- प्रियंका ओम
एक झटके के साथ ट्रेन अपनी जगह से हिली थी, लेकिन मैं अब भी
अपने सामान के साथ अस्त व्यस्त खड़ी थी। कंधे पर रेयन के खिलौने और खाने से
भरा बैग, और कमर पर ख़ुद रेयन। मैंने उसे किसी ज़िद्दी
माँ की तरह कस के जकड़ा हुआ था, और वो आम बच्चे की तरह
मेरी पकड़ से छूटने की कोशिश कर रहा था।
कितना मुश्किल होता है छोटे बच्चे के साथ एक औरत का अकेले स़फर करना; लेकिन
बहुत बार हमें वो करना पड़ता है, जो हम करना नहीं चाहते
हैं।
मेरे साथ भी यही हुआ था। ज़िन्दगी की तमाम भागमभाग से थककर एक ह़फ्ते के
सुकून के लिए मम्मी के पास आई थी, और अब वापस जाते हुए जमशेदपुर
बहुत बुरा लग रहा था। यहाँ एयरपोर्ट तो है, लेकिन
उड़ानें नहीं हैं; और फ़्लाइट से जाने के लिये पहले
जमशेदपुर से तीन-साढ़ेतीन घंटे तक रोड यात्रा कर राँची, फिर
पटना होकर फ़्लाइट, दिल्ली, देर
शाम तक पहुँचती है। कुल मिलाकर पूरा दिन रास्ते में, और
उसपे भी आराम नहीं।
सच तो ये है कि ट्रेन में स़फर करने जैसा आराम किसी में नहीं; ऊपर
से जैसे ही ट्रेन चलती है, रेयान को नींद आ जाती है।
इसलिये मैं जमशेदपुर आने-जाने के लिए ट्रेन पसंद करती हूँ, और हमेशा की तरह इस बार भी टिकट, भुवनेश्वर
राजधानी के ‘टू सीटर’ कम्पार्टमेंट
में ही मिला था, जो इस बार अकेले होने के कारण समस्या
बन गई। बंद कम्पार्टमेंट में किसी अजनबी के साथ... कोई पुरुष हुआ तो? मन में कैसे-कैसे डरावने खयाल आ रहे थे। आये दिन महिलाओं के साथ होने वाली
घटनाओं की याद से मेरे रोंगटे खड़े हो गए। मैंने अपनी सीट बदलवाने की सोची और टीटीई
के इंतजार में खड़ी रही।
अक्सर जिस बात से आप डरते हैं, आपके साथ वही हो
जाता है। टीटीई के आने से पहले, बहुत तेजी से एक थका
हुआ आदमी अंदर दाखिल हुआ; उसकी ट्रेन छूटते-छूटते बची
थी शायद। ऐसे व़क्त में इंसान सि़र्फ अपनी जगह पाने की जल्दी में होता है... और इस
जल्दी में वो मुझे नहीं देख पाया; लेकिन मैं तो उसे
देखते ही निश्चिन्त हो गई।
रेयान को बिठाकर मैं भी अपना पैर मोड़, अपनी सीट पर आराम
से बैठ गई।
वो आदित्य था; मेरे बचपन का संसार। असल में ये कहानी उसी से शुरू
होती है... लेकिन ज़िन्दगी की कहानी में किरदार बदलते रहते हैं। मेरी ज़िन्दगी की
कहानी का अहम् किरदार भी बदल गया था।
आदित्य के हाथ में एक लैपटॉप बैग के अतिरिक्त, एक
बड़ा सा ट्रैवलिंग बैग था, जिसे सामान रखने की जगह पर
रखकर उसने मेरी ओर सर उठा के देखा, क्योंकि मेरा बैग अब
भी सामने पड़ा था।
‘‘वनिता तुम!’’ उसकी आँखें ज़रा से
आश्चर्य से फैल गई थीं।
‘‘कैसे हो आदित्य?’’
‘‘अच्छा हूँ, तुम कैसी हो?’’
‘‘मैं भी अच्छी हूँ।’’
‘‘थैंक गॉड आदित्य, तुम हो; अब मुझे अपनी जगह बदलने की जरूरत नहीं।’’ मैंने
बहुत ख़ुश होकर कहा थी; लेकिन हमेशा की तरह मेरी ख़ुशी पर
उसने तुरंत ही अपनी कड़वाहट फेर दी।
‘‘सब कुछ तो तुमने ही बदला था वनिता; मैं तो हमेशा से वैसा ही रहा हूँ; तुम मुझे
छोड़कर ज़िन्दगी में आगे बढ़ गई थीं, लेकिन मैं वहीं रह
गया जहाँ तुम छोड़कर गई थीं, भावनात्मक रूप से अकेला...
लेकिन तुम्हें इससे क्या... खैर; क्या मैं तुम्हारे
बैग्स भी रख दूँ?’’
मन तो किया कह दूँ, छोड़ा कहाँ था, दरअसल आजाद हुई थी लेकिन औपचारिकता बस,‘‘अगर तुम्हें कोई तकलीफ
न हो तो " ही कहा |
‘‘तुम्हारे लिये कुछ भी करके मुझे ख़ुशी ही होती है वनिता।’’ कहते हुए उसने मेरे बैग्स भी अंदर रख दिए।
ब्लू जीन्स और लेमन येलो फुल स्लीव शर्ट में आदित्य आज भी उतना ही हैंडसम
लग रहा था; हाँ उसके घने बालों की मोटी-मोटी लटों से सफेदी
झाँकने लगी थी, जिसका कारण धूप नहीं था।
बाल अगर व़क्त के साथ स़फेद हों तो आम बात होती है, लेकिन
अगर व़क्त से पहले स़फेद हों तो कोई और बात होती है।
अचानक ही मेरे फ़ोन की घंटी बजने लगी। ऊपर nick फ़्लैश हो
रहा था।
मैंने फोन उठाते ही कहा, ‘‘मैं आपको कॉल करने ही वाली थी।’’
‘‘इसे ही तो टेलीपैथी कहते हैं नीता।’’ निक बहुत खुश हो रहा था।
वैसे तो आदित्य ऊपर अपनी सीट पर चला गया, लेकिन मैं उसकी
उपस्थिति को ऩजरअंदा़ज नहीं कर पा रही थी, इसलिए
सि़र्फ हम्म ही कहा।
‘‘मैं कल एक हफ्ते बाद आपको देखूँगा!’’ निक ने कहा, तो मैंने कहा,- ‘‘और मैं भी आपको।’’
‘हाँ।’
‘‘अच्छा अब रखो, कल तो मिल ही रहे
हैं।’’ मैं अब भी असहज थी, और
निक समझ गया था।
‘‘आप हमेशा दूसरों के सामने बात करते हुए नर्वस फील करती हो।’’
‘‘हाँ जी; आप तो जानते ही हो’’।
‘‘ठीक है, सेफ जर्नी, कल तो मिल ही रहे हैं।’’
‘‘हम्म बाय...’’ कहकर मैंने फ़ोन
रखना चाहा, लेकिन रेयान पापा पापा कहकर मेरा हाथ खींच
रहा था। मैंने उसे फ़ोन दे दिया, क्योंकि दो पुरुष आपस
में ज्यादा देर तक बातें नहीं करते हैं इसलिये रेयान ने फोन रखकर अपने ब्लॉक बुक
से खेलना शुरू कर दिया। अचानक ही उसने कहा, ‘‘मम्मा! ये
ट्रेन है, aeroplane नहीं है।’’ शायद उसने अपने ब्लॉक बुक में A फॉर aeroplane की पिक्चर देखी थी।
‘‘हाँ बेटा ये ट्रेन है।’’
‘‘मम्मा मुझे ट्रेन से उतरकर पापा के पास जाना है।’’
‘‘अभी नहीं उतर सकते, क्यूँकि
ट्रेन चल रही है; कल दिल्ली में रुकेगी तब उतरेंगे।’’
‘‘नहीं मुझे तो अभी उतरना है, अभी
पापा के पास जाना है।’’ कहकर वो रोने लगा था। निक से
बात करने के बाद, वो उसे और ज़्यादा मिस करने लगा था।
आमतौर पर ऐसा ही होता है, कि हम जिसे मिस करते हैं, उससे बात करने के बाद उसे और ज़्यादा मिस करने लगते है। मैं भी निक को बहुत
मिस कर रही थी।
‘‘रोना बंद करो, नहीं तो ऊपर जो
अंकल हैं वो तुम्हें मारेंगे; अंकल बहुत ग़ुस्से वाले
हैं।’’ मैंने उसे डराया, और
वो डर भी गया।
असल में रेयान को अंकल्स से एक ख़ास क़िस्म का डर है; और
मैंने उसके डर का फ़ायदा स्थिति को सँभालने में किया था।
हालाँकि मैंने ये सब धीरे-धीरे फुसफुसाकर कहा था, ताकि
आदित्य न सुने; लेकिन उसका कान शायद हमारी ओर ही था, इसलिये ऊपर से ही कहा, ‘‘नहीं बेटा, अंकल बच्चों को नहीं मारते; बल्कि किसी को नहीं
मारते।’’
‘‘ओह, तुमने सुन लिया... मा़फ
करना, मैंने सि़र्फ इसे डराने के लिए कहा था।
‘‘कोई बात नहां; अगले stoppage पर मैं इसे नीचे घुमा लाऊँगा, लेकिन उसके पहले
दोस्ती कर लूँ।’’ कहते हुए वो मेरी सीट पर आकर बैठ गया; ठीक मेरे ब़गल में, क्यूँकि रेयान को मैंने
खिड़की की तऱफ बिठाया था।
‘‘हेलो बेटा! आपका नाम क्या है?’’ उसने रेयान से पूछा।
मैंने रेयान को हम दोनों के बीच बिठाते हुए कहा, ‘रेयान’। क्यूँकि मैं जानती थी वो जवाब नहीं देगा; अजनबियों
से मैंने उसे डराकर रखा था।
‘‘बहुत प्यारा नाम है; ज़रूर
निकेतन ने ही रखा होगा।’’
उसका कटाक्ष समझने के बावजूद मैं किसी तरह की कड़वाहट नहीं घोलना चाहती थी, इसलिये
सि़र्फ शुक्रिया कहा।
स्वकेंद्रित लोग अपनी सहूलियत से अपनी सोच बदलते हैं। जब मैं उसके साथ थी
तो कमतर थी, और अब, जब निकेतन के साथ
हूँ तो बेहतर हूँ।
![]() |
अनुप्रिया का रेखांकन |
खैर... रेयान थोड़ी देर में ही उसके साथ घुलमिल गया और खेलने लगा। आदित्य को
शुरू से ही बच्चे बहुत अच्छे लगते थे। बच्चे बहुत जल्दी उसके हो जाते हैं... यही
कारण था कि मुहल्ले के सभी बच्चे उसके दीवाने थे, और वो उन सबका फेव
भैया।
ट्रेन की गति धीमी हो गई थी, शायद कोई स्टेशन
आने वाला था। ‘‘मैं रेयान को लेकर नीचे जा रहा हूँ।’’ आदित्य ने कहा, तो मैंने ख़यालों से निकलकर
चौंकते हुए कहा ‘‘शुक्रिया आदित्य!’’
