विनीता
आ चुका था पवित्र अन्न की उपज को समेटने का
मौसम यानि की पूष का महीना । खलिहानों में धान की महमह खुशबू आ रही है । धान के ही
इर्द - गिर्द डोलता पूरे वर्ष भर का जीवन । धान से निकलेगा “उसना”
चावल जिसके भात के स्वाद में लटपटाया जीभ अरवा या बासमती चावल को नहीं पचा पाता है
। भात और तालाब की मछली का स्वाद ही उनके जीभ को पता था । नवान्न ने देश के दूसरे इलाकों की तरह आसपास के
गाँवों में भी टुसु परब की दस्तक दे दी है
।
“कोइली,
सुरमनि
का समवेत स्वर सुनाई दे रहा है – “ बिस्टी
, सुगनी तुम
सब जल्दी आओ । अब तो टहक चाँद भी उग आया है” । पूर्णिमा की चाँदनी धरती की शीतलता बढ़ा रही थी ।
हँसुली सा चाँद माथे से भी बड़ा बिंदी सरीखा चमक रहा है । अब तो ठंड का भी आगाज़ सही
तरीके से हो चुका था । गाँव भर की कुँवारी वनदेवियां अगहन पूनो की चाँदनी में
हुलसते हुए इकट्ठी हो गई हैं । चटक चाँदनी में उनकी एक बराबर दंत पंक्तियाँ अपनी
रोशनी बिखेर रही हैं । हँसी के फव्वारे पूरे ही वातावरण को गीला कर रहे हैं ।
पिछले दो दिनों से मावठ की बूँदें सागोन की पत्तियों पर चमक रही थी । सरकती बूँदें
इन कन्याओं की भाग्य लक्ष्मी बन जाती अगर आषाढ़ और सावन ठीक से बरसता । मावठ बरस कर
भी क्या कर लेगा ? कौन सी गेहूँ की खेती
करनी है । एक ही फसल पर तो जीना – मरना
है ।
पिछले साल के मुक़ाबले अबकी आषाढ़ और सावन
में बारिश कम हुई थी । हर बार की अपेक्षा एक
– तिहाई ही धान हुआ था । जब धान में गाभ पड़ने
वाला था तभी चक्रवाती बारिश और हवा में धान के पौधों की टूटी कमर के साथ गरीबों की पूरी अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी थी ।
सहजता कोमलता लाती है । इन आदिवासियों की सहज जीवन शैली की मुलामियत में उत्सव
धर्मिता को बचा कर रखा है । सारी विडंबनाओं के बीच परब तो परब है खेती की खुशी का
परब “टुसु” , जो
अब तो टुसुमनि (एक आदिवासी लड़की) के बलिदान का परब है ।
आज अघन संक्रांति है । गाँव भर की कुंवारी
कन्यायेँ टुसु की मूर्ति स्थापना (थापने) का काम कर रही हैं । सरना स्थल और वनदेवी
को पूजने वाले इन वन वासियों ने जाने कब ये मूर्ति थापने जैसे परब का ईजाद कर लिया
था । कुँवारी लड़कियों की पवित्रता उनके
सुख उनकी उपस्थिति उनकी महता सबके परब के शुरूआत का गवाह ये चाँद है जो अपनी
चाँदनी में दाग लेकर युगों से रोशनी बिखेर रहा है ।
कोइली चहकती हुई सुगनी को समझा रही है –
“अबकी फसल नहीं हुआ तो क्या हुआ ? टुसुमनि
का मन लगाकर पूजा करने पर लक्ष्मी , सरसती
सब आयेंगी” । यहाँ सुगनी और कोइली दोनों
की साझी चिंता थी । फिर भी साझा दु:ख तो पुल होता है । दोनों ने अपनी – अपनी चिंताओं
को कड़वी दवाई की तरह घोंट लिया । सबके साथ सुगनी और कोइली के भी
समवेत
स्वर सुनाई देने लगे - -
आमरा जे मां टुसु थापी,अघन
सक्राइते गो।
अबला बाछुरेर गबर,लबन
चाउरेर गुड़ी गो।।
अब पूस चढ़ चुका है चाँदनी भी धीरे –
धीरे
फीकी पड़ने लगी है । चाँद दूर बैठा है समुद्र का
ज्वार – भाटा भी अब शांत पड़ चुका है
लेकिन सुगनी के दिमाग का तूफान कम होने का नाम नहीं ले रहा है ।
वैसे तो गाँव में कोई शांत नहीं था सब के
घर में रोज़ की किचकिच । तीन टाइम पेट की आग को शांत करने का कोई उपाय ना हो तो एक
कमी सारी कमियों को उघाड़ देती है ।
अनमनी सी सुगनी जैसे – तैसे
रोज़ शाम के टुसु के थापने में सबका साथ दे रही थी ।
“क्या
हुआ आज फिर ननकू काका काम पर नहीं गया” ?
