- रश्मि रावत
‘आजादी’
शब्द ही ऐसा मनोहारी है कि कान में पड़ते ही मन में लुभावनी छवियाँ तिरने लगती
हैं। खुले आकाश में पंख पसारे चहचहाते परिंदों की खुशनुमा उड़ानें, हँसते-गाते-मचलते-खेलते-दौड़ते
बच्चे (बच्चियाँ अलग से बोलना पड़े तो कैसी आजादी),....हर ओर
जीवन की उमंग, अपने होने का, जीने का
उत्सव।
जीवन जब बाधा दौड़ हो तो मनोजगत की ये छवियाँ देर तक नहीं
चलतीं। मनुष्य होने के नाते जो मानवाधिकार हर किसी को मिले ही होने चाहिए, उन्हें हासिल करने के लिए भी अनवरत संघर्षों की दरकार हो तो मुक्ति की
कल्पना भी अबाध क्योंकर हो। हाँ आँखें मुक्ति का यह सपना देख पाती हैं-इसका मतलब
पहले से बेहतर स्थिति तक तो हम पहुँचे ही हैं। सपना देख पाना छोटी बात तो है नहीं।
राजनीतिक स्वतंत्रता के आने से सामाजिक, आर्थिक आयामों में
फर्क न पड़ा हो, ऐसा तो नहीं है, मगर
उसकी गति काफी धीमी रही है। बेहतर समतामूलक स्वस्थ भविष्य की उम्मीद जगने लगी थी।
मगर पिछले कुछ समय में स्वस्थ, सुंदर जिंदगी जीने की राह की
अड़चनें बढ़ती जा रही हैं। संवैधानिक मूल्यों को जड़ परम्पराओं और उग्र
उपभोक्तावाद की ताकतों के सामने लचर पड़ते देखने के अनुभवों में इजाफा ही हो रहा
है। सामाजिक भेदभाव के खत्म हुए बिना आजादी की कल्पना की भी कैसे जा सकती है।
तीन-चौथाई भारत शेष एक चौथाई इंडिया का उपनिवेश ही लगता है।
आज के समय
की सबसे बड़ी विडम्बना है कि यथार्थ की विषमता का बोध ही लोगों को नहीं है। बोध
नहीं है तो विषमता को दूर करने के उपक्रम भी भला कैसे होंगे। साहित्य और अच्छे
लेखन की और लघु पत्र-पत्रिकाओं की वर्तमान में बहुत अधिक जरूरत है, मगर लोगों को अपनी
इस जरूरत का पता ही नहीं है। इस चुनौती से निपटने के क्रम में अपनी भूमिका तलाशने
की कोशिश की तो और भी तीखे ढंग से पता चला कि यह खाई कितनी बड़ी है।
यथार्थ
बोध सम्पन्न चिंतन-मनन-लेखन करने वाले लोगों की संख्या इतनी बड़ी नहीं है कि समय
की माँग को पूरा कर सके। लिखने-पढ़ने के अपने अनुभवों से एहसास हुआ कि इन चंद
लोगों में भी बहुलांश की मानसिकता विभाजित है। दृष्टि खंडित है। समानता मूलकता अभी
उनके लिए भी सुदूर भविष्य की कोई चीज है जो सिर्फ यूटोपिया में हो सकती है इसलिए
उसके लिए कोशिश करने का हौसला ही नहीं पैदा हो पाता। वस्तुत: सदियों से मन-मस्तिष्क में जड़ें जमाए
हुए ढाँचों को दरकाने के लिए सजग और निरंतर कोशिशों की दरकार होती है। हमारी
कोशिशें ढीली पड़ती हैं तो वे मजबूत होते हैं। दूसरी स्थिति यह है कि वर्चस्वशाली
वर्ग के विशेषाधिकारों से चिपटे रहने की ललक ( मैं इस ललक को ‘वासना’ मानती हूँ)
इतनी तीव्र है कि सामाजिक बराबरी वह चाहता ही नहीं है, सामाजिक मुक्ति का
