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सुजाता
साल बीतते जाते हैं फिर भी एक सोलह दिसम्बर बचा रहता है
जो कई सालों से नहीं बीता। न वह नया होता है न पुराना। वह बस टंग गया है दीवार पर।
तारीखें बदलती हैं तासीर नहीं बदलती। यह
हमेशा उतना ठण्डा रहता है जितना बलात्कार के बाद चलती बस से फेंक दिए नग्न शरीर ।
यह उतना ही सफेद रहता है; जितना सफेद हम सबके चेहरे बलात्कार के ब्यौरे
सुनने के बाद। इसके ज़ख्म इतने हरे रहते हैं कि, 2016 में भी ठीक 16 दिसम्बर को ही एक गैंग रेप
दिल्ली की सड़कों पर होता है और फिर 17 दिसम्बर को दिल्ली के किसी और इलाके में
उसका रिपीट टेलेकास्ट भी। यह उतना ही गीला रहता है जितना राष्ट्रपति भवन के बाहर
नारे लगाते, निर्भया के लिए न्याय की गुहार
लगाते लड़के लड़ॅकियाँ पुलिस की पानी की बैछार से और अपने आँसुओं से गीले थे।
कठुआ, उन्नाव, सूरत, सासाराम ; देश जैसे
बलात्कारों से रंगा हुआ है इस वक़्त। रोज़ के अखबार और समाचारों से हम बलात्कार की
खबरें और उनकी डीटेल्स इकट्ठी कर पढें तो दिन के अंत तक उबकाई, आक्रोश,तनाव,
व्यर्थता-बोध और माइग्रेन से अधमरे हो जाएँ। लेकिन सच यह है कि धीरे-धीरे सब
उदासीन होते जा रहे हैं। उफ़ ! एक और बलात्कार ! और फिर सब अपने-अपने काम पर। फिर
किसी दिन कठुआ में बकरवाल समुदाय की एक आठ साल की बच्ची को बेहोशी की हालत में कई
दिन तल लगातार बलात्कार किए जाने और अंत में पत्थर मार-मार कर हत्या कर देने की
खबर, उसके गुनगहगारों के समर्थन में एकजुट वकीलों के
प्रदर्शन और सरकार की चुप्पी, ठीक उसके
साथ-साथ उन्नाव में एमएलए द्वारा एक लड़की का रेप, उस लड़की के
मुँह खोलने पर पिता को पुलिस कस्टडी में लेना और वहाँ उसकी मौत...यह सुस्त पड़ गए, उदासीन हो
गए जनसमुदाय को एक बार फिर सड़क पर ला खड़ा कर देता है,
प्रतिरोध-मार्च करते हुए, हस्ताक्षर
अभियान चलाते हुए,चिल्लाते हुए, नारे लगाते
हुए, प्रदर्शन करते हुए।
बलात्कार : पुरुष का पुरुष के खिलाफ किया गया अपराध !