कोइली की यह बात सुनते ही सुगनी को लगा जैसे किसी ने उसके दबे नासूर को उखाड़ दिया
हो । अचकचा गई सुगनी जैसे किसी ने सपनों से धड़ाम से वास्तविकता में पटक दिया हो ।
टुसु थापने वाले आटे की गोली अपने आप चिपटी हो गई । अपने को संभालते हुए – सुगनी
ने कहा -
“बोखार के बाद बाबू का
शरीर साथ नहीं दे रहा है । घर में ना अनाज है ना पैसा । आउर उसमें परब ।
माई
गई थी मुखिया के पास । चाउर उधार लाई है सरकारी चाउर से पूरा परिवार का पेट कहाँ
भर पाता है” ?
यह कहकर कल रात की बात याद करने लगी - तीन
दिन से चार मुट्ठी चाऊर के भात – माँड़ से सब भूख को धोखा दे रहे थे । छोटकी बहिन
मईली कइसे कल भात के लिये फूटफूट कर रो रही थी । हाल के दिनों में बने हालात को
सोच उसके रोंगटे खड़े हो गये । “तुम बेकार की चिंता करती हो मन लगाकर देवी की अराधना करो । सब ठीक हो
जायेगा”।
सोनमनी की बातों ने थोड़ा मरहम का काम किया
सुगनी फिर लग गई टुसु की सेवा में ।
सुगनी पाँच बरस की थी तबसे टुसु बनाती है और एक महीने पूजती है । छोटी थी तो बाबा के खेत अपने पास थे । चावल और गुड़ का पीठ्ठा बनता था । खलिहान बहुत छोटा था लेकिन उसमें धान की खुशबू आती थी । कुछ अपनी आदत और कुछ महँगाई , कमाई और खर्च का मेल नहीं बैठा पाया । अब खेत मुखिया के कब्जे में हैं । मुखिया जोतता और बोता है । वो खेत को खाली जोतता ही नहीं सुगनी के बाबू के सपनों को रौंदता है। लगता है जइसे उसके बाबू की छाती को ढंगाछ कर धरती का सीना चीरता है । सुगनी अपने गाँव की बुद्धिमान और पहली लड़की थी जिसने फ़र्स्ट डिवीजन से दसवीं पास की है । सुग्गे जैसी ठोर और घुंघरारे बालों वाली सुगनी की आँखें स्वर्णमृग सी चमकती हैं । उसकी आँखों से आग निकलती हैं टेशु के फूलों जैसी लाल टुहटुह । स्कूल के बच्चे उसकी वाकपटुता के साथ होठों की सहज हँसी के सामने अपने को कमजोर समझते थे । कई बार उसकी तिलस्मी मुस्कान को देख मास्टर डाँटते भी थे तुम हँस क्यों रही हो ? उसकी मुस्कान की सहजता और ताँबे जैसे रंग में रंगने के लिये कितने लोग तैयार थे । लेकिन उसकी जलानेवाली आँखों के सामने किसी की हिम्मत नहीं हुई कि उसे कुछ बोले ।
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चित्र इंटरनेट से साभार |
ननकू
की मजबूरी और दूर शहर में कॉलेज होने के कारण आगे पढ़ नहीं पाने और पढ़ा नहीं
पाने की घुटन में दोनों बाप – बेटी
दोनों ही जी रहे थे । अब तो खाने के लाले पड़े हैं तो पढ़ाने – लिखाने की बात कौन
करे ? सामाजिक उत्सव साबुन की तरह
होते हैं जो दु:ख को मैल की तरह हटाकर एक
नया रंग भरने का काम करते हैं । लेकिन इन आदिवासियों ने अपनी कमी रूपी कमजोरी को
अस्त्र बना लिया था । जिसे चलाने की कला उनमें जन्मजात होती थी । जन्मजात अवसादों