शब्दाडंबर रचना बस उसने सीख लिया है। भीतर परम्परा के ढाँचे कमोबेश अक्षुण्ण रहते
हैं और अभिव्यक्ति में समानता के भाव का छद्म भी बना रहता है।
एक स्त्री
होने के नाते अकादमिक-बौद्धिक जगत में मिले अपने अनुभवों की ही बात करूँ। स्त्री-दृष्टि
की अवधारणा कुछ समय पहले तक मेरी वैचारिकी का अलग से हिस्सा नहीं थी। अब भी साफ
समझ बन गई हो, कह नहीं सकती। स्पष्ट तौर पर तो बस यही जानती और मानती आई हूँ कि संविधान
में स्त्री-पुरुष सब बराबर हैं और उन्हें समान अधिकार मिले हुए हैं। स्वतंत्र भारत
के मध्यवर्गीय परिवार में जब जन्म लिया तब तक पढ़ने की, हँसने-बोलने,
खाने-पीने, नौकरी करने की सुविधा जैसे
बुनियादी अधिकार स्त्रियों को प्राप्त हो चुके थे। मतलब ऐसा दिखने लायक परिवर्तन
सामाजिक गतिकी में हो चुका था कि इन जीवन-गतिविधियों में जाहिरा तौर पर बराबरी सी
दिखे, आचरण और अभिव्यक्ति का इतना कौशल तो तब तक समाज ने
अर्जित कर ही लिया था। तो उम्र का अब तक का हिस्सा अपने आप को स्वतंत्र भारत का
आजाद नागरिक मानते हुए गुजारा। जिसमें स्त्रियों के कर्त्तव्य और अधिकार एकदम वही
हैं जो कि पुरुष के। हर सार्वजनिक, सामाजिक परियोजनाओं में
हमेशा खुद को एक व्यक्ति समझा, नागरिक समझा। व्यक्ति होने
में जब-जब, जिस-जिस आयाम में हारती रही तब-तब अपने को कमतर
समझने का बोध पुष्ट होता गया। उम्र बढ़ने के साथ व्यक्तित्व के कई आयामों में मैं खुद को हीन समझती गई। मगर ऐसे ही जैसे
एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से कमतर या बेहतर होता ही है किसी काम में। उन क्षेत्रों
में जिनमें वस्तुनिष्ठता अपेक्षाकृत अधिक पाई जाती है जैसे गणित, विज्ञान इत्यादि में खुद को हमेशा बराबर समर्थ पाया। साहित्य-लेखन जैसे
क्षेत्र में जिनमें विषयनिष्ठता तुलनात्मक ढंग से अधिक पाई जाती है, कोई स्पेस कभी किसी चीज का बना नहीं पाई। स्पेस से मेरा मलतब है अपनी बात
कहने का अवसर। तनिक प्रोत्साहन, या लिखे हुए या बोले हुए पर
कोई भी प्रतिक्रिया, जिससे अपनी कमी या ताकत का पता चले। कम
से कम इतना भर कि लिखा हुआ सम्प्रेषित होता भी है या नहीं। ‘स्पेस’ का अर्थ किसी
मुकाम तक पहुँचना मेरे लिए कदाचित नहीं है। संवाद की स्थिति बनना ही स्पेस है हम
स्त्रियों के लिए। कह-सुन भर पाने की स्थितियाँ होना काफी लगता है। अकादमिक
कार्यक्रमों, पत्र-पत्रिकाओं, सोशल
मीडिया सब जगह स्त्रियों की संख्या निरंतर बढ़ती दिखाई दे रही है इसलिए इन सब
बाधाओं का स्त्री होने से कोई सम्बंध है, लम्बे समय तक कोई ध्यान नहीं गया। लगा कि जिसमें काबलियत होगी वह साहित्यादि
लिख-पढ़ रहे होंगे। मुझे दुनिया के कुछ और काम खोज लेने चाहिए। इसलिए बीच के तमाम
वर्षों में क्षेत्र बदल-बदल कर पढ़ाई और काम करती रही। दर्शन शास्त्र तो पहले पढ़
