
उनके
पदचिह्न टोहती
उलटी
दिशा में लौटी
उन
थेरियों तक
जिन्होंने
उनको
उन-तक
ही भेजा था
वापस
!
(गठरियाँ)
आम्रपाली,
मुक्ता, सुजाता, तिलोत्तमा, चम्पा थेरी के साथ साथ लल्ल्द्यद भी हैं और मज़ेदार है कि एक स्मृति, विस्मृति, तृष्णा और भाषा थेरी भी है इन थेरियों
में। दुनिया भर की नानियाँ- मौसियाँ –दादियाँ, पुरधाइन, रमावती नाइन,
प्रेसवाली,श्रीमती सावित्री पाठक, यौन
–दासियाँ,सेक्स-वर्कर्स, इराक-युद्ध की
सैनिक-विधवाएँ, जलेबा-बुआ, वृद्धाएँ जो
धरती का नमक हैं, वे मध्यवर्गीय औरतें भी जो पिट कर
ब्यूटी-पार्लर जा सकती हैं बरफ-पट्टी करवाने और कुठा शमन के लिए शॉपिंग, चचा ट्रांसलेशन, पुस्तकालयों में टिफिन बाँध कर
लाने वालेवृद्ध, कूड़ा बीनते बच्चे,
ट्राफिक सिग्नल पर भीख माँगते बच्चे, वे सब ‘बाहर के आदमी’ जिनकी गिनती कोई कुटुम में नहीं करता
और वे जाने कहाँ के होते हैं...उन सभी को कवयित्री के सम्वेदना-संसार में जगह मिली
है। ‘रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी’ की
तर्ज़ पर ‘कविता लिखती हूँ जैसे पृथ्वी’।
कवयित्री को अति-साँकरी नेह-गली नहीं चाहिए बल्कि ऐसा मोहल्ला चाहिए ‘जिसमें समाए सब
इसरे-बिसरे आइली-बाइली’
यहाँ
तक कि पूरी प्रकृति । ‘होती ही हैं औरते हवा, पानी और मिट्टी !’ ‘हलो धरती-हलो पानी’ कहती हुई
एकाकार हो जाना भी चाहती है उसी प्रकृति से और कचरे, पॉलीथीन
से पटती जाती धरती का दुख भी है। ईको-फेमिनिस्म अनामिका के यहाँ एक ज़रूरी हिस्सा
है।
चिड़िया जाल में फँसी, क्योंकि वह चिड़िया थी
अनामिका
का पहला कविता संग्रह 1975 में आया था पंद्रह वर्ष की अवस्था में। तब से 1993 में
आए संग्रह ‘बीजाक्षर’ में उनकी काव्य-सम्वेदना और भाषा को आकार
लेते हुए देखा जा सकता है। ‘पेड़, तारे, अंतरिक्ष पृथ्वी की ज़िद ही तो है ठनी हुई’ से लेकर ‘वह रोटी बेलती है जैसे पृथ्वी’ और ‘कामकाजी औरतों का सो जाना बस में’ धीरे-धीरे एक
स्त्रीवादी दृष्टि और भाषा में पक कर तैयार होती है जहाँ औरते जितनी हैं उतनी ही सम्वेदनशील
अभिव्यक्ति-समर्थ और प्रश्नाकुल और आत्म-चेतस! लेकिन यह स्त्री बेतरह अकेली है।
उसके पुरुष साथी को, एक नए पुरुष को उसके लायक होने में अभी
और मेहनत करनी है। मेहनत ईमानदारी माँगती है। अपने साथी की चेतना को कभी प्यार भरी
लताड़ से, कभी आईना दिखाकर, कभी उलाहनों
से वह उस ईमानदारी के रास्ते ले जाना भी चाहती है, उसके हाल
पर छोड़ देना नहीं चाहती। अनामिका के पास स्त्री-विमर्श की आधुनिक दृष्टि, स्त्रीवाद के इतिहास की समझ, एक समर्थ भाषा और गहरी
काव्यात्मक सम्वेदना है; बराबरी की आकांक्षा के साथ जो पूरे
जड़-चेतन को अपना साथी मान लेती है। वे अपने अध्ययन और अनुभव से जानती हैं कि ‘चिड़िया जाल में फँसी/ क्योंकि वह भूखी थी’ भाषा का
पितृसत्तात्मक पाठ है। इसका अधिक पैना और खुला पाठ या कहें सम्भावना-भरा पाठ है ‘चिड़िया जाल में फँसी / क्योंकि वह चिड़िया थी’। यह सम्भावनाशील
पाठ स्त्री पाठ है और स्त्री कविता को इस तरह पढने के लिए आज की आलोचना को
स्त्रीवाद, स्त्रीवादी आलोचना,
अंतर्पठनीयता की समझ बेहद ज़रूरी है।
1 comment:
"प्रेम और मातृत्व के इर्द गिर्द बुना गया स्त्री मिथक टूटना ज़रूरी है।"
पढ़ते हुए वाकई बहुत कुछ सोचा। अच्छा लेख।
:)
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