को माँजने की कला में सुगनी अभी कच्ची थी । थोड़े से भी घाव का दर्द नहीं बर्दाश्त
कर पाती थी । उसके चेहरे को देख कोई भी अंदाजा लगा सकता था कि कुछ हुआ है । लाख
माथे पर सलवटें हों समाज को तो नहीं छोड़ा जा सकता ।
अब पौष संक्रांति यानि मकर संक्रांति आने
में एक हफ़्ता रह गया है । अब तक सिर्फ़
लड़कियों द्वारा बजाये जाने वाली ढ़ोल की थाप अब लड़कों के शामिल होने के बाद मांदर
की थाप में बदल चुकी है । गाँव के जवान , लड़के
बच्चे सब चौड़ल को पूरी तरह सजाने - धजाने
में व्यस्त हो गये हैं । मुखिया के बाँस के कोठ से हरे – हरे
बाँस लाये गये हैं । शहर से चमकीला कागज लाया गया है । इस बार गाँव की अघोषित मंदी
की वजह से ज़्यादा चंदा नहीं मिला है । इस कारण चौडल में कपड़ा नही लगाया गया है । चमकीले कागज से सजा चौड़ल बनकर तैयार है और
दूसरी तरफ मांदर की थाप ढिंग , ढिंग ,ढितंग............
तेज़ होते जा रही है । इस आवाज़ में महुए की मादकता तो हड़िए की गंध । अपने में
मदमस्त मर्द – औरत चौड़ल को पूरे गाँव में
घूमा रहे हैं ।
उपोरे
पाटा तअले पाटा,ताई बसेछे दारअगा ।
छाड़
दारअगा रास्ता छाड़अ,टुसु जाछे कईलकाता ।।
चौड़ल
के साथ घूमनेवाले में गाँव के जवान लड़के – लड़कियों के साथ शामिल है,
मुखिया का बेटा सुख़न महतो । यूँ तो वह अपने बाप की जायदाद पर लोटने वाला इकलौता वारिस
। मांदर की थाप और लोगों के मीठे धुन को बिगाड़ने के लिये उसने अपने चाइनीज मोबाइल
पर गाना – बजाना शुरू किया । जिसकी कर्कश धुन में ‘आइसो
टुसु बाइसो चौड़लों पधुवाब फूल जले’ की
मधुर आवाज़ कहीं गुम हो गई । सबने चिल्लाना शुरू किया तब जाकर उसका मोबाइल बंद हुआ । वैसे तो आजकल परब है वो
दूसरे दिनों में शाम होते ही हँडिया
(मदिरा) पीने के बाद वो अपने आप को गाँव का राजकुमार समझने लगता है । अपने बाप का
बेटे होने के नशे में भूल जाता है कि सामने वाला कौन है । इधर मोबाइल ने इन
मासूमों को बिगाड़ दिया । कमाये हुए धन के
नशे से बड़ा होता है धन का वारिस बनने का नशा ।
अफ़ीम
सा नशा जो सुगनी को देख और चढ़ गया । पंद्रह – सोलह बरस की सुगनी को पता ही नहीं
चला जाने कब उसकी आँखों के सम्मोहन में फंस चुका था सुख़न महतो । सुगनी के नये
गदराया बदन सुंदर आँखों ने ख़ुद-ब-ख़ुद खींच लिया था । दूसरी तरफ अपने घर के हालात
से तिल – तिल लड़ती सुगनी ने तो कभी रुककर अपने शरीर को नहीं देखा था । कल सुरमनि
भी कह रही थी- “सुगनी तुमको सुख़न काहे ऐसे देखता रहता है । बचके रहना उसका चाल-
ढाल ठीक नहीं है । उस दिन मेरा भी रास्ता रोक लिया था”।
सकरात आने में अब सिर्फ़ छ : दिन बाकी है
मुर्गा और दारू का ज़ोर बढ़ गया है । सुगनी के घर में मांड -भात के लाले पड़े हैं तो
मुर्गा – दारू की बात कौन करे ?
