अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी ....
याद है यह पंक्ति आपको? यही वह पंक्ति है जिसे राजस्थान
शिक्षा बोर्ड ने झाँसी की रानी कविता से मिटाकर स्कूलों में पढाया। राजस्थान क्या ग्वालियर
में भी आपको इस सुप्रसिद्ध कविता का यह अंश सुनाई नहीं पड़ेगा। सिंधियाओं की अंग्रेज़ों
से मित्रता और झाँसी की रानी के साथ हुआ विश्वासघात आप इतिहास से कितना ही मिटाने की
कोशिश करें हिंदी की जानी-मानी कवि सुभद्रा कुमारी चौहान राजस्थान इसे अपनी कविता में
बखूबी दर्ज कर गई हैं।
राष्ट्रीय काव्यधारा की यशस्वी कवि
16 अगस्त को 1904 में इलाहाबाद में जन्मी सुभद्रा
कुमारी 9 बरस की उम्र में ही अपनी कविता से अपने पूरे स्कूल भर में प्रसिद्ध हो गई
थीं लेकिन बस नवीं तक ही वे पढाई कर पाईं। 15 साल में उनका विवाह हो गया। लेकिन उनकी
प्रतिभा और कविता की राह में यह रुकावट नहीं बन पाया। पति लक्ष्मण सिंह चौहान के साथ
ही 1923 में ये गाँधी जी के सत्याग्रह आंदोलन में शामिल हो गई और दो बार जेल गईं।
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग
राष्ट्रीय काव्यधारा में
जिस कवयित्री का नोटिस लेने से कोई नहीं चूक सकता वे सुभद्राकुमारी ही हैं। लेकिन ख़ूब
लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी के अलावा भी उनकी कई कविताएँ हैं जो स्वतंत्रता-आंदोलन
की विरासत हैं। राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा और मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे
महबूब न माँग जैसी पंक्तियाँ पढते हुए हमें एक पुरुष का दुनिया/समाज के प्रति अपने
कर्तव्यों के निर्वाह को प्रेमिका से ज़्यादा तरजीह देना कितना स्वाभाविक लगता है।सच
यह है कि स्त्री की ज़िंदगी में भी हर राहत वस्ल की राहत नहीं हो सकती। उसकी ज़िंदगी
में भी समाज/ देश के प्रति कर्तव्यों की कई चुनौतियाँ होती हैं। उसके लिए कविता करना
भी गृहस्थ-जीवन और प्रेम के समकक्ष चुनौती बनकर खड़ा हो सकता है। वीरों का कैसा हो बसंत
और जलियाँवाला बाग पढ़ना चाहिए। एक अन्य कविता में पति के साथ इन्हीं भावनाओं
का द्वंद्व दिखाई देता है। पति शृंगार रचना की कामना करता है, स्वभावत: दुनिया ही स्त्री से कोमल विषयों पर लिखने की उम्मीद करती है। वे स्त्रीत्व का नया मानक गढती हैं। स्त्री जो एक प्रेमिका ही नहीं माँ भी है और साथ-साथ राष्ट्र की एक नागरिक भी।
मुझे
कहा कविता लिखने को,
लिखने मैं बैठी तत्काल।
पहिले
लिखा- ‘‘जालियाँवाला’’,
कहा कि ‘‘बस, हो गये निहाल॥’’
तुम्हें
और कुछ नहीं सूझता,
ले-देकर वह खूनी बाग़।
रोने
से अब क्या होता है,
धुल न सकेगा उसका दाग़॥
भूल
उसे, चल हँसो, मस्त हो- मैंने कहा- ‘‘धरो कुछ धीर।’’
तुमको
हँसते देख कहीं,
फिर फ़ायर करे न डायर वीर॥’’
कहा-
‘‘न मैं कुछ लिखने दूँगा,
मुझे चाहिये प्रेम-कथा।’’
मैंने
कहा- ‘‘नवेली है वह रम्य वदन है चन्द्र यथा॥’’
अहा!
मग्न हो उछल पड़े वे। मैंने कहा- सुनो चुपचाप
बड़ी-बड़ी
सी भोली आँखें,
केश पाश क्यों काले साँप (मेरी
कविता- सुभद्राकुमारी )
वे उस नवब्याहता का चित्र खींचती हैं जो इसी जलियावाला
बाग हत्याकांड में अपने प्रिय को खो चुकी है जो हाथों की मेहंदी लिए, आँसू पोछ्ते हुए, रोज़ पागलों की तरह उस बाग की ओर जाती
है और अपने सुख के दिनो को याद करती है, आँसू बहाती है। यह कविता
पुन: पाठ की माँग करती है हमसे।
देश के प्रति कर्तव्य भावना को नारी की भगिनी, मातृ तथा प्रेयसी भावना के साथ समंवित करके उन्होंने कर्तव्य तथ्हा भावना का
सुंदर सामंजस्य उपस्थित किया है। देश प्रेम की भावनाओं के अतिरिक्त उन्होंने वात्सल्य
रस की सुंदर कविताएँ लिखी हैं। - प्रो. सावित्री सिन्हा
(हिंदी की मध्यकालीन कवयित्रियाँ p.305)
वीर स्त्री को मर्दानी कहती हैं सुभद्रा ?
