Monday, July 27, 2020

क्यों पुरुष नामों से लिखती थी लेखिकाएँ ?


 - सुजाता


एक वक़्त था उन्नीसवीं सदी में जब ब्रिटिश लेखिकाएँ छ्द्मपुरुष नामों से उपन्यास लिख रही थीं ताकि उन्हें गम्भीरता से लिया जाए। वे चाहती थीं कि उन्हें गम्भीरता से लिया जाए। चेर्लेट , एन्न और एमिली - तीनों ब्रॉण्टे बहनों ने ऐसे नामों से लिखा जिससे लेखक का जेण्डर स्पष्ट न हो या पुरुष लगे। एमिली ऑर्बेक ने खुद को जेन ऑस्टेन किया।
यह उन्नीसवी सदी की बात थी। लेकिन इसी सदी की शुरुआत में हैरी पॉटर उपन्यास-शृंखला की लेखिका जोन ने पहला उपन्यास लाते हुए अपना नाम जे.के.राउलिंग किया जिससे पता ही न चले कि लिखने वाली कोई स्त्री है। इससे वे लड़कों को भी अपने पाठक के तौर पर आकर्षित कर सकती थीं। द गार्जियन ने 31 जुलाई, 2015 के एक लेख में एक अध्ययन का उल्लेख किया है जिसके अनुसार स्त्री-लेखकों के लगभग अस्सी प्रतिशत पाठक स्त्रियाँ ही होती हैं।( पुरुष उसे अपने पढने लायक नहीं समझते या स्त्री को लेखक ही नहीं समझते ! ) जबकि पुरुष-लेखकों को सालों से स्त्रियाँ पढती-गुनती आ रही हैं।  

आलोचना स्त्री-लेखन को ख़ारिज करने की जल्दी में रहती है

स्त्री-लेखन को अगम्भीरमानने की एक प्रबल धारणा रही है जो हर नई लेखिका को प्रतिकूल ढंग से प्रभावित करती है। दूसरी यह कि स्त्री-लेखन के महज़ बीस प्रतिशत ही पुरुष-पाठक हैं। तीसरी भी बात है एक। स्त्री-लेखन को ही अगम्भीर माना जाता है तब उसपर टिप्पणी/ आलोचना/ समीक्षा लिखने वाली स्त्री को भी उतना ही अगम्भीर माना जाता होगा। पुरुष-आलोचकों में स्त्री-लेखन को ख़ारिज करने का दम्भ यूँ ही नहीं आया। उनकी बात सुनी जाती है। भले ही कितनी भी अगम्भीर हो। यह साहित्य की दुनिया में लेखिकाओं की जमात के ऊपर पुरुषों को एक सत्ता के रूप में ही स्थापित करता है।



आलोचकों का यह रवैया नया नहीं है

अपने प्रसिद्ध उपन्यास जेन आयर के लिए जानी जाने वाली चेर्लेट लिखती हैं- “हमने शुरु से लेखक बनने का सपना संजोया था। यह सपना, जिसे हमने तब भी नहीं छोड़ा जब दूरियों ने हमें अलग किया और खपाऊ कामों ने उलझा लिया, उसे अचानक एक ताकत और रवानगी मिल गई: उसने एक संकल्प का रूप ले लिया। हम अपनी कविताओं का एक छोटा सा संकलन तैयार करने पर सहमत हुए और सम्भव हुआ तो उसके प्रकाशित कराने के लिए।। नज़रों में आने से बचने के लिए हमने करर, एक्तन और एलिस बेल के नाम से अपनी पहचान ढंक ली; एक ऐसा अपष्ट सा चयन जिसके पीछे एक ईमानदार सी झिझक थी और यह धारणा कि ईसाई नाम अवश्य ही मर्दाना होंगे, हम भी यह घोषणा नहीं करना चाह्ते थे कि हम स्त्री हैं, क्योंकि हमें संदेह था कि हमारा लिखने और सोचने का तरीक़ा वह नहीं है जिसे स्त्रियोचितकहा जाए- हमें यह लगता था कि लेखिकाओं को पूर्वग्रहों से देखा जाता है; हमने देखा था कि कैसे आलोचक उन्हें दण्डित करने के लिए चरित्र को हथियार बनाते थे और पुरस्कृत करने के लिए चापलूसी, जोकि सच्ची प्रशंसा नहीं होती थी ”- चेर्लेट ब्रोंटे, 19 सितम्बर 1850 (उपन्यास वदरिंग हाइट्सके1910 जॉन मर्रे एडीशन से) 