‘‘शुक्रिया क्यूँ?’’
‘‘मेरी और रेयान की मदद करने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया।’’
‘‘शुक्रिया की ज़रूरत नही; तुम्हें
पता है न बच्चे मुझे बहुत पसंद हैं।’’
तुम्हारे कितने बच्चे हैं? मैं पूछना चाहती थी, लेकिन शायद ये समय उचित नहीं था।
‘‘तुम्हें कुछ चाहिये?’’ जाते-जाते
उसने मुझसे पूछा।
‘‘नहीं नहीं, मुझे कुछ नहीं
चाहिये।’’
असल में मुझे व़क्त चाहिए था, और वो मिल गया था।
मैंने तुरंत निकेतन को फ़ोन किया।
उधर से आवा़ज आई, ‘‘मुझे मिस कर रही हो?''
‘‘हाँ; बहुत।’’
‘‘कल मैंने sick leave लिया
है।’’
‘‘क्या हुआ? बताया क्यूँ नहीं?’’
‘‘क्या बताता; जब आपको पता है, I
am love sick.’’
निकेतन से बात करते हुए मेरी आँखें बंद हो गई थीं; मैं
उसे बिलकुल अपने पास महसूस कर रही थी। कुछ पलों में सारी दूरियाँ मिटने वाली थीं; मैं उसके सीने से लगकर उसकी और अपनी धड़कन एक करने वाली थी, कि फ़ोन कट गया।
उस व़क्त फ़ोन कटना बहुत असहनीय था; ऐसा लगा, शरीर से किसी ने ख़ून निचोड़ लिया हो। फिर से फ़ोन लगाने वाली थी, कि सामने से आदित्य, रेयान के साथ आता दिखाई
दिया।
ट्रेन ने फिर से गति पकड़ ली थी, और मुझे पता भी
नहीं चला।
रेयान के हाथ में ढेर सारे चिप्स के पैकेट्स थे।
‘‘अरे, इतने चिप्स क्यूँ लेकर आये, मैं तो पहले से ही बहुत सारा लेकर चली थी।’’
‘‘बच्चों के लिए कितना भी लेकर चलो, कम होता है; ये तुम्हारे लिए।’’ कहते हुए उसने एक बड़ा सा पैकेट मुझे दिया।
‘‘शुक्रिया आदित्य, लेकिन मैं
नहीं खाती।’’
‘‘पहले तो बहुत खाती थी!’’
‘‘हाँ, लेकिन अब डर लगता है कि
मोटी हो जाऊँगी।’’
‘‘खा लो; बहुत pathetic लग रही हो।’’
‘‘पथेटिक तो मैं पहले भी लगती थी, जब तुम मुझे रो़ज चिप्स खिलाते थे।’’
आदित्य सर झुकाकर बैठ गया था। शायद उसे मेरा जवाब बहुत कड़वा लगा था। सच
हमेशा कड़वा ही होता है।
मैं जवाब नहीं देना चाहती थी, लेकिन कई बार जवाब
नहीं देने पर सामने वाले को लगता है, उसने जो किया वो
सही किया, और वो और भी प्रोत्साहित होता है।
लेकिन मुझमें और आदित्य में बाहरी रंग रूप के अतिरिक्त कई और विषमताएँ थीं।
आदित्य को अपनी ग़लती का एहसास कभी नहीं होता था, जबकि मुझे ग़लती
करने के बाद ख़ुद ग़लती का एहसास हो जाता था।
‘‘घर में सब कैसे हैं? मैंने फिर
से बात शुरू की थी, क्यूँकि माहौल में घुली हुई उदासी, मेरे आरामदायक स़फर को बोझिल बना रही थी।
‘‘सब अच्छे हैं।’’
‘‘अनुज क्या कर रहा है?’’
‘‘वो विप्रो में है बैंगलोर में।’’
‘‘और तुम्हारे बीवी बच्चे।’’
‘‘मैंने शादी नहीं की।’’ कहते हुए
उसने मुझे कुछ ऐसी ऩजरों से देखा, जैसे कह रहा हो,
‘‘अब ये मत पूछना क्यूँ!''
और मैंने पूछा भी नहीं; मैंने उसकी आँखों के आदेश का
पालन किया।
इस सबके बीच रेयान बिलकुल चुप था; उसे नींद आ रही थी।
‘‘चलो खाना खा लेते हैं; it's dinner time’’
‘‘मैं अपना डब्बा लेकर आता हूँ।’’ कहकर, आदित्य ऊपर चला गया, तब तक मैंने प्लेट लगा लिया।
आदित्य का डब्बा खुलते ही यादों के स्वादिष्ट पकवान ललचाने लगे। लालन के
हाथ का बना खाना; प्यार और स्वाद से भरा हुआ।
वैसे तो बच्चों को दुनिया में अपनी माँ के हाथ का खाना ही अच्छा लगता है, लेकिन
मुझे मम्मी से ज़्यादा लालन के हाथ का खाना अच्छा लगता था; क्यूँकि वो भी माँ थी इसलिये।
लालन मीठे ताने भी दिया करती थी, ‘‘बहुत चालाक है ये लड़की; अच्छा-अच्छा कहकर, बाद में भी मुझसे ही खाना
बनवाएगी।’’
हम दोनों चुपचाप एक दूसरे का खाना शेयर करके खा रहे थे... ठीक वैसे ही, जैसे
बचपन में स्कूल में लंच शेयर करते थे। अगर रेयान को हर बाइट के साथ तुरंत तैयार की
गई कहानी नहीं सुना रही होती, तो शायद हम दोनों के बीच
की पथरीली ख़ामोशी पहाड़ों सी हठी हो गई होती।
रेयान खाना खाकर सो चुका था। अचानक ही आदित्य ने कहा ‘‘तुम बिलकुल अपनी मम्मी जैसी हो; तुम्हारे हाथ
का खाना भी उतना ही स्वादिष्ट है।’’
‘‘तुम्हें मेरी मम्मी याद हैं?’’
‘‘मैं आसानी से लोगों को नहीं भूलता वाणी; जैसे तुम भूल जाती हो।’’
वो आज भी बिलकुल वैसा था, जैसा कई साल पहले; ज़रा भी नहीं बदला था। उसके ताने चुभ रहे थे मेरे दिल की गहराइयों में।
मुझे वहाँ दर्द हो रहा था, जहाँ निकेतन रहता है। मैंने
दर्द कम करने के लिये सोते हुए रेयान की तऱफ देखा।
रेयान, बिलकुल अपने पापा पर गया है। कई बार मुझे लगता है, जैसे वो निकेतन का मिनियेचर है... छोटा सा निकेतन। बोनसाई निकेतन को देखकर
मेरा मूड अच्छा हो गया। मूड अच्छा होते ही मुझे चाय पीने का ख़याल आया, जो मैं अपने साथ लेकर आई थी।
‘‘चाय पियोगे?’’