लिया था। मनोविज्ञान पढ़ा। मानवाधिकार, पर्यावरण और पारिस्थितिकी, जेंडर अध्ययन, शिक्षा शास्त्र में औपचारिक अध्ययन किया। लैंगिक सौहार्द और सॉफ्ट स्किल
की कई कार्यशालाओं में लोगों को प्रशिक्षित करने का अवसर मिला। जब पुलिसकर्मियों
और अन्य कामगारों से जुड़ी जहाँ लैंगिक विभेद बाहरी आचरण में या एकदम ऊपरी सतह पर
दिखाई देता है। मानसिक मिट्टी को उपजाऊ बनाने के लिए की गई गुड़ाई में लैंगिक
विषमता के मोटे-मोटे ढेले मिले। जिनके अस्तित्व से इंकार करना असंभव था। लैंगिक
विभेद की सख्त चट्टानों, मोटे-मोटे ढेलों से टकराने के
बारम्बार के अनुभवों के कारण समानता की छद्म चेतना को बनाए रखना असम्भव हो गया। उन
ढेलों को निकालकर बाहर फेंकने में जब सफलता मिलती है तो क्रमशः महीन होती जाने
वाली जकड़नें दिखाई देने लगती हैं। पुलिस कर्मचारी, छात्रों
के लैंगिक संवेदीकरण के लिए अपने साहित्य के अध्ययन का न केवल प्रयोग करती थी।
अपितु नई-नई रचनाएँ खोज-खोज कर पढ़ती थी जिससे सही बात सही ढंग से कह सकूँ। इस
प्रक्रिया में प्रबुद्ध जन के व्यक्तित्व और उनके कृतित्व में गूँथा हुआ विभेद साफ
नजर आने लगा। बौद्धिक, अकादमिक जगत में यह विषमतामूलकता महीन
स्तर पर काम करती है इसलिए महीन बुद्धि या गहरी खुदाई से ही नजर आ सकती थी। कम से
कम उस व्यक्ति की आँखों से तो कदाचित नहीं दिख सकती थी जो स्वतंत्रता दिवस और
गणतंत्र दिवस के जश्न की समारोही घोषणाओं पर भरोसा करके और संविधान को अपना
धर्मग्रंथ मानते हुए बढ़ी हुई हो। अपने भीतर और बाहर के उस नशे की चेतना ही अगर न
हो जिससे हम जाने-अनजाने संचालित होते हैं तो कैसे आधुनिक हो सकते हैं। सचेतन,
सुचिंतित अनवरत सक्रियता के बिना भला कैसे कोई किताब (संविधान) आचरण
और सोच को निर्धारित कर सकती है। विविध अनुभवों की इस मुठभेड़ ने मुझे महीन स्तर
पर कार्यरत विषमता के विषफलों को पहचानने की दृष्टि दी तो रील की तरह वह अनुभव
आँखों के सामने घूमने लगे जो पहले बोध न होने से समझ नहीं आए थे। उन पर अगली कड़ी
पर बात करेंगे। एक स्त्री की आजादी के बारे में सोचती हूँ तो उन कानों को जन्म
देना जो एक स्त्री को सुनना सीख पाएँ, मुझे अपना दायित्व
लगता है, जो मेरे समय ने मुझे सौंपा है, जो किया जाना अगली पीढ़ी की स्त्रियों की आजादी के लिए नितांत जरूरी है।
नया कुछ सुनने के कान चंद ही लोगों के पास हैं। जिस दिन भी एक जोड़ी ऐसे कान मिल जाते हैं तो मन पूरा दिन प्रफुल्लित रहता है। अंग-अंग में ताजगी आ जाती है। प्रभा खेतान को कार की स्टीयरिंग थामने पर लगा था कि पहली ड्राइविंग के आनंद के सामने प्रथम चुम्बन का आह्लाद फीका है।
जिन रचनाकारों ने
प्रतिबद्धता के साथ खुले दिमाग से लिखा है, उनका लेखन इस जरूरत को