ननकू
परेशान है कितने दिन कर्जे से घर चलेगा । परब का दिन और घर में इतना भारी माहौल ।
धीरे – धीरे हिम्मत जुटा रहा टुसु परब
में बच्चों के कपड़े और सुगनी की माई के लिये लाल पाड़वाली साड़ी तो खरीद सके ।
दिहारी पर काम करनेवाले मजदूर , रेज़ा
सबने छुट्टी ले रखी है । अकेला सुगनी का बाप ठेकेदार के यहाँ काम पर गया एक दिन की
मजदूरी लेकर घर लौट गया है । दो दिन की
मजदूरी में बच्चों के कपड़े ले सकेगा । दूसरे दिन फिर काम पर गया दो बार ईंट उठाई ही थी
कि तीसरी बार में धरती – आकाश
दोनों डोलते नज़र आये । ईंटों के साथ धड़ाम
से गिर पड़ा । भला हो भाग्य का कि माथा
नहीं फटा । बेहोशी की हालत में यही बोल रहा
अबकी टुसु कइसे ---------। परब तो मन के उल्लास से होता है । सुगनी
आज जुलूस में नहीं जा रही थी । उसका मन बिल्कुल नहीं लग रहा था । बाबू की हालत
उससे देखी नहीं जा रही थी । माई से छुपकर कई बार सुबुकी थी सुगनी । माई ने जंगल से
किसी पत्ते को पीसकर बाबू के चोट पर लगाया फिर कुछ पीसकर पिलाया भी । कह रही थी इस जड़ी –
बूटी
से अंदर का दर्द फट जाता है । माई और सुगनी भी ऐसी ही किसी बूटी की तलाश में थीं जिसे पीकर अपने परिवार के
पल – पल टीसते दर्द को फाड़ देतीं ।
माई उसकी लाल – लाल
आँख देखकर उसके दु:ख को कम करने के लिये टुसुमनि की बहादुरी की कहानी बताने लगी
- “टुसूमनी
की पवित्रता और बलिदान का पुट और ये परब” ।
टुसूमनी के बाबू के पास था जमीन का एक छोटा – सा
टुकड़ा । थोड़ी सी धान की खेती के बाद कर्जे से निकलना मुश्किल था । हमेशा कर्जे में डूबा उसका बाबू बेचारा ही बना रहता
था । उस साल भी फसल नहीं हुई थी । सिरजुदौला नवाब के सैनिकों की लपलपाई जीभ जैसे
किसी लड़की को देखती उसकी आबरू को लूटने की ताक में लग जाती । बंगाल के नवाब को खुश करने के ख्याल से पकड़ी गई रूपमति
टुसुमनि जब सिराज के सामने पेश की गई थी तो उसके दीपदीपाते चेहरे को देखकर नवाब
कहाँ टिक पाया था ? अपने सैनिकों से नाराज़
नवाब ने टुसुमनि को बाइज्ज़त उनके गाँव पहुंचाने का हुक्म दिया था । टुसुमनी को यह
बात मालूम थी सिराज को भी
मालूम था लेकिन लोगों के लिए वो
पवित्रता की परिभाषा के दायरे से बाहर थी । समय के साथ आग ने भी अपनी सत्ता
खो दी थी जहाँ कूद कर अपनी अस्मिता और पवित्रता को सिद्ध कर पाती । एक कैद से
बाइज्ज्त आज़ाद टुसुमनी को पानी का सहारा लेना पड़ा कूद गई थी दामोदर के धवल धार में
। पूस पूर्णिमा को चाँदनी की शीतलता में अपने को समर्पित टुसुमनी की यादों को
संजोगते सारी कुँवारी कन्याओं की जाने – अनजाने
में बनी देवी टुसुपरब की उम्मीद “टुसुमनी”
अब
घर – घर की देवी हैं ।
इधर