ब्रोंन्टे बहनें , चित्र इंटरनेट से साभार


 स्त्री के लेखकत्व/ ऑथरशिप का संकट

 मन्नू भण्डारी अपनी आत्मकथा में स्त्री के लेखकत्व से जुड़ी तमाम परेशानियों पर बात करती हैं। राजेंद्र यादव का लेखक होना हम जानते हैं लेकिन लेखक-पति होना मन्नू भण्डारी की आत्मकथा एक कहानी यह भी से सामने आता है। ख़ैर, यहाँ लेख से जुड़ी बात। मन्नू भण्डारी की जो शुरुआती दो कहानियाँ जो कहानी नामक पत्रिका में छपी उन्हें खूब प्रशंसा मिली। मन्नू लिखती हैं- “यहाँ एक बात ज़रूर कहना चाहूंगी कि कहानी पत्रिका में छपी शुरु की दो कहानियों के साथ मेरा चित्र नहीं छपा था और नाम स्पष्ट रूप से लिंग-बोधक नहीं था सो अधिकतर पत्र तो प्रिय भाईसम्बोधन से आए...ख़ूब हँसी आई, पर एक संतोष भी हुआ कि यह प्रशंसा लड़की होने के नाते रियायती बिलकुल नहीं है...(उस समय इसका भी बड़ा चलन था) विशुद्ध कहानी की है”


सिमोन द बोवा की किताब द सेकेण्ड सेक्स के हिंदी अनुवाद का एक अजब किस्सा  

प्रभा खेतान ने जब स्त्रीवादी क्लासिक द सेकेण्ड सेक्सका अनुवाद किया तब वे ऐसे ही संशय में थी कि जाने एक स्त्रीवादी किताब के एक स्त्री द्वारा किए गए अनुवाद को कैसे लिया जाएगा पाठकों के बीच। वे एक मज़ेदार घटना बताती हैं। जब किताब के लोकार्पण के लिए अखबार में विज्ञापन दिया गया तो यह देखकर प्रभा खेतान की हालत ख़राब हो गई कि अखबार ने सेक्स शब्द देखकर ही किताब के विज्ञापन को सेक्स-विज्ञापनों वाले कॉलम में डाल दिया है।  


यह जंग सिर्फ साहित्य की दुनिया में ही नहीं पत्रकारिता में भी थी

एलेन शोवाल्टर बताती हैं कि घर-परिवार के भीतर भी स्त्रियाँ जूझ रही थी। यह सिर्फ लेखिकाओं की ही समस्या नहीं है। स्त्री-पत्रकारों की भी है। उन्होने क्वार्टरली रिव्यू से एलिज़ाबेथ रिग्बी को उद्धृत किया है जो कहती हैं कि स्त्री-पत्रकारों को आरम्भ में बहुत अच्छा बर्ताव मिलता है जनता से जब वे अनाम लिखती हैं जिससे लगे कि किसी पुरुष का लिखा हुआ है।(लिट्रेचर ऑफ देयर ओन, पेज -49 ) एलिज़ाबेथ क्वार्टरली रिव्यू में नियमित रूप से लिखने वाली पहली स्त्री आलोचक और साहित्यकार थीं।
“द गार्जियन” के उस लेख में यह भी कहा गया है कि आज जब पुरुष उपन्यास पढना छोड़ डिस्कवरी और एच.बी.ओ को अधिक समय दे रहे हैं तब उपन्यास-कहानियों के पुरुष-लेखकों के लिए एक नया संकट उभरा कि वे अपनी कहानियाँ स्त्री-छ्द्म नामों से लिखें ताकि कम से कम स्त्री-पाठकों को वे विश्वसनीय लगें और उन्हें पढा जाए । छ्द्म स्त्री-मान से लिखने वाले तीन लेखकों का ज़िक्र लेख में है और वे तीनो अपनी स्थिति से संतुष्ट हैं।   तीन में से एक  शॉन थॉमस कहते हैं – “it arguably helps, these days, for fiction writers to be female, or at least not male.”