एक हद तक पूरा करता है। ममता कालिया की कहानी ‘तोहमत’ मेरी बात को बेहतर ढंग से साफ कर पाएगी। इसमें आशा और सुधा नाम की दो
करीबी सहेलियाँ हैं जो साथ पढ़ती हैं, टहलती हैं, सपने देखती हैं। एक-दूसरे का साथ उन्हें सोद्देश्यतापूर्ण
जीवन जीने और सपनों को पूरा करने की योजनाएँ बनाने का हौंसला देता है । एक शाम टहलते हुए
सुरम्य प्रकृति के बीच दरिया की मौजों ने उन्हें अपनी ओर बरबस खींच लिया। चार
कदमों के साथ होने ने स्त्री शरीर में होने से उपजी बंदिशों को भुला ही दिया।
प्रकृति की ताल से तरंगित उनका मन निर्धारित सीमा रेखा से दूर उन्हें ले गया तो
शाम घिर आयी और उस सुनसान माहौल से घबरा कर वे दौड़ते-भागते-हाँफते, कँटीली
झाड़ियों में उलझतीं, गिरती-पड़तीं घर पहुँचीं। उनके कपड़े
जगह-जगह से चिर गए थे, शरीर में जगह-जगह खरोंचें बन गईं थे।
उनकी हालत देख कर बिना उनसे पूछे परिजनों ने मान लिया कि उनके साथ बलात्कार हुआ
है। वे दोनों लाख कहती रह गईं कि हमारे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ। पर घर भर में मातम
छाया रहा। खाना-पीना-सोना कुछ नहीं हुआ। “सुधा ने सारी
घटना बताने की कोशिश की, लेकिन उसे महसूस हुआ, उसके सामने तीन बहरे बैठे हैं। वे ठूँठ बन उसे घूर रहे थे।...माँ घुटनों
में सिर दिए सारी रात रोती रही, अपनी कोख को कोसती रही। सुबह
पिता ने ऐलान कर दिया कि आज से सुधा का कॉलेज जाना बंद।” एक घटना उन मेधावी विद्यार्थियों की जिंदगी की सारी सम्भाव्यताओं को और
उनके सारे रिश्तों-नातों को कुचल सकती है। यह शुचिता का मिथक कितना बेहूदा है। उस
पर तो लम्बे समय से बहुत कुछ कहा-सुना जा ही रहा है। विडम्बना यह कि घटित का सच भी
समाज अपने सीमित सामान्यता बोध से तय करेगा।
हैरानी की बात है कि इक्कीसवीं सदी में दिल्ली जैसे महानगर के
प्रबुद्ध वर्ग के बीच बोलते हुए भी कानों की कमी महसूस होती है। जिस बात को 2-3
सत्रों में पुलिस वालों या छात्रों को सम्प्रेषित कर पाती हूँ, वह भी इस बौद्धिक वर्ग के बीच सम्प्रेषित करना मुश्किल ही है। अक्सर इसी
भावमुद्रा के साथ वे बैठे रहते हैं कि सच उनकी जेब में है। नया कुछ सुनने के कान
चंद ही लोगों के पास हैं। जिस दिन भी एक जोड़ी ऐसे कान मिल जाते हैं तो मन पूरा
दिन प्रफुल्लित रहता है। अंग-अंग में ताजगी आ जाती है। प्रभा खेतान को कार की
स्टीयरिंग थामने पर लगा था कि पहली ड्राइविंग के आनंद के सामने प्रथम चुम्बन का
आह्लाद फीका है। मेरे अलावा अन्य स्त्रियों के अनुभव भी ये रहे हैं कि ऐसे कान
मिलने का अनुभव प्रेम से कम सुखकर नहीं। सन 2006 से ही मै कुछ-कुछ लिखती रही थी।
2008-2009 में तो जनसत्ता, दैनिक भास्कर, वागर्थ, लोकायत, आर्यकल्प आदि कई पत्र-पत्रिकाओं में छपा भी। भारतीय भाषा