हम बलात्कार के प्रकारों और भेदों के बारे में विस्तार
से बात कर सकें, इतनी तरह के बलात्कार रोज़ाना घटित
हो रहे हैं। वर्गीय कुण्ठा से, जातीय ठसक
से, मनोरंजन के लिए, न बुझने
वाली हवस के लिए, बदले के लिए, दमन के लिए, ताकत के
प्रदर्शन के लिए, सत्ता के मद में, विकृत
मानसिकता से; नवजात बच्ची से लेकर बूढी स्त्री तक
के बलात्कार।
क्या है बलात्कार? अपनी लैंगिक
ताकत का प्रदर्शन ? डराने-धमकाने की एक सचेतन प्रक्रिया जिसके
ज़रिए तमाम पुरुष दुनिया की तमाम औरतों को एक निरंतर भय की अवस्था में रखते हैं।
कहना चाहिए प्रागैतिहासिक काल में जब मनुष्य ने बलात्कार का अविष्कार किया होगा
उसने भी उसी तरह मानव इतिहास को बदल कर रख दिया जैसे कि पहिए , आग और लोहे
की खोज ने। कबीलाई समाजों में औरतें जीती और उपहार में दी जाती रहीं। और भी मज़ेदार
है कि बलात्कार का इतिहास खोजने जाएँगे तो आप धार्मिक और पौराणिक दस्तावेजों तक
पहुँचेंगे। बलात्कार सम्बन्धी कानूनों का इतिहास खंगालेंगे तो समझ आएगा कि
बलात्कार को कभी पुरुष का स्त्री की गरिमा के खिलाफ़ किया गया अपराध या औरत के वजूद
पर हमला नहीं माना गया। इसे स्त्री के मालिक, घर के
मुखिया पिता या पति की इज़्ज़त के खिलाफ़ किए गए अपराध की तरह कानूनों में देखा गया। यह
पुरुष का पुरुष के खिलाफ किया गया अपराध था। उसी तरह से दण्ड तय हुए। आज कानून भले
बलात्कार की परिभाषा करते हुए स्त्री की गरिमा पर चोट को महत्व देता है, उसकी
स्वीकृति/ अस्वीकृति को महत्वपूर्ण मानता है लेकिन समाज अब भी उस कबीलाई मानसिकता
में है कि किसी समुदाय से बदला लेना या सबक सिखाना है तो उसकी औरत या बच्ची पर
यौनिक हमला किया जाए।
यह सीधा-सीधा उस व्यवस्था का मामला है जो अपने मूल
चरित्र में मर्दाना है। यह उस सामाजिक अनुकूलन का मामला है जिसके अनुसार स्त्री
“सेकेण्ड सेक्स” है, दोयम दर्जे की नागरिक है, वस्तु सम
है। खुला हुआ खज़ाना जिसे मौका मिलते ही लूटा जा सकता हो। इसलिए स्त्री पर किसी भी
किस्म की हिंसा दरअसल उसकी देह पर ही हमला होती है। कहना चाहिए उसकी उसकी यौनिकता
पर। उसे उसकी जाति के लिए सबक सिखाना है तो यौन हिंसा। उसकी स्कर्ट से चमकती टांगे
उसके स्वस्थ और अच्छे परिवार से होने की गवाह हैं। वर्गीय कुण्ठाएँ अंतत: यौन
हिंसा का ही रूप लेती है। स्त्री गरीब, दलित है तो
भी यौन वस्तु के रूप में वह उपलब्ध समझी जाती है। स्त्री की यौनिकता का दमन करके
ही उसकी हिम्मत को तोड़ा जा सकता है यह सोच हमारी सामाजिकता की नींव में ही है। ना
कहने पर एसिड फेंक दिया जाएगा,चरित्रहनन
किया जाएगा, बलात्कार किया जाएगा, हत्या की
जाएगी। वाचिक हिंसा में भी स्त्री जननांग
और यौन क्रियाएँ ही निशाना बनती हैं। मानो यह देश स्त्रियों का देश है ही नहीं। मानो
इस देश की अर्थव्यवस्था में औरतों का होना कोई मानी ही नहीं रखता।
क्या हर पुरुष एक सम्भावित बलात्कारी है ?