‘‘अभी नहीं मिलेगी, अगले स्टेशन
पर लाता हूँ।’’
‘‘मैं लेकर आई हूँ।’’ कहते हुए
मैंने चाय का फ्लास्क निकाल लिया।
चाय की पहली सिप के साथ उसने कहा- ‘‘वाह! इलाइची वाली
चाय; लेकिन तुम तो चाय नहीं पीती थीं।’’
‘‘हाँ, लेकिन प्यार में इंसान सब
सीख जाता है; मैं से तुम बन जाता है, और तुम से मैं।’’
‘‘मेरी और निकेतन की पसंद बिलकुल एक जैसी है, इलायची वाली चाय...'' आदित्य ने फिर से कुछ अलग
कहने की कोशिश की, और उसकी कोशिश कामयाब भी हुई, इसलिये मैंने तुरंत ही कहा, ‘‘लेकिन तुम्हें कड़वी
पसंद है और उसे मीठी।''
उसे फिर मेरा जवाब पसंद नहीं आया, इसलिए गुडनाइट कहकर
ऊपर चला गया। नीचे मैं रह गई थी, यादों की भीड़ में अकेली।
मैं बचपन से ही ये सुनते हुए बड़ी हो रही थी, कि आदित्य मेरा
होने वाला पति है। आदित्य प़र्फेक्ट था, और ज़िन्दगी
बहुत ख़ूबसूरत। उसकी और मेरी बचपन की मुहब्बत किसी भी हिंदी फिल्म की लव स्टोरी से
कुछ ज्यादा रोमांटिक थी; लेकिन आम हिन्दी फ़िल्म की
कहानी की तरह हमारी कहानी में भी एक एंगल आ गया था... ज़िन्दगी में निकेतन आ गया था
और हमारी बाई एंगल स्टोरी ट्रार्इंगल स्टोरी बन गई।
ट्रेन की गति पहले से काफी तेज हो गई थी, और धड़धड़ करते हुए
आगे बढ़ रही थी; लेकिन मैं पीछे जा रही थी... जैसे कोई
चुम्बकीय ताकत मुझे खींच रही हो।
* * *
पापा और विक्रम अंकल ने साथ में इंजीनियरिंग की थी, और
टिस्को में जॉब भी साथ में ही मिली; यहाँ तक कि दोनों
को क्वार्टर भी क़ुलसी रोड में अ़गल-ब़गल ही मिला।
हालाँकि हमारा पारिवारिक माहौल एक दूसरे से पूरी तरह से भिन्न था, फिर
भी उनकी दोस्ती दिन-प्रतिदिन गहरी होती जा रही थी। पहले आदित्य, और फिर मेरे जन्म के बाद, इन दोनों ने अपनी
दोस्ती को रिश्तेदारी में बदलने का अनौपचारिक निर्णय लिया।
लालन का नाम, लालन कब और कैसे पड़ा, ये
तो मैं नहीं जानती, लेकिन पहली बार मैंने भी उन्हें
लालन ही पुकारा था; और तब से लेकर आज तक वो मेरे लिये
सि़र्फ लालन ही रहीं।
मेरी छोटी बहन अमिता के लिए आदित्य उसका सुपरहीरो था, जो
उसकी हर फ़रमाइश तुरंत पूरी कर देता था, जबकि आदित्य के
छोटे भाई अनुज के लिए मैं उसकी भाभी थी। चाभी के गुच्छे की तरह हम सब हमेशा एक साथ
तो रहते, लेकिन वेदांत के आने से पहले तक भाई का रिश्ता
मेरे लिए काल्पनिक था। आदित्य, नमिता और अनुज, एक दूसरे के भाई बहन थे। इन सबने मेरे साथ रिश्ते का एक अलग ही समीकरण बना
रखा था। जहाँ अनुज मुझे ख़ास सम्मान देकर बात करता, वहीं
आदित्य, अधिकार से। हम सबके बीच का रिश्ता सामाजिक
विज्ञान का कोई भी अध्याय परिभाषित न कर सका।
नमिता को हम आदित्य की चमची कहते, और वो अनुज को
मेरा। हम सब एक साथ ख़ूब लड़ते-झगड़ते, फिर साथ में खेलते, और फिर थककर एक ही बिस्तर पर सो जाते।
हम सब एक ही स्कूल जाते थे। मैं सुबह जल्दी से तैयार हो, आदित्य
के घर उसके साथ के लोभ में चली जाती, और साथ में
कभी-कभी लालन को भी चिढ़ा लिया करती।
मैं जानबूझकर शू़ज नहीं उतारती। तब लालन मुझपे चिल्लाती थीं, ‘‘अगर
तुम मेरी होने वाली बहू नहीं होती, तो तुम्हारी टाँग
अभी तोड़ देती।'' और इस बात पर मैं जोर-जोर से हँसती। फिर
वो अपनी हँसी को बनावटी गुस्से का मुखौटा पहनाकर कहतीं, ‘‘देखो
कितनी बेशरम लड़की है; मैं गुस्सा कर रही हूँ, और ये दाँत निपोर रही है।’’ इस बात पर मैं और
जोर से हँसती, जिससे वो भी हँस पड़तीं।
पुराने दिनों की याद आप ही मेरे चेहरे पर एक स्माइल ले आयी।
लालन बहुत ख़ूबसूरत थीं। ऐसा लगता था मानो ईश्वर ने उन्हें ख़ुद अपने हाथों
से बनाया था, बिना किसी सहायक के। आदित्य को गोरा रंग और तीखे नैन
ऩक्श, लालन से ही मिले थे, और
लम्बाई विक्रम अंकल से; और इसी लम्बाई के कारण उसे
क्लास में सबसे पीछे बैठना पड़ता था, जिसका फ़ायदा वो ख़ूब
उठाता था। पिछली बेंच पर बैठकर ड्रॉइंग बनाया करता... घर की ड्रॉइंग। कहता, बड़ा होकर घर बनाऊँगा, जिसमें हम सब एक साथ
रहेंगे।
पढ़ने में उसकी दिलचस्पी बहुत कम थी। वो इतना ही पढ़ता था कि पास हो सके।
उसके विपरीत मैं इतना पढ़ती थी कि टॉप कर सकूँ। असमानताओं के बावजूद, ऐसा
लगता था एक दूसरे के लिये ही बने हैं हम। न मुझे उसके ब़गैर चैन था, न उसे मेरे ब़गैर आराम।
आदतन एक सुबह जब मैं उसके घर गई, तो वो बहुत परेशान
दिख रहा था। उसकी टाई नहीं मिल रही थी। मुझसे उसका परेशान होना देखा नहीं गया; मैं झट से अपने गले से टाई निकाल उसे पहना दी। लालन, जो अब तक आदित्य की टाई ढूँढ़ने में व्यस्त थीं, अचानक से सामने प्रकट होकर बोलीं, ‘‘तुम दोनों का
जयमाल हो गया, मतलब आधी शादी हो गई तुम दोनों की; आज से आदित्य का आधा काम भी वनिता करेगी।''
मैंने मासूमियत से पूछा था ‘‘कौन सा काम लालन?''