परिषद की महत्वकांक्षी परियोजना हिंदी साहित्य कोश के लिए भी कुछ प्रविष्टियाँ
लिखीं हैं। एम-फिल, पी.एच.डी के दौरान प्रस्तुतियाँ
पाठ्यक्रम का हिस्सा होती हैं। वे सब अच्छे से सम्पन्न हुई, काफी
सराहना भी मिली। पर इस सब को तो कई वर्ष गुजर गए। आज तक कभी किसी अकादमिक काम में
मुझे शामिल नहीं किया गया है। शोध जमा करने की अर्हता प्राप्त करने के लिए
राष्ट्रीय सेमिनार में पेपर प्रस्तुति का प्रमाण पत्र चाहिए होता है। वह हासिल
करने के लिए भी अवसर उपलब्ध नहीं हुआ ।
अधिकतर जगह सिर्फ अवसरों, हितों के आदान-प्रदान या पद देख कर
बुलाने का माहौल है। नागरिकता बोध सम्पन्न वैयक्तिक स्त्री पुरुषों को कतई रास
नहीं आती। जेंडर संवेदित नई संवेदना वाले चंद पुरुषों को छोड़ दें तो बाकि के
पुरुषों के बोध में दो ही तरह की स्त्री अटती है। पारम्परिक स्त्री और पौरुष गुणों
को आत्मसात की हुई स्त्री। या तो स्त्री की आँखों में वह माधुर्य दिखना चाहिए जैसा
घरों की शालीन स्त्रियों में दिखता है। न सही मधुरता कम से कम आँखों में एक निरीह
सी कातरता तो दिखे कि सामने वाला कोई अवसर बताते हुए या सूचना देते हुए जमीन से
कुछ ऊँचा उठा हुआ महसूस करे। व्यक्तित्वबोध सम्पन्न एक ऐसी ही आत्मविश्वासी निर्भय
स्त्री को समाज से मिलने वाली चुनौतियों को नूर जहीर ने ‘नायिका अभिसारिका’ कहानी में बयां किया है।
उसके ठोस व्यक्तित्व से घबरा कर कोई उससे शादी नहीं
करना चाहता है तो उसे अपने गुणों को ढाँप कर रखना पड़ता है ताकि उचित समय पर
उन्हें जिया जा सके। वर्ना अक्सर स्त्री के ये गुण अविकसित ही रह जाते हैं। उम्र
के शुरूआती चरण में अनुकूल माहौल मिलने पर विकसित हो भी गए तो फिर बाद में कुंठित
हो कर रह जाते हैं। मगर यह नायिका गुण कायम रखती है भले ही काफी समय तक अव्यक्त
तौर पर। अर्चना वर्मा एक कहानी के संदर्भ में कहती हैं कि नायिका कभी अपने
अस्तित्व के भीतर जाती थी कभी उसके बाहर। अपने अस्तित्व के साथ जीने के लिए अनुकूल
स्थितियाँ स्त्री के लिए अब तक नहीं बनी हैं । उसे अपने वजूद को काट-छील कर या
उसमें कुछ अनावश्यक जोड़ कर अपनी जगह बनाने की बहुत जद्दोजहद करनी पड़ती है,
इस प्रक्रिया में बहुत कुछ अनमोल छूट जाता है। स्त्री का असली रूप
सामने नहीं आ पाता और समाज को भी एक नई समावेशी दृष्टि से वंचित रहना पड़ता है।
यथार्थ का बड़ा हिस्सा ओझल ही रह जाता है। अगर शिखा और आशा के परिजन उनकी बात सुन
लेते तो उन्हें भी कितनी राहत मिलती। कान झाड़ कर बैठना सिर्फ आधी आबादी के नहीं
पूरे समाज के स्वास्थ्य को बिगाड़ रहा है। यह विचार का अलग बिंदू है कि अगर उनके
साथ यह घटा होता तो ऐसे सहयोग करना चाहिए परिवार को?