पुरुष-यौनिकता पर हम बहुत कम बात करते हैं। लेकिन जब
होती है तब बहुत सी बातें जो विचलित करती हैं वे सामने आती हैं। जब अप्रैल 2015
में नंदिता दास का यह कथन ’एवरी मैन इज़
अ पोटेंशियल रेपिस्ट’ ट्वीट हुआ और ट्रेण्ड करने लगा और
फिर इस पर ट्रॉलिंग भी हुई तब मर्द-औरत इस सदमे में आ गए कि क्या ‘उन्हें’ बलात्कारी
कहा जा रहा है? अपनी किताब ‘अगेंस्ट आवर
विल’ में सूसन ब्राउनमिलर विस्तार में बलात्कार के इतिहास
में गई हैं और समझने की कोशिश की है कि कैसे सामाजिक-संरचना और पितृसत्तात्मक
व्यवस्था ने मर्दों के शिश्न को यौन-हथियार में बदल दिया। यौन आनंद की एक जटिल व्यवस्था
बनाई है मनुष्य ने। पशु-जगत में बलात्कार नहीं होते। वहाँ ‘मेटिंग’ होती है।
वक़्त, मौसम और तरीक़े तय हैं। मादा का
संकेत न मिले तो नर के लिए सम्भोग का कोई तरीका नहीं है। वे प्रकृति की एक विराट
योजना का हिस्सा हैं। मनुष्यों में नर स्त्री की इच्छा, इजाज़त, हीट पीरियड
में होना/ न होना जैसी किसी अड़चन के बिना भी यौन-सुख हासिल कर सकता है। मानव-मादा
मानसिक-भावनात्मक-दैहिक तौर पर तैयार है या नहीं इस बात की परवाह किए बिना मानव नर
स्त्री देह में कभी भी, किसी भी
समय, जब भी,उसके दिमाग
में सेक्स की घण्टियाँ बजने लगें, प्रवेश कर
सकता है। करा सकता है। इसका सीधा मतलब यह कि मानव नर ‘रेप’ कर सकता
है। यानी टेक्निकली यह सम्भव है। सब उसका दिमाग नियंत्रित करता है
और दिमाग को यौन-राजनीति। इसलिए जब उन्नाव से विधायक कैमरा पर चिल्लाता है कि ‘क्या बात
करते हैं! तीन बच्चों की माँ का भी कोई
रेप कर सकता है?’ तो हँसी ही
आती है। जिसके पास एक स्वस्थ लिंग और बुरी तरह लैंगिक-गैर-बराबरी में यकीन करने
वाला अस्वस्थ दिमाग है वह रेप कर सकता है ।
पुरुष की हमेशा असंतुष्ट कामेच्छा को लेकर एक कम्बोडियाई
कहावत है- ‘दस नदियाँ मिला कर भी एक सागर को
नहीं भर सकतीं’। वैवाहिक रेप तो और भी अस्वीकृत अवधारणा
है भारतीय संस्कारी समाज में। जब पुरुष मालिक हुआ तो उसका कोई यौनिक-कृत्य अपराध
कैसे हुआ,जिसके लिए कि वह समाज से
लाइसेंस-प्राप्त है? जो स्त्री के संकेत पर, बिना किसी
दबाव के हुआ ऐसा फ्री-सेक्स निंदनीय है। इसलिए कि वह स्त्री की यौनिकता को स्वीकार
करता है लेकिन पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री का यौन सम्बन्ध के लिए संकेत देना तो
छिनाल होने का लक्षण है।
यह हैरान करने वाला है कि औरतों के साथ तो बलात्कार समझ
आता है, नवजात और बच्चियों के साथ भी
बलात्कार ? कहाँ से आ रहे हैं चाइल्ड रेपिस्ट? सामाजिक
दृष्टि से कमज़ोर,दलित, अल्पसंख्यक, गरीब, आदिवासी
समुदायों की स्त्रियाँ, बच्चियाँ
बलात्कारों की शिकार होती रही हैं। क्या यह एक साथ पूरी की पूरी सामाजिक व्यवस्था
के ध्वस्त होने का संकेत है? क्या पूरी
की पूरी संरचना ही विकृति का शिकार है? परवर्ट है? मानव-मादा
की व्यवस्था में दोयम स्थिति ने धर्म, जाति, वर्ग, राजनीति और
ताकत की बाकी सच्चाइयों से मिलकर मानव-नर को स्त्री-द्वेषी और परपीड़ा में आनंद
लेने वाले मनोरोगी में तब्दील कर दिया है ?