‘‘बैग पैक करना,वॉटर बॉटल भरना, और शू़ज पॉलिश करना...।’’ लालन ने अभी अपनी बात
भी ख़त्म नहीं की थी, कि आदि चिल्लाया, ‘‘नहीं माँ, वनिता शू़ज पॉलिश नहीं करेगी; उसके हाथ गंदे हो जायेंगे।’’
आदित्य की मासूम मोहब्बत बा़गी हो गई थी, जबकि लालन की आँखें
भर आई थीं। ‘‘जुग जुग जिओ बेटा; इसे हमेशा ऐसे ही प्यार करते रहना।'' कहते हुए
हम दोनों को एक साथ गले से लगा लिया था।
लालन जितनी ख़ूबसूरत तन से थीं, उतनी ही ख़ूबसूरत मन
से भी थीं; और इस कारण वो दुनिया की बेस्ट सासू माँ
बनने वाली थीं।
विक्रम अंकल ने आदित्य को साइकिल दिलवाई थी। मैंने भी माँ से साइकिल की जिद
की। आदित्य ने कहा, जो मेरा है वो तुम्हारा भी तो है; ये साइकिल हमारी है, हम साथ चलायेंगे।
आदित्य के साथ उसकी साइकिल पर, उसके आगे, उसकी बाँहों के घेरे में बैठकर पूरे क़ुलसी रोड का चक्कर लगाना बहुत
रोमांचक लगता था। हालाँकि मोहल्ले की औरतें अक्सर मम्मी को समझातीं, कि बेटी को इतना छूट देना ठीक नहीं; वैसे भी
पढ़ाई में मैं आदित्य से बेहतर हूँ और मुझे बेहतर लड़का मिल सकता है। लेकिन मम्मी
कहतीं, पढ़ाई-लिखाई धरी की धरी रह जाती है; घर आपके सामंजस्य और प्यार से चलता है, जो इन
दोनों के बीच है।
आदित्य हमेशा की तरह पीछे की बेंच पर बैठकर घर की ड्रॉइंग बना रहा था।
साइंस की टीचर आर्इं तो सभी खड़े हो गए, लेकिन आदित्य
ड्रॉइंग बनाता रहा। टीचर ने शायद उसे देख लिया था, इसलिये
क्लास शुरू होते ही उसे खड़ा करके अमीबा की परिभाषा पूछ लिया, जो उसे याद नहीं था।
टीचर ने उसे क्लास से बाहर निकाल दिया। मुझे बहुत ग़ुस्सा आया। ‘‘अमीबा का ड्रॉइंग भी बनवा सकती थीं; परिभाषा पूछना ज़रूरी था?’’ मैंने फुसफुसाकर कहा, फिर भी टीचर ने सुन लिया।
पता नहीं टीचर बनने के बाद सेन्स इतने शार्प होते हैं या सेन्स शार्प होते
हैं इसलिए टीचर बनते हैं।
‘‘ये साइंस का क्लास है, इश़्क का ट्यूशन नहीं; तुम भी बाहर जाओ, और तोता-मैना की कहानी लिखो।’’ कहकर मुझे भी क्लास से बाहर निकाल दिया था टीचर ने।
क्लास से बाहर निकालने के दुःख पर, आदित्य के साथ रहने
का सुख कहीं ज़्यादा था, इसलिये आँखों में शर्म की जगह
चमक आ गई थी, और जाते-जाते टीचर हम दोनों को बेशर्म कह
गर्इं।
उस बेशर्मी के बाद से science टीचर ने हमें
निशाने पर रखा था।
एक दिन टीचर ने फिर से मुझे क्लास से बाहर निकलने की सजा दी, क्योंकि
मैं आदित्य से बात कर रही थी। आदित्य ने टीचर से कहा- ‘‘ग़लती मेरी है, क्यूँकि बात मैं कर रहा था, वानी तो बस जवाब दे रही थी।’’
‘‘ठीक है, तो स़जा भी दोनों को
मिलेगी।'' कहते हुए टीचर हाथ में स्केल लिए हमारे पास आ
गई थी।
‘‘वनिता, तुम हाथ आगे निकालो, और आदित्य तुम बाहर जाओ।''
मेरे हाथ पर स्केल पड़ने से पहले ही आदित्य ने दोनों हाथों से अपनी आँखें
बंद कर लीं।
‘‘तुम्हें क्या हुआ?'' टीचर ने
डाँटते हुए पूछा।
‘‘मैं इसे मार खाते नहीं देख सकता।’’ आदित्य ने किसी पक्के आशिक की तरह कहा था।
‘‘ठीक है, तो उसके बदले मार भी
तुम्हीं खा लो।’’ और आदित्य के मार खाने के बाद बात
वहीं ख़त्म नहीं हुई थी; हमारे पेरेंट्स को बुलाकर ख़ूब
लताड़ा गया था, ‘‘आपके बच्चे स्कूल पढ़ने नहीं आते हैं, इश़्क फ़रमाने आते हैं; दूसरे बच्चों पर भी असर
हो रहा है... हमें स्कूल से निकालने पर म़जबूर न करें।’’
जब भी बच्चों की कम्प्लेन करने के लिए पेरेंट्स को स्कूल बुलाया जाता है, सिर्फ
मम्मियाँ ही आती हैं; क्यूँकि बच्चों की ग़लती की
ज़िम्मेदार सि़र्फ मम्मी होती हैं, और अच्छाई के
ज़िम्मेदार पापा।
हमारी कम्प्लेन सुनने के लिए भी मम्मी और लालन आई थीं।
मम्मी ने समझाया था, ‘‘अभी पढ़ाई पर ध्यान दो तुम दोनों; बिना पढ़े शादी नहीं होती है... आदित्य! तुम पढ़-लिखकर पापा की तरह engineerबनोगे, तभी वनिता से शादी होगी।
लालन ने हँसते हुए कहा, ‘‘वनिता, तुम
पढ़ोगी नहीं तो मैं मारूँगी भी, और ख़ूब काम भी कराऊँगी।’’
उसी दिन शाम को आदित्य ने अकेले में कहा, मैं engineer नहीं बनना चाहता, मुझे सारा दिन पढ़ना अच्छा
नहीं लगता लेकिन engineer की तरह घर बनाना चाहता
हूँ।
मैंने कहा, ‘‘तुम engineer नहीं बनोगे, मैं तब भी तुमसे ही शादी करूँगी।’’ ये सुनकर
आदित्य ने मुझे गालों पर चूम लिया था, और मैं शर्मा गई
थी।
समर वेकेशन में मैंने स्केटिंग क्लास ज्वाइन कर ली थी। मेरे पीछे से आदित्य, घर
के सामने से गुजरने वाली गाड़ियों के नंबर नोट किया करता था। मैंने कहा, मेरे साथ तुम भी ज्वाइन कर लो। उसने कहा- ‘‘नहीं, ये लड़कियों वाले जुम्भी काम मैं नहीं करता।’’ मुझे
उसका तर्क बहुत बेतुका लगा था, ‘‘तो तुम जो कर रहे हो उसमें
कौन सी लड़कों वाली बात है?'' उसने तपाक से कहा- ‘‘कम से कम मैं बोर नहीं होता; खैर छोड़ो, देखो मैं तुम्हें कितना मिस करता हूँ।’’ कहते
हुए उसने अपनी नोटबुक मेरे सामने रख दिया। पेन्सिल से लिखे वो अनगिनत नंबर्स, मुझे प्रेम की कोई नई परिभाषा लग रहे थे।
वो पेज फाड़कर मैंने अपने पास रख लिया... पहला प्रेम पत्र।
हम बड़ी ते़जी से बड़े हो रहे थे, और उतनी ही ते़जी
से हमारी मासूमियत हमसे अलग हो रही थी; और शायद इसीलिए
नाइन्थ में आते ही स्कूल में लड़के-लड़कियों की क्लास भी अलग हो गयी थी, और यहीं से हमारे बीच अलगाव की शुरूआत भी हो गई थी।
हम दोनों अपने-अपने पारिवारिक बिलीव और वैल्यू में खुद को ढालते हुए बड़े हो
रहे थे, और इस बड़े होने में बचपन की बहुत सी छोटी-छोटी बातें
छूटती जा रही थीं।
उसकी उम्र और लम्बाई के साथ-साथ दिन प्रतिदिन उसका घमंड भी बढ़ता जा रहा था।
ये घमंड बिना वजह नहीं था। स्कूल में पढ़ने वाली सभी लड़कियाँ उसकी एक ऩजर को तरसती
थीं। वो उम्र ही ऐसी थी, कि किताब के फड़फड़ाते पन्नों में भी दिल की धड़कन सुनाई
देती है।
आदित्य की गर्वीली नाक कुछ ज़्यादा ही लम्बी थी। मुहल्ले की लड़कियाँ उसे
ह्रतिक रोशन कहतीं, जिससे उसके पारदर्शी गोरे रंग के भीतर से झाँकती नसों
में ख़ून का प्रवाह दुगुना हो जाता, और चेहरा लाल... हाँ, अगर कभी कोई उसके पुरुष वाले अहंकार को ललकारता, तो ख़ून, नसों से आँखों में उतर आता था।
असल में दोष उसका नहीं था; उस माहौल का था, जिसमें वो पल रहा था। मैंने लालन को कभी विक्रम अंकल के साथ हँसते नहीं
देखा, न ही कभी अपना पक्ष रखते देखा। वह एक पुरुषवादी
परिवार था; वहाँ औरतों को commodity समझा जाता था। वहाँ औरतों को पुरुषों के साथ खाने की इजा़जत नहीं थी; मेरे घर के माहौल से बिलकुल अलग। हमारे घर के बाहरी फ़ैसले पापा लेते थे, और घर के अंदर के सारे फ़ैसले लेने का अधिकार मम्मी को मिला था; यहाँ तक कि कई बार पापा अपनी चेयर मम्मी को देकर अपने लिए दूसरी ले आते।
संडे की चाय से लेकर सुबह का नाश्ता भी पापा बनाते, जबकि
विक्रम अंकल को पानी भी गर्म करना शायद ही आता होगा।
मम्मी अक्सर कहतीं, अलग-अलग घरों में पलने वाले लोग भी अलग-अलग ही होते
हैं, किसी को किसी और से compare नहीं करना चाहिये।
दसवीं का रि़जल्ट आ गया था। मैंने हमेशा की तरह टॉप किया था, और
