एक वक़्त था उन्नीसवीं सदी में जब ब्रिटिश
लेखिकाएँ छ्द्मपुरुष नामों से उपन्यास लिख रही थीं ताकि उन्हें गम्भीरता से लिया
जाए। वे चाहती थीं कि उन्हें गम्भीरता से लिया जाए। चेर्लेट , एन्न और एमिली - तीनों ब्रॉण्टे बहनों ने ऐसे नामों
से लिखा जिससे लेखक का जेण्डर स्पष्ट न हो या पुरुष लगे। एमिली ऑर्बेक ने खुद को
जेन ऑस्टेन किया।
यह उन्नीसवी सदी की बात थी। लेकिन इसी सदी की
शुरुआत में हैरी पॉटर उपन्यास-शृंखला की लेखिका जोन ने पहला उपन्यास लाते हुए अपना
नाम जे.के.राउलिंग किया जिससे पता ही न चले कि लिखने वाली कोई स्त्री है। इससे वे
लड़कों को भी अपने पाठक के तौर पर आकर्षित कर सकती थीं। ‘द गार्जियन’ ने 31 जुलाई, 2015
के एक लेख में एक अध्ययन का उल्लेख किया है जिसके अनुसार स्त्री-लेखकों के लगभग
अस्सी प्रतिशत पाठक स्त्रियाँ ही होती हैं।( पुरुष उसे अपने पढने लायक नहीं समझते या
स्त्री को लेखक ही नहीं समझते ! ) जबकि पुरुष-लेखकों को सालों से स्त्रियाँ पढती-गुनती आ रही हैं।
आलोचना स्त्री-लेखन को ख़ारिज करने की जल्दी में रहती
है
स्त्री-लेखन को ‘अगम्भीर’
मानने की एक प्रबल धारणा रही है जो हर नई लेखिका को प्रतिकूल ढंग से
प्रभावित करती है। दूसरी यह कि स्त्री-लेखन के महज़ बीस प्रतिशत ही पुरुष-पाठक हैं।
तीसरी भी बात है एक। स्त्री-लेखन को ही अगम्भीर माना जाता है तब उसपर टिप्पणी/
आलोचना/ समीक्षा लिखने वाली स्त्री को भी उतना ही अगम्भीर माना जाता
होगा। पुरुष-आलोचकों में स्त्री-लेखन को ख़ारिज करने का दम्भ यूँ ही नहीं आया। उनकी
बात सुनी जाती है। भले ही कितनी भी अगम्भीर हो। यह साहित्य की दुनिया में लेखिकाओं
की जमात के ऊपर पुरुषों को एक सत्ता के रूप में ही स्थापित करता है।
आलोचकों का यह रवैया नया नहीं है
अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘जेन आयर’ के लिए जानी जाने वाली चेर्लेट लिखती हैं-
“हमने शुरु से लेखक बनने का सपना संजोया था। यह सपना, जिसे
हमने तब भी नहीं छोड़ा जब दूरियों ने हमें अलग किया और खपाऊ कामों ने उलझा लिया,
उसे अचानक एक ताकत और रवानगी मिल गई: उसने एक संकल्प का रूप ले लिया।
हम अपनी कविताओं का एक छोटा सा संकलन तैयार करने पर सहमत हुए और सम्भव हुआ तो उसके
प्रकाशित कराने के लिए।। नज़रों में आने से बचने के लिए हमने करर, एक्तन और एलिस बेल के नाम से अपनी पहचान ढंक ली; एक
ऐसा अपष्ट सा चयन जिसके पीछे एक ईमानदार सी झिझक थी और यह धारणा कि ईसाई नाम अवश्य
ही मर्दाना होंगे, हम भी यह घोषणा नहीं करना चाह्ते थे कि हम
स्त्री हैं, क्योंकि हमें संदेह था कि हमारा लिखने और सोचने
का तरीक़ा वह नहीं है जिसे ‘स्त्रियोचित’ कहा जाए- हमें यह लगता था कि लेखिकाओं को पूर्वग्रहों से देखा जाता है;
हमने देखा था कि कैसे आलोचक उन्हें दण्डित करने के लिए चरित्र को
हथियार बनाते थे और पुरस्कृत करने के लिए चापलूसी, जोकि
सच्ची प्रशंसा नहीं होती थी ”- चेर्लेट ब्रोंटे, 19 सितम्बर
1850 (उपन्यास ‘वदरिंग हाइट्स’ के1910
जॉन मर्रे एडीशन से)
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ब्रोंन्टे बहनें , चित्र इंटरनेट से साभार |
स्त्री के
लेखकत्व/ ऑथरशिप का संकट
मन्नू भण्डारी
अपनी आत्मकथा में स्त्री के लेखकत्व से जुड़ी तमाम परेशानियों पर बात करती हैं। राजेंद्र
यादव का लेखक होना हम जानते हैं लेकिन लेखक-पति होना मन्नू भण्डारी की आत्मकथा एक कहानी
यह भी से सामने आता है। ख़ैर, यहाँ लेख से जुड़ी बात। मन्नू