माई की बात दूसरी तरफ पवित्रता की परिभाषा और पिछले छ : सात दिन से चौड़ल की झाँकी
के दौरान सुख़न की नज़रों को परख रही थी । बाबू आज
मुखिया के दरवाजे जायेंगे फिर गिरगिरायेंगे दुगुने –
चौगुने
ब्याज की दर पर धान की रकम उठायेंगे ।
उधारी की रकम से परब होगा । बस अब तो तीन दिन ही बचा है मेले की तैयारी
जोरों पर है ।
गाँव
का “लखन” अपने
लाल मुर्गे पर दाँव लगा रहा है तो “घोटुल”
का
काला मुर्गा दाँव पर है । दोनों मुर्गों
के पैरों में बंधे छोटे- छोटे चाकू । एक – दूसरे
के खून के प्यासे बने मुर्गे क्या जाने थोड़ी देर में कोई भी मुर्गा जीत जाये कटना
तो दोनों को ही है । इंसानों ने अपने अंदर भरे
वैमनस्य और ज़हर को निकालने के लिये मनोरंजन को भी हिंसा के एक रूप में चुना
था । प्रशिक्षित ये मुर्गे एक – दूसरे
को मरने और मारने को तैयार थे । पिछले साल सुगनी के बाबू ने मुर्गा दाँव पर लगाया
था उसके काले मुर्गे की चाकू ने घोटुल के लाल मुर्गे को लहुलुहान कर दिया था । डेढ़
सौ रूपये की कमाई और दोनों मुर्गों के मांस का लुत्फ़ सबने उठाया था । इस साल
मुर्गा खरीदने का पैसा ही नहीं था ।
एक – दो
जगह हब्बा - डब्बा (एक प्रकार की पारंपरिक
जुआ) खेला जा रहा था । शाम होने को है । मांदर की थाप ज़ोर होती जा रही है लोगों के
थिरकन में टुसु का उल्लास दिख रहा है । ढिंग टिंग , ढिंग
तरंग , ढिंग ....ढिंग के चढ़ान उतरान
में सब मस्त घूम रहे हैं । हड़िया और महुआ के नशे में मदहोश सारा गाँव आज छब्बीस –
सताईस
दिन से घूम रहा है । पुरुष धरती की थिरकनों के साथ गोल – गोल
घुम अपनी तरंगों को धरती के साथ मिलाने की कोशिश कर रहे हैं । एक गुट घड़ी की दिशा
में तो दूसरा गुट घड़ी की विपरीत दिशा में आगे – पीछे
जाकर मांदर के आरोह – अवरोह के साथ आगे बढ़
रहे हैं ।
आज
सुगनी का बाबू भी महुआ पीकर मुखिया के दरवाजे पर मुर्गे की लड़ाई देखने गया था ।
आधी
रात होने को है अब जुलूस खत्म हो चुका है । उल्लास की भी एक सीमा होती है जो
लगातार नहीं हो सकती । सारे लोग रात्रि के सन्नाटे में अपनी ऊर्जा को कल फिर खर्च
करने के लिये अपने – अपने घरों में जा चुके हैं । सुगनी बाबू का इंतज़ार कर रही थी
। उसे अपने बाबू की चिंता थी । परब तो सिर्फ़ इस बात का संतोष दे रहा था कि - सब
कहते थे टुसुमनि की पवित्रता से पूजन के बाद घर के हालात ठीक हो जायेंगे । माई की बात उसने
दिल में मूर्ति की तरह स्थापित कर लिया था । थोड़ी बेचैनी और आने वाले परब की
अधीरता में चारों ओर के सन्नाटे के बीच
बाबू के हाथ में कुछ दिखाई दिया । बाबू के हाथ के पैकेट को हुलसकर सुगनी ने छीन
लिया । लाल पड़िया तीन साड़ियाँ .... ।
“माई
के दे” !