अकादमिक, औपचारिक-अनौपचारिक
बैठकियों में अपनी बात कहते हुए अक्सर यह महसूस हुआ है कि शब्दों को अपनी य़ात्रा
करने के लिए जिस माध्यम की जरूरत होती है, वह हवा अचानक गायब
हो गई है। एक निर्वात बन गया है जिससे आवाज गति नहीं कर पा रही। सब रुक गया है। थम
गया है। लगने लगता है कि काश ऑक्सीजन का बैग होता तो पहले उसे उड़ेल कर हवा पैदा
करूं तो अपनी कहूँ। सोचती हूँ क्या स्त्री-विमर्श ऑक्सीजन का सिलेंडर ही है जो
अपनी बातें कहने के लिए माध्यम उपलब्ध करवा रहा है। पहले की स्त्री-पीढ़ी इतना कुछ
लिख कर न छोड़ गई होती तो जो टुकड़ा-टुकड़ा बातें पहुँच भी पाती हैं, वे भी कहाँ पहुँचतीं। स्कूल के दौर में प्रेमचंद, रविंद्रनाथ
टैगोर, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, टॉलस्टाय,
चेखव,...इत्यादि क्लासिक लेखकों को खूब पढ़ा।
बाद के सालों में भी इस कड़ी में कई नाम जुड़ते रहे। मगर दुर्भाग्य! स्त्री-रचनाकारों तक पहुँचने तक उम्र का एक बड़ा हिस्सा निकल गया। प्रौढ़
हो कर ही उनके लेखन से ठीक से सामना हुआ। उनके लेखन ने रगों में संकुचित हो कर
बहने वाले खून को रवानगी दी है। खुद के प्रति स्वीकार भाव आया है। कभी-कभी लाड़
भी। अपराध भाव कम हुआ। कमतरी का एहसास कुछ कुंद हुआ। अगर जीवन की उठान के समय ही
उन्हें पढ़ लिया होता तो सम्भवतः मेरा व्यक्तित्व और उपलब्धियाँ खुद पर गर्व करने
लायक होतीं। वर्तमान में तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। समाज में सारे सामान्यीकरण
पुरुष के हिसाब से हैं। जरा सा अलग सोचने पर ‘दिमागी पेंच
ढीला हो गया है’, समाज ऐसा सोचने पर मजबूर करता है। मेरे
परिवार में मुझ से बड़े चार भाई हैं। चारों ही मेरे प्रति बेहद स्नेहशील और उदार
हैं। रोक-टोक और संरक्षण का भाव तो उनसे कभी मैंने जाना ही नहीं। हम सब जेंडर
समानता को स्थापित सच मान कर जी रहे थे। मगर आँखें बंद करने से काँटे चुभना तो मगर
नहीं छोड़ते। हर वह काम जो वे करते थे मैं भी करती थी। उन्हें ये एहसास मगर नहीं
था कि इतने बड़े मूल्य को लाने के लिए सायास, सचेतन ढंग से
माहौल बनाना पड़ता है। देहरादून की उस समय की कस्बाई समझ के हिसाब से एक अच्छी
लड़की होने की भूमिका और चारों भाई के साथ लड़का होने की दौड़ साथ-साथ करने में
मेरी पूरी ऊर्जा और व्यक्तित्व का कचूमर निकल गया। घर में माँ, मौसी, आंटियों की अपेक्षा के अनुरूप सभी सामाजिक
अपेक्षा पूरी करती रहूँ और बाहर भाइयों की। वे भी आखिर मेरी तरह समाज के उत्पाद ही
हैं तो लाजमी ही है कि पुरुषों से समाज द्वारा अपेक्षित गुण उन्होंने जाने-अनजाने
अर्जित कर लिए होंगे। भाई के विवाह के बाद भाभी घर आईं तो लगा कि जैसे मेरे घर में
कान उग आए हैं। लगा पूरा घर हवा से भर गया है। जहाँ शब्द दोतरफा यात्रा करते हैं।
उनकी आमद ने घर को जिस तरह मेरे लिए सुकून भरा आसरा बना दिया। लगता है काश ऐसा
समाज में भी हो पाए। जेंडर संवेदना विकसित हो जाए तो सुनने वाले कान समाज में उग
जाएँगे तब स्त्री-विमर्श की अलग से जरूरत नहीं पड़ेगी और आज जब वर्तमान की
चुनौतियाँ इतने भयावह रूप में सामने खड़ी हैं। ये समय है क्या अपने संघर्ष को अलग-अलग समूहों
में विभक्त करने का?
रश्मि रावत दिल्ली कॉलेज
ऑफ आर्ट्स एण्ड कॉमर्स में अध्यापन कर रही हैं।
हिंदी में पीएच.डी के अलावा मानवाधिकार, जेंडर स्टडी, पर्यावरण , शिक्षा शास्त्र पर औपचारिक अध्ययन। विभिन्न पत्रिकाओं में
नियमित स्तम्भ लेखन। आलोचना इनका मुख्य क्षेत्र
है।