झाँसी की रानी को मर्दानी लिखने से बहुत से लोग आज
प्रश्न करते हैं कि क्यों वे वीर स्त्री को मर्दानी कहती हैं? मैं पूछती हूँ
वीरता के मानक क्या बनाए हैं समाज ने? क्या वे मर्दाना ही नहीं
हैं? (एक अंग्रेज़ अफसर ने भी लिखा था कि लड़ने वालों में एक ही
मर्द था- झाँसी की रानी।) अपने युग की चेतना और अभिव्यक्तियाँ प्रभावित करती ही हैं।
युद्ध और राजनीति माने की मर्दाना इलाके जाते हैं हमेशा से। पुलिस में शामिल होने वाली स्त्री से भी मर्दानी होने की अपेक्षा की जाती है। बहादुरी मार-काट है, युद्ध, आक्रामकता है। प्रसव वेदना सहना, अकेले परिवार का भरण-पोषण करना नहीं, मीलों दूर से चलकर पानी के मटके सर पर उठा लाना, खेतों में काम करना, मवेशियों का पानी-सानी करना, चक्की पीसना नहीं। श्रम का, बहादुरी का ऐसे ही जेंडर अलग कर दिया गया। हम भी तो 56 इंच के सीने वाला प्रधान मंत्री चाहते हैं। सबको अपनी सम्वेदना के दायरे में समेट लेने वाली जेसिंडा आर्डर्न जैसी प्रधानमंत्री नहीं ! अपनी ओर कभी सवालिया उंगली उठाते हैं हम?
यह भी देखिए कि जिस समय सभी कवियों ने वीरों और महापुरुषों का प्रशस्ति-गान किया उन्होंने झाँसी की रानी को हीरो माना। साथ ही उन्होंने राष्ट्रीय काव्य धारा के भीतर के प्रचलित रूपक नहीं लिए। अपने रूपक और मानक बनाए।
बेटी के जन्म को सेलीब्रेट करने वाली वे हिंदी
की पहली कवयित्री
लेकिन याद रखना चाहिए कि बेटी
के जन्म को सेलीब्रेट करने वाली वे हिंदी की पहली कवयित्री हैं। एक रूढिवादी ज़मींदार
परिवार में जन्म लेकर, एक रूढिवादी समाज में जीते हुए ‘मेरा नया बचपन’ कविता में बेटी को ही अपने व्यक्तित्व
का विस्तार मानती हैं। गर्वित और प्रसन्न होती उनकी कुछ कविताएँ संकेत देती हैं कि
उनके पति भी कन्या के जन्म से शायद प्रसन्न न थे। एक कविता ‘इसका रोना’ पढिए-
तुम
कहते हो - मुझको इसका रोना नहीं सुहाता है।
मैं
कहती हूँ - इस रोने से अनुपम सुख छा जाता है।
सच
कहती हूँ,
इस रोने की छवि को जरा निहारोगे।
बड़ी-बड़ी
आँसू की बूँदों पर मुक्तावली वारोगे।।
ये
नन्हें से होंठ और यह लंबी-सी सिसकी देखो।
यह
छोटा सा गला और यह गहरी-सी हिचकी देखो।
कैसी
करुणा-जनक दृष्टि है,
हृदय उमड़ कर आया है।
छिपे
हुए आत्मीय भाव को यह उभार कर लाया है।
बालिका का परिचय एक अनूठी
कविता है। बेटी को आंगन में खेलते हुए वे उसी में अपना कृष्ण, राम, ईसा मसीह, काबा, काशी सब देख लेती हैं। पुत्री के जीवन में होने को लेकर ऐसी प्रसन्नता और आश्वस्ति
हिंदी कविता में निराली थी। क्रांतिकारी थी।
बीते
हुए बालपन की यह,
क्रीड़ापूर्ण वाटिका है
वही
मचलना, वही किलकना, हँसती हुई नाटिका है।
मेरा
मंदिर, मेरी मसजिद, काबा काशी यह मेरी
पूजा
पाठ, ध्यान, जप, तप, है घट-घट वासी यह मेरी।
मिट्टी खाने वाले बाल-कृष्ण के मुख में जैसे यशोदा
ने पूरा ब्रह्माण्ड देख लिया था कैसा अलौकिक दृश्य है। सूरदास के यहाँ आई
कृष्ण की बाल-लीलाओं या तुलसी के वात्सल्य वर्णन से कहीं आगे जाता हुआ कितना सुंदर, सहज, मानवीय चित्र बनता है यहाँ। वात्सल्य ही नहीं प्रेम की भी सहज अभिव्यक्तियाँ इनके यहाँ मिलती हैं।
'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आई थी।
कुछ
मुँह में कुछ लिए हाथ में मुझे खिलाने लाई थी।।
पुलक
रहे थे अंग,
दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह
पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा।।
मैंने
पूछा 'यह क्या लाई?' बोल उठी वह 'माँ,
काओ'।
हुआ
प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'
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