“लो आज
जुए की कमाई और सुन , सुगनी को कल मुखिया के
दरवाजे भेज देना । उसे वहाँ लाल पाड़ की पीली साड़ी मिलेगी” ।
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चित्र इंटरनेट से साभार |
लाल पड़िया साड़ी मोटे सूत की साड़ी से थोड़ी
अलग लाल पाड़ की पीली साड़ी । महँगी साड़ी
मतलब रिश्ते की बात । दोनों माँ – बेटी एक – दूसरे का मुँह देख रही थी । माँ की
आँखों में थोड़ी खुशी की चमक तो सुगनी को धन का वारिस सुख़न दिखाई दे रहा था । घर का
माहौल थोड़ा हल्का लगने लगा ।
ननकू हुलस कर बताने लगा - “जुआ खेलने में आज मुखिया को तीन बार हराये ।
फिर सुख़न को एक बार हरा दिये थे दूसरी बार हम हार गये और बात बराबर” । जुआ में
जीते हुए बाबू का भी मुँह हड़िया पीने से महक रहा था ।
सुबह से चहल – पहल
शुरू हो चुकी थी । सूर्य की धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश हो चुका है । वनकन्याओं
की तपस्या का पूर्ण होने का दिन । हर घर में गुड़ के पिट्ठे और नारियल मिठाई की
खुशबू से कम चावल उत्पादन की बात कहीं दब चुकी है । अब तो सिर्फ़ उल्लास है । एक
महीने का यह नशा साल भर के दु:खों का मरहम
है ।
कन्याओं के हाथ में सजाये हुए चौड़ल सजाई गई
टुसुमनि, मेले की धूम । इन सबसे अपने को
दूर करती सुगनी अपने लाल पाड़ की पीली साड़ी की खातिर बाबू के कहने पर गाँव के
मुखिया के आँगन में पहुँचने वाली थी ।
वहाँ भी टुसु की तैयारी चल रही है । गुड़ के
पिट्ठे और नारियल मिठाई की खुशबू में खोई सुगनी को अचानक लगा सुख़न ने उसका हाथ जोड़
से पकड़ा । अभी वो कुछ समझती तब तक सुख़न उसे एक झटके दुआर वाले कमरे में घुस गया । दरवाजे की
कुंडी चढ़ा चुका था । हाथ छुड़ाकर कुनमुनाती सुगनी चिल्लाना चाह रही आवाज़ नहीं निकल
पा रहा । डर से तेज हुई धड़कने भी तुरंत शांत होने की कवायद करने लगीं ।
बाबू
ने ही तो भेजा था । सुखना की आँखें उस लाल साड़ी के बदले में बिना उसकी मर्जी समझे यही चाहती थी । शगुन की साड़ी ऐसे दी जाती है । उसे
कुछ समझ नहीं आ रहा था । लाल पाड़ की पीली
साड़ी के एवज में लसलस शरीर पर ख़ुद ही उबकाई आने लगी । अपने को संभालना मुश्किल था
। सुरमनि की बातें याद आने लगी । जैसे तैसे ख़ुद को संभाल उसने मन ही मन फैसला ले लिया था ।
“बाबू ने झूठ बोला या सुख़न ने कि जुए में वो जीत गया है । बाबू ने हब्बा – डब्बा घूमते हुए सही नंबर पर पासा डाला था या सुख़न ने । जीत सुख़न की हो या बाबू की हर हाल में सुगनी ही मजबूर थी । हारी हुई सुगनी पीली साड़ी पहन जाने किसकी ख़ातिर बाबू , सुख़न या बचपन से विरासत में पाये गये आत्मसम्मान के लिए मुखिया के घर से निकल चौड़ल विसर्जन के एक जुलूस में शामिल हो गई ” ।
स्त्री – पुरुष
नाच रहे हैं फिर थोड़ी दूर डेग रहे हैं । ढोल,नगाड़ा,शहनाई,
बांसुरी,मांदर
के साथ टूसू कन्या का विसर्जन । सुगनी के
डेग छोटे होते जा रहे हैं । जुआ की जीत – हार
... द्रोपदी......धर्मराज युधिष्ठिर....... साड़ी खींचता दु:शासन । भरी सभा में
चीखती द्रोपदी वो तो चीख भी ना सकी । जमीन की ख़ातिर पांडवों ने द्रोपदी के खुले
केश बांधने के लिए महाभारत तो किया । कितनी आसानी से कर्जे में डूबा बाबू पहले
जमीन फिर जुए के बहाने ........... । सोचते – सोचते