क्या वाकई बलात्कार को एक सामान्य दुर्घटना की तरह देखा
जा सकता है? क्या सिर्फ यह माना जा सकता है कि
अपने मर्दाने बल का इस्तेमाल करके कोई पुरुष अपने यौन आवेग को शांत करता है? पिछले कई सालों में बलात्कार के इतने प्रकार हम
खबरों में देख-सुन और अखबारों में पढ चुके हैं कि बलात्कार सिर्फ इतना भर
मामला नहीं लगता कि इसे एक दुर्घटना कहा जा सके। आखिर , किसी दलित
स्त्री पर गाँव के सवर्णों द्वारा की गई यौन हिंसा या वर्गीय और नस्लीय भेद भाव के
चलते की गई यौन हिंसा सिर्फ यौन आवेग की शांति के लिए स्त्री पर किया बल प्रदर्शन
नहीं है। कठुआ में, देवस्थान में घटित बलात्कार-काण्ड
इसी की गवाही है। आसिफ़ा जिस बकरवाल मुस्लिम घुमंतू समुदाय से थी वह जम्मू-कश्मीर
की अनुसूचित जनजाति समुदाय का एक बड़ा हिस्सा है और सामाजिक रूप से पिछड़े माने जाते
हैं।
बलात्कारी पैदा नहीं होते, बनाए जाते
हैं
पुरुष मूलभूत रूप से बलात्कारी नहीं हैं। कहना चाहिए कि
वह प्राकृतिक रूप से बलात्कारी नहीं है। मर्द बलात्कार करने के लिए पैदा नहीं होते।
बल्कि बलात्कार पितृसत्तात्मक-शक्ति-संरचना से संचालित सम्बन्धों का उत्पाद है
जिसे सैद्धांतिक रूप से और संस्थाबद्ध तरीके से लागू किया जाता है, चलाया जाता
है, मनवाया जाता है। बलात्कार प्राकृतिक नहीं। यह सामाजिक
है। सामाजिक ट्रेनिंग का हिस्सा। एक राजनीतिक कृत्य । यौनिक-राजनीति।
ब्राउनमिलर अपनी किताब में बताती हैं कि कैसे
यौनिक-सम्बन्ध उस अथॉरिटी की वजह से व्याख्यायित होते हैं जो उन मामलों में पुरुष
के पास होती है जबकि उसे अपनी विद्यार्थी, अधीनस्थ
कर्मचारी, अधीनस्थ अदाकारा, ट्रेनी,मरीज़, नौकरानी, बेटी, भांजी, भतीजी पर
सीधा शारीरिक-ताकत या धमकी भी इस्तेमाल नहीं करनी पड़ती। उसका उस वक़्त एक कद्दावर-
व्यक्तित्व होना ही काफी होता है। इसे पुरुष ‘उकसाना’ कह सकते
हैं। यह भी ‘उकसावे’ को
पुरुष-दृष्टि से व्याख्यायित करना है। बच्चियों के बलात्कार के मामले में तो इसे
सिरे से खारिज किया जाना चाहिए। ब्राउनमिलर लिखती हैं- लेकिन यौन-हमले का सबसे
भयावह रूप बाल-यौन-हिंसा में देखा जा सकता है क्योंकि बच्चे के लिए तो ‘सभी’ वयस्क अप्रतिवाद्य
सत्ताधारी हैं।
जिन्हें परेशानी है कि दुनिया को स्त्रीवाद बाँट रहा है
बार-बार स्त्री के शोषण और संरचनाओं के हर मामले में लैंगिक बँटवारे को रेखांकित
करके वे स्त्री-पुरुष की हर यौनिक/अयौनिक मुठभेड़ और आकस्मिक मिलन को प्रभावित यहीं
करने वाले लैंगिक-भेद को जो समाज की संरचना में पैबस्त है, नकारना
चाहते हैं। एशिया के सेक्स बाज़ार की हकीकत और भारतीय बंद समाज की खोखली नैतिकता को
लुइज़ ब्राउन ने अपनी किताब ‘एशिया का
सेक्स बाज़ार ’ में तफसील से खोला है। वे लिखती हैं “दुनिया भर में देह व्यापार के