हिंदी की दुनिया में अभी ये प्रश्न प्रश्न ही नहीं हैं। अगर कुछ है तो कुछ और ही खेल हैं। 

हमारे यहाँ, कम से कम हिंदी में ऐसे आँकड़े निकालने और उनका अध्ययन करने की कोई ज़रूरत नहीं समझी जाती। छद्म-स्त्री-नाम से फेसबुक पर की जाने वाली कारस्तानियों को छोड़ दें तो असल में छद्म-स्त्री नाम से लिखने वाले कवियों का कोई कविता-संग्रह या उपन्यास हिंदी में अब तक नहीं आया है। स्नोवा बार्नो हंसमें छपी अपनी एक कहानी से एकदम चर्चा में आई लेकिन उनके स्त्री या पुरुष होने के बारे में अब तक कोई ठोस बात पता नहीं चली है। ऐसा संदेह लगातार जताया जाता रहा है कि वह कोई पुरुष है जो स्त्री-नाम से लिख रहा है।  न ही हिंदी लेखिकाओं-कवयित्रियों को स्वीकृति पाने और जगह बनाने के लिए पुरुष-नाम का सहारा लेकर लिखने की ज़रूरत पड़ी है। शायद हमारे यहाँ कवि/ लेखक की जगह बनाने में अभी पाठकों को इतनी बड़ी भूमिका नहीं मिली है। हमारे यहाँ अभी आलोचक, टिप्प्णीकार, साहित्यिक पत्रकारिता करनेवाले, बाज़ार और प्रकाशक ही यह काम कर रहे हैं।


(आने वाली किताब स्त्रीवादी आलोचना दृष्टि से एक अंश)

Tuesday, July 7, 2020

यह सुर्ख़ चांदऔरत के सपनों में उगा विद्रोही चांद है

‘एक औरत के लिए अपने पति से ज्यादा निज़ी क्या हो सकता है’ यह वाक्य धक से जाकर स्त्री के हृदय में लगता है। उसी हृदय में जहाँ पलते सपने, दुख, अपमान, अतीत, अवांछित सेक्शुअल कोशिशों के दंश और कामनाओं की जलती चिता रहती है। एकदम निजी। बगल में सोता पति उन्हें जीवन भर न जान पाता है, न जानना चाहता है। यह फिल्म का एक बेह्द सम्वेदनशील सीन है जब सर्वस्व अर्पित कर देने वाली पत्नी चौंक कर पलटती है। ऐसे ही पलटना है स्त्री को इतिहास के हर उस बयान पर जब उसके वजूद को नगण्य मान लिया गया।  रिएक्ट करना है। फ़िल्म को सब अपनी तरह से देखेंगे लेकिन जानना ज़रूरी है कि एक युवा छात्रा इसे किस तरह देख रही है।  चित्रा राज बुलबुल फिल्म के बारे में जो कहना चाहती हैं आइए पढें।

- सम्पादक




      हाल ही में नेटफ्ल‍िक्स पर रिलीज़ हुई फ़िल्म 'बुलबुल' बर्दाश्त न करने की कहानी है। मैं उसी के बारे में लिख रही हूँ। लिख रही हूँ क्योंकि जो महसूस किया है वह बताना चाहती हूं। बताना इसलिए नहीं है कि मन का कोई 'बोझ' उतर जाए, दरअसल 'बोझ' है ही नहीं। बताना इसलिए है ताकि और लोग भी बताएं। फिर बूंद-बूंद इकट्ठा होकर समुद्र बन जाए। 








स्त्रियों का अपनी बात ख़ुद ही कहना ज़रूरी है। इसलिए पहले तो बधाई क्योंकि 'Women telling women stories' अनविता दत्त ने फिल्म का निर्देशन किया है और स्क्रीनप्ले भी लिखा है। अनुष्का शर्मा फिल्म की निर्माता हैं। हम अपनी कहानी खुद बयां करें, किसी दूसरे की मौत ना मरे इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता। ऐसे प्रयास मर्दों के फैलाए उस झूठ कि 'औरत ही औरत की दुशमन होती है' को नाश करने की तरफ बढ़ता कदम है।

कहानी का सेटअप है 1881 का बंगाल। अब कहानी भले ही पुराने वक्त के सहारे बुनी गई हो लेकिन जो सामाजिक त्रासदी है वह ज्यों का त्यों प्रासंगिक है।

कहानी शुरू होती है। एक छोटी बंगाली बच्ची बुलबुल की शादी हो रही है यानी बालविवाह हो रहा है। उसकी मां उसके पैर में बिछुए पहना रही है। बुलबुल अपनी मां से बिछुए पहनाने की वजह पूछती है। मां बताती है कि बिछुए लड़कियों को वश में करने के लिए पहनाया जाता है। बुलबुल फिर पूछती है 'मां ये वश में करना क्या होता है?'