! सुगनी के पैर लग रहे थे कि जम जायेंगे । उसकी कानों में पिघले शीशे की तरह सुख़न
की बातें गूंज चोट कर रही हैं अबकी फागुन में सुख़न के पास ही रहेगी सुगनी । उसने
कहाँ पूछा उसकी “हाँ” या “ना” । बाबू तो धान समझ लिया धान जब मन करे कर्जा ले लो
और कर्जा उतारने में ज़िंदगी बिता दे।
अपने
में खोई सुगनी अब पैर रोक कर खड़ी हो गई ।
“बाँया
पैर उठाओ , बाँया ऐसे खड़ी होते रहोगी तो
चौड़ल आज नहीं पहुँच सकेगा”
“दामोदर
किनारे पहुँच कर मेला देखेंगे मेला । अबकी भारी मेला लगा है”
।
सुरमनि
की बातों को सुन सुगनी को करेंट जैसा लगा वो चौड़ल छोड़ दूर खड़ी हो गई । टुसुमनि का
चौड़ल बिल्कुल कुँवारी छूती है यही तो उस दिन माँ ने समझाया था । उसका अब अधिकार
नहीं रहा ।
दूर खड़ी सुगनी मांदर के थाप पर पैर आगे –
पीछे
फेंकते बेमन बढ़े जा रही है ।
क्या
हुआ – “ सुगनी तुम्हारी साड़ी तो सबसे चटक और अलग है । सुंदर चौडल के साथ तुम भी
कितनी अच्छी लग रही हो”।
सुरमनि
ने सुगनी का हाथ खींचा और जुलूस से अलग हटकर सुगनी से कुछ पूछने लगी । जुलूस के
शोर में सुगनी की आँखों और रोकती रुलाई ने सब कुछ बता दिया ।
फिर
भी मन के उथल पुथल में – “एक मन सोच रहा है टुसुमनि कैसे बच कर आ गई थी ?
कितने भी हैवान जागे अगर किसी एक का इंसान जागे रहे
तो खुद्दारी पर कोई बट्टा नहीं लगा सकता है । पंछी हो चाहे जानवर हो मानुष गंध पाते ही कबीले से बेदखल कर
देते हैं । लड़कियों और स्त्रियों के लिए युगों से रेखाएँ खींची गईं सीता को अग्नि
परीक्षा तो टुसुमनि को दामोदर की धार को सौंप कर अपने को सिद्ध करना पड़ा । फिर मैं
तो ना सीता , ना सावित्री ,
ना
अहल्या , ना टुसुमनि मेरा देह तो दूसरे
के देह गंध से भर चुका है”।
ढ़ोल
, शहनाई , बांसुरी
के समवेत स्वर में उसे सिर्फ़ सुनाई दे रहा कर्जा , जुआ
...,देह ....... लाल पाड़ की पीली साड़ी
पिछले
अठाइस दिन की तपस्या एक झटके में भंग हो चुकी है।
अब हहराते दामोदर के स्वर के सामने मांदर के
थाप की आवाज़ कम पड़ चुकी है । कूदती – फाँदती
लड़कियाँ नदी में उतर चुकी हैं । सुगनी को पकड़ सुरमनि नीचे उतरने लगी । अचानक से
हाथ छुड़ा कर सुगनी कूद गई नदी की धार में ।
सुरमनि के साथ लोगों की चीखें सुनाई देने लगी
। अरे ! कोई बचाओ , बचाओ ..... कोई देखो
वहाँ नदी में कोई कूद गया है । दौड़ो , दौड़ो
की आवाज़ तेज होने लगी है । दामोदर की पत्थरों पर पड़ती धार यूं लग रहा है जैसे
पत्थरों को चीर डालेगा । शक्तिशाली पुरुष नामवाले इस नदी को ऐसे ही बंगाल का शोक नहीं
कहते होंगे इस नदी ने जाने कितनों को अपनी गोद में सुला लिया होगा । चिल्लाते
लोगों में दो – तीन लोग नदी में कूद गये
।
सुख़न
एक कुशल तैराक था । लोगों ने चिल्लाना शुरू किया सुरमनि ने लगभग उसे धक्का दे दिया
– “जाओ सुख़न तुम बचा लो डूब जायेगी” । थोड़ी हिचकिचाहट के बाद सुखन ने भी नदी में
छ्लांग लगा दी ।
डूबने वाली लाल पाड़ की पीली साड़ी पहनी सुगनी को सुख़न बीच
नदी में जाकर पकड़ना चाह रहा है । तेज धार में कभी अपने को संभालता तो कभी सुगनी के
बालों को अपनी ओर खींचने की कोशिश करने लगा ।
सुख़न को सहसा सुगनी ने अपनी ओर खींचा अब एक नहीं दो लोग डूब रहे थे । अब तो