निकृष्तम रूपों को झेलने वाले वे लोग हैं जो जटिल, बहुआयामी
समाज व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर हैं। वे स्त्रियाँ हैं,वे गरीब
समुदायों के गरीब परिवारों की सदस्य हैं, वे निकृष्ट
मानी गई नस्लों और जातीय अल्पसंख्यकों की सदस्य हैं। उन्हें अपमानित, शोषित किया
जाता है, उनमें से कुछ को यौन दासता में धकेल
दिया जाता है, सिर्फ इसलिए क्योंकि उनके साथ ऐसा
किया जा सकता है, क्योंकि वे समाज के सबसे कमज़ोर लोग
हैं।” और यह सिर्फ देह-व्यापार को ही नहीं, बलात्कार
के शिकारियों के लिए भी सबसे मुफीद हैं।
बलात्कार पितृसत्तात्मक-शक्ति-संरचना से संचालित
सम्बन्धों का उत्पाद है
इसलिए बलात्कारी सिर्फ एक बीमार व्यक्ति या सामान्य
अपराधी माना जाए तो इसका मतलब आप यह भी मान लें कि एक भयानक लैंगिक-गैर बराबरी भी
सामान्य बात ही हैं। हर उस व्यक्ति में बलात्कारी होने की सम्भावना छिपी है जो स्त्री के प्रति मानसिक-वाचिक
हिंसा में केवल उसकी यौनिकता को लक्ष्य करता है। ‘थ्री इडियटस’ की
बलात्कार और चमत्कार वाला भाषण, उसमें धन
का स्तन हो जाना हमें गुदगुदाता क्यों है? तमाम
कॉमेडी शो ऐसी लैंगिक हिंसा और स्त्री देह को वस्तु में बदल देने की बुरी बीमारी
से ग्रस्त हैं। निर्भया केस के बाद अगर कोई वकील खुले आम समाचार चैनलों पर यह कह
सकता है कि -मेरी बेटी ऐसी होती तो मैं उसे जला देता- तो हमें यह सुनकर दहशत होनी
चाहिए कि लैंगिक-ताकत की राजनीति ने हमें एक समाज के रूप में कितनी बुरी तरह भीतर
खोखला और बीमार कर दिया है। इस हिसाब से यह एक पूरी सभ्यता का रोग है। एक पुरानी
बीमारी। युद्ध-बलात्कारों को ऐसे ही जायज़ ठहराया जाता रहा। युद्धों के समय,दंगों के
समय कुछ बलात्कार तो होंगे ही। मर्दानेपन, वीरता और
शौर्य की एक परिभाषा में हाथ की राइफल और पैण्ट में छिपा यौन-औजार , दोनो ताकत
हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय हवलदारों का यह ड्रिल गीत शक्ति की पौरुषेय
व्याख्या इस तरह करता रहा – this is my rifle, this is my gun.
This is for killing, this is for fun. धीरे-धीरे एक राष्ट्रवाद की मर्दाना
व्याख्या तैयार होती है जिसमें शारीरिक-बल और शस्त्र-बल सब तय करता है। स्त्रीत्व
हाशिए पर जाता है, अधिकृत किया जाता है, जीता जाता
है। शत्रु की स्त्री को नग्न भटकते देखने का खयाल रीतिकालीन कवि भूषण के काव्य की
उस पंक्ति में आता है जिसमें अपने आश्रयदाता की प्रशंसा के लिए वे शत्रु की
दुर्दशा बयान करते हुए शत्रु पक्ष की स्त्री के जंगल-जंगल नग्न फिरने की बात कहते
हैं ‘नगन जड़ाती थी वे नगन जड़ाती हैं’ । कविता की
लय बांधने के लिए , अलंकार का चमत्कार दिखाने के लिए वन
में जाड़ा खाती शत्रु पक्ष की नग्न स्त्रियाँ जो ट्रजडी का समाँ बांधेंगी वह किसी