भण्डारी की जो शुरुआती दो कहानियाँ जो कहानी नामक पत्रिका में छपी उन्हें खूब
प्रशंसा मिली। मन्नू लिखती हैं- “यहाँ एक बात ज़रूर कहना चाहूंगी कि कहानी पत्रिका में
छपी शुरु की दो कहानियों के साथ मेरा चित्र नहीं छपा था और नाम स्पष्ट रूप से लिंग-बोधक
नहीं था सो अधिकतर पत्र तो ‘प्रिय भाई’ सम्बोधन से आए...ख़ूब हँसी आई, पर एक संतोष भी हुआ कि
यह प्रशंसा लड़की होने के नाते रियायती बिलकुल नहीं है...(उस समय इसका भी बड़ा चलन था)
विशुद्ध कहानी की है”
सिमोन द बोवा की किताब द सेकेण्ड सेक्स के हिंदी
अनुवाद का एक अजब किस्सा
प्रभा खेतान ने जब स्त्रीवादी क्लासिक ‘द सेकेण्ड सेक्स’ का अनुवाद किया तब वे ऐसे ही संशय
में थी कि जाने एक स्त्रीवादी किताब के एक स्त्री द्वारा किए गए अनुवाद को कैसे
लिया जाएगा पाठकों के बीच। वे एक मज़ेदार घटना बताती हैं। जब किताब के लोकार्पण के
लिए अखबार में विज्ञापन दिया गया तो यह देखकर प्रभा खेतान की हालत ख़राब हो गई कि
अखबार ने सेक्स शब्द देखकर ही किताब के विज्ञापन को सेक्स-विज्ञापनों वाले कॉलम
में डाल दिया है।
यह जंग सिर्फ साहित्य की दुनिया में ही नहीं पत्रकारिता
में भी थी
एलेन शोवाल्टर बताती हैं कि घर-परिवार के भीतर
भी स्त्रियाँ जूझ रही थी। यह सिर्फ लेखिकाओं की ही समस्या नहीं है।
स्त्री-पत्रकारों की भी है। उन्होने क्वार्टरली रिव्यू से एलिज़ाबेथ रिग्बी को
उद्धृत किया है जो कहती हैं कि ‘स्त्री-पत्रकारों को आरम्भ
में बहुत अच्छा बर्ताव मिलता है जनता से जब वे अनाम लिखती हैं जिससे लगे कि किसी
पुरुष का लिखा हुआ है।‘ (लिट्रेचर ऑफ देयर ओन, पेज -49 ) एलिज़ाबेथ क्वार्टरली रिव्यू में नियमित रूप से
लिखने वाली पहली स्त्री आलोचक और साहित्यकार थीं।
“द गार्जियन” के उस लेख में यह भी कहा गया है कि
आज जब पुरुष उपन्यास पढना छोड़ डिस्कवरी और एच.बी.ओ को अधिक समय दे रहे हैं तब
उपन्यास-कहानियों के पुरुष-लेखकों के लिए एक नया संकट उभरा कि वे अपनी कहानियाँ
स्त्री-छ्द्म नामों से लिखें ताकि कम से कम स्त्री-पाठकों को वे विश्वसनीय लगें और
उन्हें पढा जाए । छ्द्म स्त्री-मान से लिखने वाले तीन लेखकों का ज़िक्र लेख में है
और वे तीनो अपनी स्थिति से संतुष्ट हैं। तीन में से
एक शॉन थॉमस कहते हैं – “it arguably helps, these days, for fiction
writers to be female, or at least not male.”
हिंदी की दुनिया में अभी ये प्रश्न प्रश्न ही नहीं
हैं। अगर कुछ है तो कुछ और ही खेल हैं।
हमारे यहाँ, कम से कम
हिंदी में ऐसे आँकड़े निकालने और उनका अध्ययन करने की कोई ज़रूरत नहीं समझी जाती।
छद्म-स्त्री-नाम से फेसबुक पर की जाने वाली कारस्तानियों को छोड़ दें तो असल में
छद्म-स्त्री नाम से लिखने वाले कवियों का कोई कविता-संग्रह या उपन्यास हिंदी में
अब तक नहीं आया है। स्नोवा बार्नो ‘हंस’ में छपी अपनी एक कहानी से एकदम चर्चा में आई लेकिन उनके स्त्री या पुरुष
होने के बारे में अब तक कोई ठोस बात पता नहीं चली है। ऐसा संदेह लगातार जताया जाता
रहा है कि वह कोई पुरुष है जो स्त्री-नाम से लिख रहा है। न ही हिंदी लेखिकाओं-कवयित्रियों को स्वीकृति
पाने और जगह बनाने के लिए पुरुष-नाम का सहारा लेकर लिखने की ज़रूरत पड़ी है। शायद
हमारे यहाँ कवि/ लेखक की जगह बनाने में अभी पाठकों को इतनी बड़ी भूमिका नहीं मिली
है। हमारे यहाँ अभी आलोचक, टिप्प्णीकार, साहित्यिक पत्रकारिता करनेवाले, बाज़ार और प्रकाशक ही
यह काम कर रहे हैं।
(आने वाली किताब स्त्रीवादी आलोचना दृष्टि से एक अंश)