आदित्य बस पास हुआ था। मम्मी का़फी परेशान थीं। शायद मुहल्ले की औरतों की बातें
असर कर रही थीं। वनिता की शादी का फ़ैसला लेने में हमने शायद जल्दी कर दी।
पापा ने कहा, ‘‘मुझे भी ऐसा ही लग रहा है कि भावुकता में लिया गया फ़ैसला
कहीं ग़लत तो नही; लेकिन अंतिम फ़ैसला वनिता का ही होगा।’’
आदित्य और मैं बचपन से साथ थे। आदित्य मेरी परवाह करता था। मुझे जब भी
ज़रूरत हुई, आदित्य को हमेशा साथ पाया। शहर की सारी लड़कियाँ उसपे
मरती थीं, और वो मुझ पर; इससे
ज़्यादा किसी लड़की को और क्या चाहिये; इसीलिए उस व़क्त
मम्मी-पापा की बात अच्छी नहीं लगी। जेहादी इश़्क, आदित्य
के अतिरिक्त कुछ और सोचने भी नहीं देता था। आँखों में घुसकर किताब के पन्नों पर
उतर जाता था।
‘‘क्या ये काले अक्षर तुम्हें मेरे प्रेम पत्र की याद नहीं
दिलाते?’’ मुझसे पूछता, तो
मैं हा़िजरजवाबी से तुरंत कह देती, ‘‘लेकिन ज़िन्दगी अमीबा की
ड्रॉइंग नहीं, डे़फिनिशन है जानेमन।'' और किताब बंद कर देती।
टॉप करने की ख़ुशी में पापा ने मुझे स्कूटी दिलाई; लेकिन
आदित्य इस बात से ख़ुश नहीं था। ‘‘scooty की क्या
ज़रूरत थी? मेरी bike थी
न; बचपन में तो हमने एक ही साइकिल चलाई है।’’
‘‘तो क्या तुम अब भी मेरे ड्राइवर बनना चाहते हो?’’ मैं उसकी नस नस से वा़िक़फ थी, इसलिए मैंने वही
कहा, जिससे किसी तरह के वाद विवाद की संभावना ख़त्म हो
जाये; और वो चुप हो भी गया।
‘‘नहीं, मैं जानेमन ही बने रहना
चाहता हूँ; चलो नई scooty से घूमकर आते हैं।’’
मैंने ब्लैक जीन्स और पिंक टॉप पहना था; टॉप के साथ मैचिंग
बेली़ज, और बालों को बाँधकर पोनीटेल बनाया था।
उसने कहा, ‘‘तुम बहुत ख़ूबसूरत लग रही हो।’’
‘‘तुमसे कम; भगवान जी ने जब
तुम्हें बनाया होगा, उस व़क्त उनका मूड बहुत अच्छा होगा, जैसा अभी तुम्हारा।’’ मैंने शर्माते हुए कहा
था।
‘‘जानती हो, एक फिलॉस्फर के
अनुसार उन पतियों को हार्टअटैक नहीं होता, जिनकी वाइ़फ
कम सुंदर होती है; कम से कम मैं हार्टअटैक से नहीं
मरूँगा।’’ उसने बेशर्मी से हँसते हुए कहा था।
बुरा तो बहुत लगा था, लेकिन मेरे पास कोई जवाब नहीं
था, क्यूँकि कुछ देर पहले मैंने ही उसे ख़ुद से बेहतर
कहा था।
खैर जैसे ही मैंने scooty में चाभी लगाई, उसने मेरे पीछे बैठने से ये कहकर मना कर दिया, कि
वो किसी लड़की के पीछे नहीं बैठ सकता। कितनी अजीब बात है; वो मुझे साइकिल पर अपने आगे तो बिठा सकता है, लेकिन
स्कूटी पर मेरे पीछे नहीं बैठ सकता। ये सोचते हुए चाभी मैंने उसे दे दी थी।
छुट्टियों में जब मैं चपाती बनाना सीख रही थी, तो
उसने कहा- ‘‘चलो गोल-गप्पे खाने चलते हैं।’’
मैंने कहा- ‘‘थोड़ी देर रुक जाओ, चपाती
बना लूँ फिर चलती हूँ।’’
‘‘नहीं जल्दी चलो प्लीज।’’
‘‘जल्दी जाना है तो मेरी हेल्प करो।’’
‘‘लड़कों का काम रोटी बनाना नहीं, पैसे
बनाना है; ये लड़कियों वाले काम तुम्हीं करो।’’
मैं कहाँ चुप रहने वाली थी। मैंने भी झट से जवाब दे डाला- ‘‘बहुत सी औरतें आज पुरुषों से ज्यादा पैसे बना रही हैं, और बहुत से पुरुष रोटियाँ बनाकर बहुत पैसे बना रहे हैं, लेकिन तुम्हें तो ये पता भी नहीं।’’
‘‘अच्छा अच्छा, चलो अब।’’ वो लाजवाब हो गया था शायद।
मैं शहर में लगे पुस्तक मेले में जाने के लिए तैयार हो रही थी, और
वो मेरे सर पे बैठा था।
‘‘जल्दी करो, देखो मैं कितनी
जल्दी तैयार हो गया हूँ।''
‘‘हाँ तो मैं लड़की हूँ, लड़कियों
को टाइम लगता है।’’
‘‘लेकिन कितना भी तैयार हो लो, मेरे
सामने तो तुम कमतर ही लगती हो।'' उसकी ये बात कान के
रास्ते सीधे दिल में उतर गई, किसी गर्म पिघले हुए शीशे
की तरह। कंघी करते-करते मेरे हाथ रुक गए।
आदित्य का पुरुषबोध और स्वसौन्दर्यबोध, हमें जोड़े रखने
वाली कड़ियों को दरका रहा था; मेरे अंदर का जेहादी इश़्क
शिथिल हो रहा था।
मम्मी कहती हैं, ‘यद्यपि प्रेम में सम्मान अदृश्य रहता है, लेकिन फिर भी उसपे दोनों का बराबर अधिकार होता है।’ मैं अपने सम्मान के अधिकार को खोना नहीं चाहती थी, इसलिये इश़्क को स्याह डब्बे में बंदकर दरिया में फेंक देना चाहती थी।
प्लस टू के बाद मेरा सेलेक्शन निफ्ट में हो गया। आदित्य ने कहा, ‘‘दर्जी
बनने के लिए इतनी दूर जाने की क्या जरूरत है? जमशेदपुर
में बहुत से इंस्टीट्यूट्स हैं जो कपड़े सिलना सिखाते हैं; और फिर ये सब सीखकर मिलेगा भी क्या, जब अंत में
सँभालना घर और चूल्हा ही है।’’‘‘और ये फिजूल तुमसे किसने कहा
आदित्य?’’ मैंने जरा गुस्से में पूछा था।
‘‘मैं कह रहा हूँ वनिता, तुम्हारा
होने वाला पति; और फिर मेरी और तुम्हारी मम्मी इतने
वर्षों से फिजूल तो नहीं कर रही हैं न।’’
‘‘लेकिन समय बदल गया है; मुझे
अपनी अलग आइडेंटिटी बनानी है।’’ मैं बहस करने पर तुली
हुई थी।
‘‘हाँ, समय बदल गया है, लेकिन जिम्मेदारियाँ नहीं बदलीं।'' आदित्य को
मेरे जवाब देने से और ज्यादा गुस्सा आ रहा था, ‘‘और तुम्हारी
आइडेंटिटी तुम्हारे सामने है... आदित्य भारद्वाज।’’
‘‘लेकिन अभी हमारी शादी नहीं हुई है।’’ मैंने सीधा सा जवाब दिया था।
‘‘ख़ूबसूरत लड़कियाँ क्यू में खड़ी हैं मुझसे शादी के लिए; तुम अपने आप को कुछ ज़्यादा नहीं समझ रही हो?’’
‘‘हाँ, ख़ूबसूरत लड़कियाँ...।’’ एक आह सी निकली थी मेरे अंदर से, क्यूँकि उस
दिन से पहले इतना बुरा कभी नहीं लगा था। पहली बार मुझे अपने साँवले रंग, और मॉडल से कम क़द होने का अ़फसोस हुआ था, और
पहली बार ही मुझे आदित्य पर बहुत तरस भी आया था।
उस वक्त तो मम्मी ने आदित्य और मुझे चुप रहने को कह दिया, लेकिन
बाद में मैंने उन्हें पापा से कहते हुए सुना, कि वो
आदित्य के नजरिये और व्यवहार से खुश नहीं हैं।
पापा ने कहा, ‘‘एक बार फ़ैसला लेकर हम ग़लती कर चुके हैं, दुबारा मैं कोई ग़लती नहीं करना चाहता; शादी की
बात हुई है, शादी नहीं हुई है... इस बार फ़ैसला वनिता को
लेने दो।’’
* * *
ऊपर की सीट पर आदित्य, बार-बार करवट ले रहा था; निश्चित ही यादों के शूल उसकी आँखों में भी चुभ रहे थे।
* * *
मेरा जाना उसे अच्छा नहीं लग रहा था। वो बहुत ग़ुस्से में था, और
इसीलिए बहुत ते़ज ड्राइविंग कर रहा था। मैं उसके ब़गल में बुत सी बैठी थी। पीछे, अनुज नमिता और वेदांत, आपस में खुसर-पुसर कर
रहे थे।
‘‘इतना सन्नाटा क्यूँ है भाई। हम nift में, सिलेक्शन की पार्टी में जा रहे हैं या
किसी की मैय्यत पर?’’ नमिता ने हमारे बीच की ख़ामोशी को
तोड़ने की कोशिश की।
‘‘तुम ठीक कह रही हो नमिता; मुझे
समझ में नहीं आता, भैया इतना ग़ुस्सा क्यूँ है।’’ अनुज ने कहा तो मैं सोचने लगी।
आखिर ग़ुस्सा क्यूँ न हो? मेरे बिना कितना अकेला हो
जायेगा। फिर किसे वो अपने हृतिक रोशन लुक और मर्दानगी का बखान उदाहरण देकर स्पष्ट
करेगा।
डिनर के बाद डे़जर्ट में मैंने उसके लिये डबल आइसक्रीम ऑर्डर किया, क्यूँकि
ग़ुस्से से अब भी उसकी नाक लाल थी।
‘‘आज की शाम हमें enjoy करना
चाहिये; कल तो मैं चली जाऊँगी।’’ कहते-कहते मेरी आवा़ज भीग गई थी।
मेरी आवा़ज का गीलापन, आदित्य को भी भिगा गया था,
‘‘तो क्या जाना ज़रूरी है?''