अन्य प्रकार से क्यों/ कैसे भला सम्भव नहीं होता ! और वैसे भी ‘वीर भोग्या
वसुंधरा ! ’
इस तरह सेक्शुअल पॉलिटिक्स जीवन हिस्सा होती जाती है।
दबंगों द्वारा स्त्री-स्वतंत्रता को नियंत्रित करने के लिए, उसके शिक्षा
और नौकरी के मौकों पर वज्रपात करने के लिए, ,उसे उसकी घर
की सीमाएँ और औकात दिखाने के लिए इस्तेमाल होने लगता है। भँवरी देवी केस आप नहीं
भुला सकते जहाँ एक औरत को निष्ठापूर्वक अपना काम करने के लिए बलात्कार की सज़ा दी
गई। कार्यक्षेत्र पर यौन-उत्पीड़न के सम्बन्ध में विशाखा गाइडलाइन उसी केस में पहली
बार बनी। कानून फिर भी नहीं बन पाया। अप्रैल, 2016 को
केरल में जिशा, जिसे ‘केरल की निर्भया’ कहा गया, के बलात्कार-हत्या का केस सामने
आया। कानून की पढाई
करके वकील बनने का सपना देखने वाली तीस वर्षीय दलित स्त्री का उसी के गाँव के
पुरुष उसी के घर में घुस कर बलात्कार करते हैं, उसके शरीर को रौंदते हैं, उसके किसी भी तरह ज़िंदा बचने की सम्भावना को खत्म करने के लिए तेज़ औजारों
से उसका पेट काट कर अंतड़ियाँ बाहर कर देते हैं। यहाँ स्त्री के खिलाफ हिंसा दरअस्ल
उस व्यवस्थागत औजार की तरह काम आती है जिससे ब्राह्मणवादी-मर्दवादी समाज को
गैर-बराबरी को बनाए रखने में मदद मिलती है।
ऐसे ही सेक्शुअल पॉलिटिक्स फिर पॉलिटिक्स की राह पकड़ती
है और नेता बयान देते हैं कि लड़कों से गलती हो जाती है। फिर सलाहें-नसीहतें कि
कितने बजे के बाद औरतें बाहर न निकलें, फिर जीन्स
और स्कर्ट के दोष गिनाया जाना, विधायक का
रोना कि उसे फँसाया जा रहा है, बलात्कारी
के पाँव पकड़ने की सलाह, पश्चिमी
सभ्यता का प्रभाव वगैरह। बलात्कार के मामले में सबसे मुश्किल चीज़ ‘स्वीकृति’ को
परिभाषित करना बना दिया गया। कैथरीन ए. मैककेनन कहती हैं कि यौनिकता दरअसल
पुरुष-सत्ता की निर्मिति है । स्त्री/पुरुष के अंतर को समर्पण/ प्रभुता की तरह
देखा गया है। यौनिकता की जो भी अवधारणा समाज में पैठी हुई है वह लैंगिक-असमानता और
पितृसत्तात्मक प्रभुत्व के ज़रिए बनी है। यह किसी भी यौनिक सम्बन्ध, बलात्कार,
यौन-उत्पीड़न और यहाँ तक कि पॉर्नोग्राफी को भी प्रभावित करती है।
राष्ट्रवाद का नया अतिरेक: बलात्कार के पक्ष में
भारत-पाक विभाजन के समय तो यह धार्मिक अस्मिता के साथ
जोड़ कर वैध बनाया ही गया। हिंदू-मुस्लिम
दंगों में भी बलात्कार का इस्तेमाल इसी तरह स्वीकृत होता है। अपने समुदाय के भीतर
इज़्ज़त से ज़िंदगी गुज़ारने के संघर्ष के साथ-साथ गुजरात दंगों की रेप-सर्वाइवर न्याय
पाने के लिए अब तक संघर्ष कर रही हैं । पिछले सालों में एक हिंदू-राष्ट्रवादी-
अवधारणा भी उदित हुई है जो इसी तरह के पौरुषेय पराक्रम को मान्यता देती है। शम्भू
रेगर जैसे हत्यारे की शोभा यात्रा निकाला जाना उसे अतिवाद तक ले जाता है। यह अति