किसी ने बचाने की हिम्मत नहीं की । सुरमनि
अवाक खड़ी थी । सुगनी की आँखों को याद कर उसके इस अनूठे बलिदान के साथ लिये गये
बदले को आँखों में दबा ,
आँखों में आँसू और होठों पर एक हल्की मुस्कान के साथ दामोदर की शिथिल धार को कुछ
कह गई ।
*******
पीएचडी (पर्यावरण विज्ञान)
केन्द्रीय विद्यालय पतरातू (झारखंड)
में शिक्षिका के पद पर कार्यरत
"दूब से मरहम" काव्य संग्रह
और एक संयुक्त काव्य संग्रह,“धप्पा”(संस्मरण संग्रह) का संपादन,विभिन्न पत्र
–पत्रिकाओं ,समाचार पत्रों
में कवितायें, आलेख एवं
कहानियाँ, शोध पत्र एवं
पर्यावरण विज्ञान की किताबे प्रकाशित
।
vineetaprmr@gmail.com
26 comments:
बहुत ही सुंदर तरीके से आदिवासी समाज की परंपरा को जीवंत रूप दिया गया है देशज शब्दों को बहुत अच्छे से पिरोया गया है गीतों के माध्यम से पूरे पर्यावरण और उनकी परंपरा को जीवंत रूप दिया है लेखिका अति कुशल हैं और अपने अपने भाव के उद्गार को संप्रेषित करने में सक्षम है. लाल पlड़ की पीली साड़ी पाठक को अंत तक बांध के रखने में सक्षम है.
बहुत ही बढ़िया ढंग से आपने कहानी को बुना है। कहानी में जिस तरह से पात्रों के माध्यम से जीवन यापन को दिखाया है आपने वो काबिलेतारीफ है। भाषा और कहावतों का प्रयोग इसे और भी बेहतरीन बना देती है।
शुक्रिया आपका हौसला बढ़ाने के लिए ।
शुक्रिया आपका। हौसला बढ़ाने के लिए
बहुत सुंदर कहानी!!
दिल को छू गई ❤️
शुक्रिया आपका
Prabhavotpadak aur atyant marmik kriti.Desaj shabdon ka atyant kushalta se prayog kiya hai.
Prabhavotpadak aur atyant marmik kriti.Desaj shabdon ka atyant kushalta se prayog kiya hai.
Thank you
One of it's kind :) read a Hindi story after such a long time(16yrs+)
Thank you so much
Bahut acha laga padh ke. aap kahaniya or kavitae likhte rahiye aur dalte rahiye. Aur yeh likhna kabhi bannd mt kriye........😍😍😍
शुक्रिया आपका
Wow mam,
I couldn't stop reading once started. You have keenly observed Tusu feast. The story is heart rending.you have meticulously depicted the feast in deprivity. It is indeed painful to experience the exploitation of the tribe. The narrative of poverty is too hair rising. Thanks again to bring forth the reality of the society. In next I would expect poetic Justice.
Congrats ma'am. Keep writing and inspiring.
Thanks for this comment it's inspiring me
शीर्षक जितना आकर्षक है , कहानी उससे भी सुंदर । शुरू से अंत तक बांधे रखा।
बहुत सुंदर कहानी। देसी भाषा और पर्व के इर्द-गिर्द बुनी कहानी में सुगनी की पीड़ा पाठक बहुत तीव्रता से महसूस करता है। बहुत बधाई विनीता, इतनी खूबसूरत कहानी के लिए। शुभकामनाएं
शुक्रिया और धन्यवाद
शुक्रिया और धन्यवाद
छु गई .
vineeta parmar
बहुत सुंदर ढ़ंग से परम्परा को नए कलेवर, नए तेवर के साथ प्रस्तुत करती कहानी। बधाई Vineeta parmar and the blog.
Thank you Mam
इन प्रतिक्रियाओं के लिए बहुत आभार सभी पाठकों का।
बहुत बहुत शुक्रिया चोखेरबाली पर इस कहानी को जगह देने के लिये
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