मैंने कुछ नहीं कहा; मैं कुछ और कहना नहीं चाहती थी, क्यूँकि मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मेरा उससे दूर जाना उसे अच्छा नहीं
लग रहा था, या मेरा आगे बढ़ना।
वापसी में उसने धीरे से मुझे देखते हुए कहा, ‘‘इंसान जब ग़ुस्से में
होता है, तब उसे पता नहीं होता है वो क्या बोल जाता है।’’
‘‘इंसान ग़ुस्से में ही सच बोलता है।'' मैंने उसे बिना देखे कहा था।
विक्रम अंकल ने अपनी गम्भीर और भारी आवा़ज में कहा,‘‘सिलाई
सीखने के लिये दिल्ली जाने की क्या ज़रूरत है?''
‘‘सिलाई नहीं अंकल, फ़ैशन
डि़जाइनिंग।’’ मैंने तपाक से कहा, तो अंकल ने मुझे घूरकर देखा, और मैं समझ गई कि
उन्हें मेरा बोलना अच्छा नहीं लगा।
‘‘बच्चों के भी शौ़क होते हैं।’’ पापा
ने हल्के से कहा था।
‘‘हमें घरेलू बहू चाहिये; शौ़क
यहाँ जमशेदपुर में पूरे किये जा सकते हैं।’’
‘‘जाने दो न यार; कुछ महीने बाद
वापस आयेगी तो ख़ुद नहीं जायेगी... वहाँ उसका मन थोड़ी न लगेगा हम सबके बिना।’’
‘‘दिल्ली बड़ा शहर है; वहाँ अकेली
रहेगी, ये बात मुझे कुछ ठीक नहीं लग रही।’’ इतना कहकर अंकल उठ गए थे।
‘‘शायद भाई साहब नारा़ज हो गये।’’ मम्मी ने चिंता जताई।
‘‘आखिर, वानी उसके घर की भी
इ़ज़्जत है; उसका सोचना भी ग़लत नहीं है; लेकिन मैं अपनी बेटी से उसकी ख़ुशियाँ नहीं छीन सकता।’’ पापा ने खड़े होकर निर्णायक अन्दा़ज में कहा था, और ख़ुशी से मेरी आँखें भर गई थीं।
निफ्ट, दिल्ली में मेरा पहला दिन था। orientation क्लास में hi! I am Niketan from Jamshedpur. कहते ही मैंने उसकी तरफ देखा था। थैंक गॉड, जमशेदपुर
से एक और भी है, ये सोचते ही खुशी का एक जुगनू मेरे
अंदर रौशन हो गया। बस यहीं से जुड़ाव की शुरूआत हुई थी। मेरे introduction पर उसने भी ज़रूर मुझे देखा होगा।
रैगिंग के दौरान मुझे और निकेतन को सीनियर्स ने न सिर्फ श को स और ड़ को र
के उच्चारण के लिए बुरी तरह से रैग किया, बल्कि हमें भाई-बहन
भी कहा। अंत में मुझे, शायद मेरी शादी का खयाल दिल में
आया है, गाने के लिए कहा, और
जैसे ही मैंने, ‘सायद मेरी सादी का खयाल दिल में..’ गाया, सब जोर-जोर से हँसने लगे और मैं रोने
लगी। मेरे रोने से वे सब डरकर चले गए।
‘‘तुम रोई क्यों? निकेतन ने पूछा।
‘‘क्योंकि मैं और बेइज्जती नहीं कराना चाहती थी।’’
‘‘लेकिन रोने से तो और बेइ़ज़्जती होती है; वैसे कमी हममें है, ग़लत हम बोलते हैं।’’
‘‘एक दिन में तो कोई नहीं सीखता न; कल ही तो आई हूँ।’’
‘‘हम्म... वैसे हम एक-दूसरे का नाम, orientation क्लास में जान चुके हैं, और मुझे तुम्हारा भाई
बनने में कोई इंट्रेस्ट नहीं है; friend बनना है
तो बोलो।’’ कहते हुए निकेतन ने मेरी तऱफ अपना हाथ बढ़ा
दिया। किसी अनजान शहर के अलग से माहौल में अपने शहर से किसी का मिल जाना किसी दुआ
से कम नहीं। अपने आँसू पोंछकर इस दुआ को झट से क़बूल कर लिया था मैंने।
दिल्ली हमारे शहर जमशेदपुर से बिलकुल अलग था, और हम दिल्ली के
लोगों से। बड़ी-बड़ी इमारतों और चटख रंग के कपड़े पहने ख़ूबसूरत लोगों की भीड़ में भी
हम पहचान लिये जाते थे।
मम्मी हमेशा कहती हैं,जैसा देश वैसा भेष। हमने दिल्ली को
अपनाना शुरू कर दिया था, और दिल्ली ने हमें; और इसी बीच पता नहीं कब चुपके से मेरे मन ने निकेतन को भी अपनाना शुरू कर
दिया था। बड़ी-बड़ी आँखों वाला निकेतन, अनजाने ही मुझे
अपनी ओर खींच रहा था। वैसे तो वो कुछ कहता नहीं था, लेकिन
मन के चोर की झलक कभी-कभी उसकी आँखों वाली खिड़की से मिल जाया करती थी।
मम्मी ने फोन पर बताया था, कि आदित्य ने construction का काम शुरू किया है और साथ-साथ अपना घर भी बना रहा है।
वक्त को जैसे पंख लग गया था। और बहते हुए वक्त के साथ जैसे-जैसे मैं निकेतन
के करीब आती जा रही थी, वैसे-वैसे आदित्य से दूर होती जा रही थी।
निकेतन का मुझे, आप कहना अंदर तक छू जाता था, और पढ़ाई के अतिरिक्त किसी दूसरे काम में भी ‘‘दो
मैं करता हूँ।’’ कहकर मेरी हेल्प करने से, मैं उसपे डिपेंड होती जा रही थी।
उस दिन, बहुत दिनों बाद मैंने आदित्य का फ़ोन उठाया था। ‘‘तुम मेरा फ़ोन क्यूँ नहीं उठाती हो?’’ ग़ुस्से से
पूछा था उसने।
‘‘तुम्हारा फ़ोन हमेशा ग़लत टाइम पर आता है; कभी मैं क्लास में होती हूँ, कभी प्रोजेक्ट में
बि़जी... you know पढ़ने के लिये ही आई हूँ न।’’
‘‘हाँ, कितना भी पढ़ लो, बाद में मुहल्ले भर की औरतों के ब्लाउज ही सिलोगी न।’’
‘‘और तुम्हारे शर्ट भी।’’ मेरा
प्रत्युत्तर म़जा़िकया था, लेकिन वो समझा नहीं था। मैं
अब उससे लड़ना भी नहीं चाहती थी, क्यूँकि अब मेरी लड़ाई
ख़ुद से थी।
निकेतन के पापा की डेथ बहुत पहले एक एक्सीडेंट में हो गई थी। नानी और मम्मी
के साथ वो जमशेदपुर में रहता था। उसकी मम्मी वहीं बैंक में जॉब करती थीं। निकेतन
अकेला है; उसके कोई भाई-बहन नहीं हैं। ‘‘असल में और भाई बहनों के आने से पहले ही पापा का ...।’’ उसने वाक्य अधूरा ही छोड़ दिया था। ‘‘मुझे पापा
की याद भी नहीं; सि़र्फ तस्वीरें है।’’
उसने ऩजर का चश्मा उतारकर अपनी आँखों के कोर को अपनी उँगलियों से हल्के से
दबाया; उसकी उँगलियाँ गीली हो गई थीं।
‘‘जानते हो, मैं एक ऐसे इंसान से
शादी करने जा रही हूँ, जिसके इंत़जार में ख़ूबसूरत
लड़कियाँ क्यू में खड़ी हैं; और ये मुझे उसी ने बताया।’’ मैं भी इमोशनल हो गई थी।
‘व्हाट?’
‘‘हाँ जी।’’
‘‘तो किसी और के लिए कोई चान्स नहीं है?’’ उसकी उदासी बढ़ गई, जिसे मैं अनदेखा नहीं कर
पाई।
‘‘नहीं; मुझे लगता है आदित्य
मुझसे ज़्यादा ख़ूबसूरत लड़की डि़जर्व करता है, और मैं respect.’’ मैंने उसकी आँखों में जुगनू डाल दिया था।
फ़ैशन स्कूल join करने के बाद पहली बार निक के साथ जमशेदपुर
राजधानी के टू सीटर कम्पार्टमेंट में आई थी।
जानती थी, स्टेशन पर पापा के साथ आदित्य भी आयेगा। मैं जल्दी से
कम्पार्टमेंट से बाहर निकल ट्रेन से उतर गई, और निक को
बाय बोले बिना ही चल दी। दिलवाले दुल्हनियाँ ले जायेंगे की काजोल की तरह मेरा मन
गाना गाता, उससे पहले ही उसने आवा़ज दिया, ‘‘वानी! तुम्हारा बैग।''
मैंने मुड़कर देखा, वो वहीं खड़ा था।
औपचारिक जान-पहचान के बाद पापा ने उसे घर पर इन्वाइट कर, मेरे
मन का कर दिया था, जबकि आदित्य की नारा़जगी सा़फ झलक
रही थी।
लेकिन उसकी नारा़जगी पर मेरे आने की ख़ुशी भारी पड़ रही थी। ड्राइव करते हुए
बैक व्यू मिरर में बार-बार मुझे देखने की उसकी कोशिश मुझसे छुपी नहीं थी।
उस रात आदित्य ने अकेले में मुझे किस करने की कोशिश की, और
मेरे मना करने पर उसने कहा- ‘‘पहली बार तो नहीं कर रहा!’’