फिर-फिर सामने आती है और अपने सबसे शर्मनाक रूप में यह कठुआ के रेप-हत्या केस में देखाई
देती है जब वक़ील बलात्कारियों के पक्ष में खड़े होकर जज का रास्ता कई घण्टे तक रोके
रहते हैं, बलात्कारियों के समर्थन में
विरोध-धरना करते हैं। कोई नफरत से भरकर सोशल मीडिया पर लिखता है कि ‘अच्छा हुआ
मर गई आसिफा वर्ना आतंकवादी बनती बड़ी होकर,। स्त्रियाँ
खुद हिंदू-पितृसत्ता के समर्थन में खड़ी दिखाई देती हैं। पिछले साल ही छत्तीसगढ के
राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष विभा राव ने बयान दिया था कि बलात्कार में महिलाएँ
बराबर की दोषी हैं। वे अपनी देह का प्रदर्शन करती हैं। हिंदू धार्मिक ग्रंथों को
महत्व न दिए जाना भी उन्होंने इसकी एक वजह बता दी। पिछले दो-तीन सालों में बीजेपी
से किसी न किसी तरह जुड़े विधायक,
कार्यकर्ताओं के बलात्कारों के मामलों में लिप्त होने की खबरें लगातार बढी हैं
जिनके हायपरलिंक यह लेख लिखते समय मेरे सामने हैं।
हिंदू एकता मंच तो एक खास तरह की हिंदू पितृसत्ता का प्रचार कर ही रहा है दुर्गावाहिनी
की दुर्गाओं का ‘हिंदू-मुस्लिम रेप’ की तुलनाएँ और हिंदुआनियों का आह्वान अधिक भयावह है। कठुआ में रेप करने गए
लड़के की माँ आखिर दबाव में उसे बचाने आई ही। यह
निराशा से भरता है कि संसद में जो स्त्रियाँ हैं वे देश के सबसे अमानवीय और बर्बर
रेप-हत्या के मामलों में मौन हैं। हम औरतों का प्रतिनिधित्व करने वाली उन
स्त्रियों के ज़मीर को ललकारते हुए सोशल मीडिया पर कई लोगों ने कड़े शब्दों में
लिखा।
लेकिन ध्यान से देखिए, वे सत्ता में
बैठकर हमारा प्रतिनिधित्व नहीं कर रहीं। वे स्त्री-मुद्दों पर चुनाव जीतकर नहीं आई
हैं। वे अपनी पार्टी का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। अभी तो वे बेचारियाँ (?) अपनी-अपनी सीट बचा रही हैं। अपनी -अपनी सीट मने वह सीट जिसके लिए मर्द
समझते आए हैं कि दर असल यह उनकी सीट है जो औरतों ने छीन
ली है।दूसरा, सत्ता के साथ भागीदार होने की यह फ़ीस है
कि आप हाशिए के असल और आसन्न मुद्दे पर भी ईमानदारी से बोल नहीं सकते और धीरे-धीरे
सत्ता आप पर हावी हो जाती है।
मैं संसद की महिलाओं की तरफ तब उम्मीद से देखूँगी जब वे महिलाओं के
लिए आरक्षित सीटों पर आएँगी।
अफ़सोस कि इस दिन के आने का कोई आश्वासन भविष्य में भी नहीं दिख रहा क्योंकि महिलाओं के लिए आरक्षण न पार्टियाँ अपने भीतर करेंगी न संसद में होगा।बलात्कारी नेताओं और उन्हें बचाने वाली पार्टियों के चलते यह उम्मीद कम है। फास्टट्रैक कोर्ट, बलात्कार जैसे अपराधों के लिए जल्द से जल्द न्याय मिलना, महिला-पुलिस की अधिकाधिक भर्तियाँ, स्कूलों-कॉलेजों में जेण्डर-बराबरी की ट्रेनिंग तो तत्काल ज़रूरी हैं। इसके अलावा जब तक औरतें अपने मुद्दों की गम्भीरता समझ घरों से निकल कर सड़कों और संसद तक नहीं जाएंगी, जब तक संसद में बैठी औरतें अपने पार्टी हित छोड़, स्त्री मुद्दों पर एक नहीं होंगी, जब तक पार्टियां ही राजनीति में लैंगिक बराबरी को अपना मुद्दा न बना लें या जब तक स्त्रियाँ अपनी ही राजनीतिक पार्टी न बना लें, पूरी पॉलिटिक्स, पूरी दुनिया की पॉलिटिक्स, मर्द ही नियंत्रित करेगा।