ये दृश्य और फिल्म के दूसरे कई अन्य दृश्यों को देखते हुए आपको ईश्वर चंद्र विद्या सागर की याद आ सकती है जिन्होंने बंगाल में लंबे वक्त तक बाल विवाह, बेमेल विवाह, विधवा महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचारों के खिलाफ आंदोलन चलाया।

कहानी पर लौटते हैं। बुलबुल की विदाई होती है और डोली में लगभग उसी के उम्र का एक लड़का होता है सत्या। सत्या उसे कहानी सुनाता है। बुलबुल को लगता है सत्या से ही उसकी शादी हुई है लेकिन पहली रात को ही ये भ्रम टूट जाता है। बुलबुल को बताया जाता है कि उसकी शादी सत्या से नहीं बल्कि उसके बड़े भाई इन्द्रनील ठाकुर से हुई है...

समय बीतता है। बुलबुल बड़ी होती है। सत्या के साथ बुलबुल का लगाव जवानी में भी कायम रहता है। लेकिन ये लगाव बुलबुल के पति यानि सत्या के बड़े भाई इन्द्रनील ठाकुर को बर्दाश्त नहीं होता। लेकिन इस बर्दाश्त ना करने का परिणाम सत्या और बुलबुल दोनों के लिए अलग-अलग होता है।

परिणाम का यही अंतर पितृसत्तात्मकता समाज के एक बेहद ही घृणित पहलू को हमारे आंखों में बो देता है। शक से पैदा हुआ इन्द्रनील ठाकुर का मर्दवादी गुस्सा जहां सत्या को पढ़ने के लिए देश से बाहर भेज देता है, वहीं बुलबुल को इसकी अति पीड़ादायक कीमत चुकानी पड़ती है।

हम अपने घर-समाज में ऐसा हर रोज होता देखते हैं। हमारा समाज एक ही तरह की कथित गलती के लिए महिलाओं और पुरुषों को अलग-अलग सजा देता है और ये फैक्ट बहुत ही सहज रूप से स्वीकार्य भी है।उदाहरण से समझिए...

1. अगर किसी पिता को अपने बेटे के प्रेम संबंध के बारे में पता चलता है तो उसे 'इन सब' से बचाने के लिए शहर पढ़ने भेज दिया जाता है। लेकिन अगर बेटी के प्रेम संबंध के बारे में पता चलता है तो ऑनर किलिंग हो जाता है, अगर पिता दयालु हुए तो बिना मर्जी कहीं ब्याह कर दिया जाता है।

2. अगर किसी लड़के का संबंध एक से अधिक लड़कियों के साथ होता है तो हमारा समाज उसे 'स्टड बॉय' कहता है। लेकिन अगर किसी लड़की का संबंध एक से अधिक पुरुषों से होता है तो वही समाज उसे 'रंडी' कहता है।

3. हमारे समाज में लड़कों के सिगरेट-शराब पीने से उनका स्वास्थ्य खराब होता है लेकिन लड़कियों के सिगरेट-शराब पीने से उनका कैरेक्टर खराब हो जाता है।

फिल्म में कई ऐसे सम्वाद भी हैं जो आज भी समाज में मौजूद रहकर पितृसत्ता की जड़ों को पुष्ट कर रहे हैं। जैसे बुलबुल अपने पति के किसी सवाल के जवाब में कहती है ‘वो तो मेरा कुछ निजी काम था’ इस जवाब से हैरान पति कहता है ‘एक औरत के लिए अपने पति से ज्यादा निज़ी क्या हो सकता है’

जाहिर है जिस समाज में 'जोरू (स्त्री)' की गिनती 'जड़ (धन)' और 'जमीन' के साथ होती है वो समाज बुलबुल के सवाल से हैरान होगा ही। जिस समाज में स्त्रियों को पुरूष अपनी संपत्ति समझते हैं और देश का सर्वोच्च न्यायालय मैरिटल रेप के खिलाफ दायर की गई जनहित याचिका पर सुनवाई करने से इंकार कर देता है वहां के मर्दों का बुलबुल के जवाब पर हैरान होना तो बनाता है।

स्त्री को संपत्ति समझने की समझ पुरुषों में बचपन से पैदा की जाती है। बहन जब घर से दुकान भी जाती है तो छोटे भाई को साथ भेजा जाता है... संपत्ति की रक्षा के लिए। फिर वही बच्चा बड़े होकर किसी बुलबुल के जवाब पर इन्द्रनील ठाकुर की तरह हैरान होता है।