‘‘हाँ, लेकिन अब हम बच्चे नहीं
रहे।’’ मैंने बच्चे शब्द पर अतिरिक्त जोर देते हुए कहा
था।
‘‘तो इससे क्या फर्क पड़ता है; तुम
मेरी होने वाली बीवी हो।’’
‘‘लेकिन हूँ तो नहीं न; इससे पहले
तुमने अकेले में कभी ऐसा किया भी नहीं।’’
‘‘क्योंकि अब हम बच्चे नहीं हैं।’’
‘‘वही मैंने भी कहा।’’ कहकर मैं
उसे वहीं छोड़कर चली गई थी, निक की यादों की साथ सोने।
अगले दिन आदित्य ने आदेशात्मक स्वर में कहा, ‘‘वानी! चेंज कर लो; मैं तुम्हें कन्स्ट्रक्शन साइट पर ले चलता हूँ।’’
‘‘चलो, मैं तो तैयार हूँ।’’
‘‘नहीं, चेंज कर लो।’’ उसने दृढ़ता से कहा।
‘‘इन कपड़ों में क्या बुराई है?’’
‘‘असल में मेरे म़जदूर तुम्हारी तरह फ़ैशन स्कूल से नहीं आये
हैं न, इसलिये शार्ट लेंथ स्कर्ट और स्लीवलेस टॉप में
तुम उन्हें आइटम लगोगी।’’
मुझे समझ में नहीं आया कि उसने तारी़फ की थी या टॉन्ट किया था, इसलिये
से़फ वर्ड ok बोलकर चुप हो गई।
साइट पर उसने कहा, ‘‘मुझे ऐसे कपड़े बिलकुल पसंद नहीं वानी; आइंदा मत पहनना।’’
‘‘तुम पतियों की तरह बिहेव कर रहे हो!’’
‘‘क्यूँकि पति बनने वाला हूँ।'' उसने
रोमांटिक होकर कहा था।''
‘‘बने तो नहीं न।’’ मैं चिढ़ गई
थी।
‘‘पति बनने के बाद बदल तो नहीं जाऊँगा न; जो आज हूँ वही रहूँगा।’’
‘‘मेरी अपनी पसंद और नापसंद है।’’
‘‘पति की पसंद ही पत्नियों की पसंद होती है।’’
‘‘लेकिन मैं कठपुतली नहीं, जिसकी
डोर तुम्हारे हाथ में है।’’
‘‘समय बदल गया है जानेमन; तुम
कठपुतली नहीं, चाभी वाली गुड़िया हो... जितनी भरूँगा
उतना ही चलोगी।’’
ग़ुस्सा तो मुझे बहुत आया था; जी चाहा, सब कुछ तुरंत ख़त्म कर दूँ, लेकिन मैं रिश्ते को
तब तक निभाती हूँ, जब तक उसमें आखिरी उम्मीद बची हो।
मैं बचपन की दोस्ती निभाना चाहती थी।
हालाँकि मेरे लिये उससे अलग हो जाना बहुत आसान था, क्यूँकि
स्त्री के लिये सि़र्फ प्रेम का़फी नहीं होता; सम्मान
विहीन प्रेम, नमक बिना खाना... फीका फीका।
‘‘औरत का जीवन पराधीन होता है बेटा!’’ लालन मुझे समझा रही थीं।
‘‘आप ज़िन्दगी भर चुप रहीं, अब
मुझे भी वही सिखा रही हैं।’’ मैं बहुत ग़ुस्से में थी।
‘‘औरत को धैर्य से काम लेना पड़ता है।’’ लालन ने फिर से कोशिश की।
‘‘औरत को धैर्य से क्यूँ काम लेना पड़ता है, पति को क्यूँ नहीं?’’
‘‘क्यूँकि पति पुरुष होता है बेटा।’’
‘‘तो क्या पत्नी ग़ुलाम होती है?’’
‘‘ये समाज ऐसा ही है बेटा; तुम तो
मेरी बेटी हो; समझाना मेरा फ़र्ज़ है...मैं आदित्य के
जन्म के पहले ही माँ बन गई होती, अगर ...।’’
‘‘अगर क्या?’’
‘‘अगर कोख में बेटी नहीं होती।’’ लालन
की आवा़ज दर्द में डूबी हुई थी।
‘क्या!!’
‘‘हाँ; आदित्य की दादी और पापा
नहीं चाहते थे कि बेटी हो; तुम मेरे लिए वही मार दी गई
बेटी हो।’’
‘‘आप मुझे फिर से मार देना चाहती हैं?’’
‘‘पाँचों उँगलियाँ एक जैसी नहीं होतीं; आदित्य तुमसे बहुत प्यार करता है।’’
‘‘ठीक कहा आपने लालन, कि पाँचों
उँगलियाँ एक जैसी नहीं होतीं; लेकिन कुछ लोग प्यार के
साथ-साथ सम्मान भी चाहते हैं।’’
‘‘जीवन में आत्म-सम्मान से बढ़कर कुछ भी नहीं; बाकी सब मन का रोग है, और रोगमुक्त जीवन औरत के
नसीब में नहीं।’’ कहकर लालन चुप हो गई थीं।
उन्हें बहुत ज़्यादा बहस करने की आदत नहीं थी।
‘‘भैया, कैंडल लाइट डिनर पर चले
जाओ तो ग़ुस्सा उतरेगा; और हाँ, अपने ग़ुस्से को यहीं कहीं छोड़कर जाना।’’ नमिता
ने समझाया, लेकिन उसने कहा, ‘‘एक
तो चोरी ऊपर से सीनाजोरी।’’
‘‘मैं क्यूँ झुवूँâ? ग़लती उसकी है, उसने घटिया कपड़े पहने; वो सॉरी कहे तो कैंडल
लाइट पर ले जाऊँगा।’’
नमिता ने कहा, ‘‘दी, तुम्हीं सॉरी बोल दो।’’
‘‘मैं सॉरी बोलकर लालन नहीं बनना चाहती हूँ।’’ इतना कहना का़फी था, शायद इसलिये फिर उसने कुछ
नहीं कहा।
आदित्य, धीरे-धीरे दिल से निकलकर दिमा़ग में शि़फ्ट हो रहा था, और दिल वाली ख़ाली जगह में निकेतन आ रहा था।
दिल और दिमा़ग से मेरी ज़बरदस्त लड़ाई चल रही थी। दिमा़ग कह था, एक
रिश्ता ख़त्म करके दो परिवारों का इतना पुराना रिश्ता ख़त्म नहीं किया जा सकता; दिल कह रहा था, दिल के मामलों में दिमा़ग का
क्या काम? दिल और दिमा़ग की इस लड़ाई में थककर सो गई थी।
नमिता के चिल्ला-चिल्लाकर उठाने से जब आँख खुली, तो
जानी-पहचानी आवा़ज सुनाई दी। लगभग दौड़कर गई थी। निकेतन की ऩजर मुझपर पड़ी, और कुछ पल के लिए मैं पत्थर हो गई।
‘‘कैसी हो?’’ उसने पूछा तो जैसे
मैं होश में आयी।
‘‘अब ठीक हूँ।’’ कहकर ख़ुद ही झेंप
गई।
शायद दिल ने क़िला फ़तेह किया था।
आदित्य, अचानक से चिप्स लेकर आ गया था, और निकेतन को देखकर उसके चेहरे का रंग उड़ गया; उसपे
निक से उसे मैंने मात्र बचपन का दोस्त कहकर मिलवाया, जिसने
आग में घी का काम किया।
मैं उसकी आग को और भड़काना भी चाहती थी, ताकि उसका इश़्क
स्वाहा हो जाये, और वो मुझे छोड़ दे; लेकिन आदित्य के लिए मैं उसकी अच्छी आदत थी, जिसे
वो किसी तरह की आग में झोंकना नहीं चाहता था, इसलिये वो
वहीं बैठ गया।
उसने कहा वो मेरा मंगेतर है; शायद वनिता ऐसा
कहने में शर्मा रही है, इसलिये नहीं बताया।
निकेतन ने पहले तो हमें बधाई दी, फिर आदित्य से कहा,
‘‘तुम बहुत क़िस्मत वाले हो,जो तुम्हें वनिता
मिली है; वनिता जितनी इंटेलिजेंट स्टडी़ज में है, उतनी ही स्मार्ट क्रिएटिविटी में ''।
‘‘घर गृहस्थी सँभालने के लिये ज़्यादा intelligency और smartness की ज़रूरत भी नहीं।’’ आदित्य ने किसी अनपढ़ गँवार की तरह कहा था।
‘‘क्या तुम fashion school से
पढ़ने के बाद रोटियाँ डि़जाइन करोगी?’’ निकेतन ने मुझसे
मु़खातिब होकर पूछा था।
लेकिन जवाब आदित्य ने दिया - ‘‘ईश्वर ने मर्दों
को पैसे कमाने, और औरतों को घर सँभालने के लिये बनाया
है; जो नियम तोड़ते हैं, उनके
घर टूटने के कई किस्से हैं... आखिर वनिता किसी खास ग्रह से तो नहीं आई है न!’’