अफ़सोस कि इस दिन के आने का कोई आश्वासन भविष्य में भी नहीं दिख रहा क्योंकि महिलाओं के लिए आरक्षण न पार्टियाँ अपने भीतर करेंगी न संसद में होगा।बलात्कारी नेताओं और उन्हें बचाने वाली पार्टियों के चलते यह उम्मीद कम है। फास्टट्रैक कोर्ट, बलात्कार जैसे अपराधों के लिए जल्द से जल्द न्याय मिलना, महिला-पुलिस की अधिकाधिक भर्तियाँ, स्कूलों-कॉलेजों में जेण्डर-बराबरी की ट्रेनिंग तो तत्काल ज़रूरी हैं। इसके अलावा जब तक औरतें अपने मुद्दों की गम्भीरता समझ घरों से निकल कर सड़कों और संसद तक नहीं जाएंगी, जब तक संसद में बैठी औरतें अपने पार्टी हित छोड़, स्त्री मुद्दों पर एक नहीं होंगी, जब तक पार्टियां ही राजनीति में लैंगिक बराबरी को अपना मुद्दा न बना लें या जब तक स्त्रियाँ अपनी ही राजनीतिक पार्टी न बना लें, पूरी पॉलिटिक्स, पूरी दुनिया की पॉलिटिक्स, मर्द ही नियंत्रित करेगा।
...
हमारे शहर में सब कुछ है लेकिन स्त्री के लिए वह फिर भी
सुरक्षित जगह नहीं है। तरह तरह के मोबाइल एप हैं। लेकिन सामाजिक विषमताएँ इतनी
अधिक हैं कि लैंगिक भेद के साथ मिलकर वे स्त्री के लिए एक हिंसक माहौल रचती हैं।
हम एक शहर में एक साथ कई अलग-अलग तरह के समाज अलग-अलग युगों में जीते हैं। इन सभी
सामाजिक परिस्थितियों से अलगाकर स्त्री के विरुद्ध यौन हिंसा को रोकने के बहुत
कारगर उपाय होना सम्भव नहीं है। निर्भया के पास अपनी कार होती तो उस दर्दनाक अनुभव
से गुज़रने की सम्भावना लगभग शून्य होती। यानी आम आदमी के यातायात का साधन एकदम
सुरक्षित नहीं है जो कि इस केस के बाद सबसे पहले सुधार किया जाना चाहिए था। आप आम
स्त्री हैं , उस पर से अशिक्षित और आर्थिक रूप से
निर्भर भी तो आपके लिए शहर में रहने के नियम और शर्तें मर्दाने वक़्त और स्पेस में
और भी ज़्यादा कड़ी होंगीं। हफ्ता भर पहले बिहार से दिल्ली आई पंद्रह साल की लड़की
अगर बलात्कारियों का शिकार हो जाती है तो समझा जा सकता है कि यह सिर्फ आत्म रक्षा
प्रशिक्षण कैम्प और मोबाइल एप्प जैसे उपायों (हालांकि वे भी बेहद ज़रूरी हैं) से
निबटने वाली समस्या नहीं है बल्कि यह पूरे सामाजिक ढाँचे की ओवरहॉलिंग का मामला है
।
1 comment:
उत्कृष्ट आलेख जो सघन शोध के बाद ही लिखा जा सकता है, वास्तव में मंथन करने के लिए आंदोलित करता है। साधुवाद।
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