कुल मिलाकर फिल्म को तीन भागों में बांटा जा सकता है- पहला भाग बुलबुल का बचपन है। बीच में जवानी, आकर्षण, ख्वाहिश और विरह। अंत में है विरह से उत्पन्न हुई तड़प और यातना से उपजी न्याय की भावना। इस न्याय को कुछ लोग बदला भी समझ सकते हैं। समझने दीजिए।



फिल्म में एक बहुत ही हृदय विदारक घटना के बाद बुलबुल की देवरानी उससे कहती है 'बड़े महलों के बड़े राज होते हैचुप रहना कुछ मत कहनाथोड़ा पागल है लेकिन शादी के बाद ठीक हो जाएगासब मिलेगापति से ना सही उसके भाई से... सब मिल मिलेगागहने मिलेंगेरेशम मिलेगा। चुप रहना।


फिर बुलबुल चुपचाप सबको चुप करा देती है। सिस्टरहुड का असली नजारा तब मिलता है जब बुलबुल अपने जैसी और भी महिलाओं को अपने तरीक़े से इंसाफ दिलाती है।

'आधी आबादी' के खिलाफ जिन पितृसत्तात्मक मानसिकता वाले पुरुषों ने पूरी जंग छेड़ रखी है उन्हें डर लगना चाहिए। शायद इन्हें भविष्य के भूचाल की आहट सुनाई नहीं दे रही? या शायद सुनकर भी अनसुना कर रहे हैं। जो भी हो मेरा तो यही सुझाव है कि डरना शुरू कर दो, क्योंकि बराबरी तो आप कभी ला नहीं सकते। पितृसत्ता की कब्र खुद रही है। अब 'आधी आबादी' अपना हक मांगेंगी नहीं छीन लेंगी।

फिर आप में से कुछ लोग हमें डायन और चुड़ैल कहेंगे... बचे खुचे कथित समझदार लोग हमारी 'न्यायिक प्रक्रिया' को क्रूर और बदला लेने वाला बताएंगे। हालांकि अब आपके कहने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।

पितृसत्ता के नशे में चूर आप मर्दों को शायद कोई खतरा नहीं दिख रहा होगा। नक्सलबाड़ी में उस सामंती को भी नहीं दिखा था, जब उसने एक भूखे बच्चे की मां के स्तन का दूध खेत में छिड़क दिया था। फिर जो हुआ उसे आज तक देश की आंतरिक सुरक्षा की सबसे बड़ी चुनौती के रूप में जाना जाता है।

 सिनेमा के जानकार लोग इसे हॉरर ड्रामा कैटेगरी की फिल्म है। यह बात सही है कि फिल्म डरावनी लगती है। लेकिन  शुतुरमुर्ग बने समाज के लिए उसकी सच्चाई तो डरावनी होगी हीखैर! फिल्म समीक्षक भी इस फिल्म में कई तरह की खामियां गिनवा सकते हैं (जिसमें से कई दुरुस्त भी हैं) लेकिन मैं समीक्षक नहीं हूं। मैं इस फिल्म को देखते हुए सिर्फ 'दर्शक' भी नहीं थी। मैं इस फिल्म को देखते हुए एक 'लड़की' 'भी' थी। जो कही गई वो मेरी कहानी थी। हमारी कहानी थी। 'हम' जिन्हें 'वे' हमेशा कम समझते हैं।

अंत में
फिल्म में एक चांद दिखाया गया है। वह चांद श्वेत या स्याह नहीं है बल्कि सुर्ख लाल है। वह लाल विद्रोही चांद सिर्फ बुलबुल का चांद नहीं है। वो चांद इस दुनिया की उन तमाम महिलाओं के सपनों में हर रात उगता है जो पितृसत्ता की शिकार हैं।






चित्रा राज दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा हैं। फिलहाल एसओएल से बीए प्रोग्राम की पढ़ाई कर रही हैं लेकिन मन हिंदी साहित्य में रमता है। 

अनुप्रिया के रेखांकन

स्त्री को सिर्फ बाहर ही नहीं अपने भीतर भी लड़ना पड़ता है- अनुप्रिया के रेखांकन

स्त्री-विमर्श के तमाम सवालों को समेटने की कोशिश में लगे अनुप्रिया के रेखांकन इन दिनों सबसे विशिष्ट हैं। अपने कहन और असर में वे कई तरह से ...