‘‘ये नियम ईश्वर ने नहीं, तुम्हारे
जैसे पुरुषों ने बनाये हैं; और ये पुरुष-समाज, महिलाओं को घर-गृहस्थीr में क़ैद कर ख़ुद भगवान
बन बैठा है। सच तो ये है कि महिलाएँ हम पुरुषों से कहीं ज़्यादा सक्षम हैं... आज की
महिला, घर और बाहर दोनों एक साथ समान रूप से सँभालती है, और इसी डर से पुरुषों ने महिलाओं को ईश्वर और समाज की दुहाई देकर घर के
अंदर क़ैद कर दिया; फिर तुम्हारा वनिता को क़ैद करने की
कोशिश अनोखा नहीं।’’
‘‘खैर, इतनी बहस करने की फ़ुर्सत
मुझे नहीं; तुम्हें जो समझना है वो समझने के लिये आ़जाद
हो... हाँ, वनिता का दिल्ली जाने का बहुत मन था, इसलिये हमने ज़्यादा रोका नहीं; वैसे भी हमें
कौन सा इससे नौकरी करवाना है।’’ आदित्य, पक्के बु़जुर्ग वाले अन्दा़ज में कह रहा था।
‘‘वनिता को तो तुम्हारा शुक्रगु़जार होना चाहिये; कम से कम तुमने इसे दिल्ली घूमने की इजा़जत दे दी।’’ फिर मुझसे कहा, ‘‘इतना intelligentऔर स्मार्ट होने का क्या फ़ायदा, जब तुम्हारे
फ़ैसले कोई और लेता हो।’’
निकेतन का ये कहना आदित्य के लिए असहनीय हो गया था। अंगारे बरसाती हुई
आँखों से मुझे और निकेतन को देखा, फिर बुरा सा मुँह बनाकर बोला,
‘‘वो तो आने वाला समय बतायेगा कि कौन कितना intelligent और smart है।’’ कहकर निकल गया।
अगले दिन उसने कहा, ‘‘तुम दिल्ली नहीं जा रही हो।’’
हालाँकि मैं जानती थी, ये कल वाली आग का परिणाम था; लेकिन जानबूझकर अनजान बनते हुए पूछा, ‘‘ये तुमसे
किसने कहा? ''
‘‘मैं किसी के कहने पर कुछ नहीं करता।’’ उसने अपनी आवा़ज को और भारी बनाते हुए कहा।
‘‘मैं भी नहीं।’’ मैंने भी उसी के
अन्दा़ज में जवाब दिया था।
‘‘चार दिन दिल्ली में रहकर बिल्ली की तरह ज़्यादा
म्याऊँ-म्याऊँ करना सीख गई हो।’’
‘‘और पीछे से तुमने कुत्ते की तरह फ़ालतू भौंकना सीख लिया है।’’
‘वानी!’ बहुत ज़ोर से ची़खा था
आदित्य।
‘‘धीरे बोलोगे तब भी सुन लूँगी।’’ मैंने उसे और चिढ़ाने वाले अन्दा़ज में कहा था।
‘‘तुम शायद उस बदतमी़ज के साथ रहकर बात करने की तमी़ज भूल गई
हो।’’
उसने निकेतन को बदतमी़ज कहा था, और जवाब सुनने से
पहले ही चला गया।
मैं उसे इस हद तक मजबूर कर देना चाहती थी, कि वो ख़ुद मुझसे
रिश्ता तोड़ दे; लेकिन हर बार वो सि़र्फ ग़ुस्सा करके रह
जाता।
उसके ग़ुस्से पर उसका इश़्क भारी था; ते़ज मिर्ची सा
तीखा इश़्क। न जाने कितनी बार मेरी आँखों से आँसू निकल आये।
मम्मी-पापा भी शायद वही चाहते थे जो मैं। लेकिन निक के साथ लंच पर जाने से
नमिता बहुत नारा़ज थी, और शायद उसने आदित्य को बता भी दिया था। वो उम्र ही
ऐसी होती है; इसमें सि़र्फ प्यार अच्छा लगता है। इस
उम्र से मैं भी गु़जर चुकी थी, जब मुझे आदित्य के सिवा
कुछ और न दिखाई देता था, न सुनाई।
असल में हमें जब सच में प्यार होता है, तब महसूस होता है, कि आज से पहले जो था, वो मात्र प्रेम का भ्रम
था।
दिल्ली वापस जाने का समय ऩजदीक आ गया था। मैं सब कुछ ख़त्म करके जाना चाहती
थी। ख़ुद आ़जाद होकर; और उसे मुक्त कर देना चाहती थी, उस बंधन से, जिसमें मैं बँधना नहीं चाहती थी, और वो मुझे बाँधना चाहता था।
अब, सब जल्दी ही ख़त्म होने वाला था। विक्रम अंकल को अपने
घर में देखकर अंदेशा हो गया था मुझे।
उन्होंने कहा कि अब मुझे दिल्ली जाने की ज़रूरत नहीं, क्यूँकि
कोई अच्छा सा मुहूर्त देखकर वो मेरी और आदित्य की सगाई करना चाहते हैं।
मम्मी, पापा का मुँह देखने लगी थीं, और पापा ने मुझे देखा। मैं कुछ कहती, इससे पहले
ही आदित्य ने पीछे से आकर सीधे शब्दों में कहा कि जो लड़की किसी और लड़के से अकेले
में मिलती-जुलती है, मैं उससे शादी नहीं करना चाहता।
‘‘शादी तो मैं भी तुमसे नहीं करना चाहती; क्यूँकि तुम्हारे लिये कोई गाँव वाली ठीक रहेगी, जो पल्लू ओढ़े तुम्हारे चरणों में पड़ी रहे।’’ मैंने
प्रहार किया था।
‘‘कम से कम घर की इ़ज़्जत घर में रहेगी; लेकिन मुझे नहीं पता था कि दिल्ली जाकर तुम इतनी शहरी हो जाओगी।’’
‘‘थोड़े तुम भी शहरी हो जाओ आदित्य; कब तक खूँटे से बँधे रहोगे।’’
‘‘अगर बेहयाई, शहरी होना है तो
मैं गँवार ही ठीक।’’
‘‘तुम तो विदेश भी चले जाओगे तब भी गँवार ही बने रहोगे, पता है क्यूँ? क्यूँकि education इंसान को प्रोग्रेसिव बनाता है, और तुम्हें तो
पढ़ने से ऩफरत थी।
अब वा़कई शायद हद हो गई थी, इसलिये विक्रम अंकल
उठकर खड़े हो गये थे। ‘‘वनिता को तुमने ज़रा भी तमी़ज
नहीं सिखाया; बात अगर बच्चों तक होती तो फिर भी ठीक था, इसे तो बड़ों का भी लिहा़ज नहीं।’’
मैं वापस दिल्ली आ गई थी। कुछ महीनों बाद मम्मी ने फोन पर बताया कि आदित्य
का घर बन जाने के बाद वे लोग अपने घर शिफ्ट हो गए, और बगल वाले
क्वार्टर में नए पड़ोसी आ गए हैं।
* * *
आदित्य मुझे पुकार रहा था-, ‘‘वानी! वानी! वानी!''
मैं हड़बड़ाकर उठी।
‘‘उठ जाओ, गाजियाबाद आ गया है; तुम फ्रेश हो लो, मैं चाय लेकर आता हूँ।’’ कहकर वो जल्दी से गया और जल्दी से आया भी।
मैं अब भी वैसे ही उनींदी सी थी। टिश्यू से फेस क्लीन करके आदित्य को चाय
के लिए थैंक्स कहा।
बदले में वो सिर्फ मुस्कुराया, फिर थोड़ा रुककर
कहा- ‘‘उतरने से पहले मैं तुम्हें कुछ बताना चाहता हूँ।''
‘‘हाँ कहो न!'' मैंने भी जल्दी
में कहा था, क्योंकि उसकी मंजिल तो गाजियाबाद ही थी।
‘‘मेरी शादी हो गई है, और मेरी एक
बेटी भी है।’’ उसने कहा, तो
मैं आश्चर्य से उसका चेहरा देखने लगी थी।
‘‘तो झूठ क्यों बोला तुमने?’’
‘‘मैं तुम्हें गिल्ट फील कराना चाहता था बस।’’ कहते हुए उसने पहले से ही बाहर निकाला हुआ अपना बैग उठाया, और मुझे बाय कहकर निकल गया।
आदित्य, जरा भी नहीं बदला। सोचते हुए मैं बची हुई चाय खत्म
करने लगी।
और मेरी तरह ट्रेन भी आगे बढ़ गई।
प्रियंका ओम
जन्म :- 05 मई
स्थान :- जमशेदपुर , झारखंड
शिक्षा
:- अंग्रेज़ी साहित्य से स्नातक, सेल्ज़ एंड मार्केटिंग से मास्टर्ज़
साहित्य :-
विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित
शैली :-
पॉप्युलर फ़िक्शन
प्रकाशित पुस्तकें :- वो अजीब लड़की ( कहानी संग्रह ) 2016
मुझे तुम्हारे जाने से नफ़रत है ( कहानी संग्रह ) 2018